ज्ञानेन्द्र, रविन्द्र, मनीषा और गनतन्त्रवादीयों पर बसन्त बस्नेत की नजर
काठमांडू, 29 मार्च । बसन्त बस्नेत द्वारा लिखित यह लेख, जो २०८१ चैत १६ गते प्रकाशित हुआ, नेपाल के राजतंत्र और गणतंत्र के बीच के जटिल संबंधों, राजावादियों की मानसिकता और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर एक गहरा और विचारोत्तेजक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। लेख में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह, राजावादी नेता दुर्गा प्रसाईं, रवींद्र मिश्र, और अन्य प्रमुख व्यक्तित्वों के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों पर तीखी टिप्पणी की गई है। यह लेख न केवल राजतंत्र के पतन और गणतंत्र के उदय की कहानी कहता है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि क्या वास्तव में राजावादियों ने राजा के हित को समझा या उसे केवल एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया।
मुख्य बिंदुओं का विश्लेषण
लेख की शुरुआत में बस्नेत यह तर्क देते हैं कि यदि राजावादियों को समय रहते यह समझ आ जाता कि राजवंश में न केवल सुख, बल्कि दुख भी पीढ़ियों तक हस्तांतरित होते हैं, तो वे बहुत पहले गणतंत्रवादी बन गए होते। यह विचार गहराई से सोचने पर मजबूर करता है कि राजतंत्र का समर्थन करने वाले लोग वास्तव में राजा के कल्याण के लिए कितने प्रतिबद्ध थे। लेखक यह कहते हैं कि सच्चा राजावादी वही है जो राजा के भले की कामना करता हो, न कि उसे एक सामान्य मानव के रूप में जीने की आजादी से वंचित करता हो। यह टिप्पणी ज्ञानेंद्र शाह के जीवन पर प्रकाश डालती है, जिन्हें बचपन से ही जबरदस्ती राजा बनाया गया और बाद में भी उन्हें अपनी इच्छा के विपरीत भूमिकाओं में ढाला गया।
लेख में तीनकुने की घटना का उल्लेख है, जहां दुर्गा प्रसाईं जैसे नेताओं ने राजावाद के नाम पर हिंसक प्रदर्शन को बढ़ावा दिया। बस्नेत इस घटना को निंदनीय और त्याज्य बताते हुए प्रसाईं की क्षमता और चरित्र पर सवाल उठाते हैं। वे यह भी कहते हैं कि ज्ञानेंद्र जैसे व्यक्ति को ऐसे “गुणवत्ताहीन मानव संसाधन” पर निर्भर होना पड़ना उनकी असहायता को दर्शाता है। यह टिप्पणी राजतंत्र के पतन के एक कारण को रेखांकित करती है—सक्षम नेतृत्व और समर्थन की कमी।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राजतंत्र का विरोधाभास
लेखक ने ज्ञानेंद्र और उनके परिवार के सदस्यों—पारस, हिमानी, हृदयेंद्र और कृतिका—के व्यक्तिगत सपनों और संभावनाओं का जिक्र किया है, जो राजतंत्र की बाध्यताओं के कारण दब गए। उदाहरण के लिए, पारस एक खिलाड़ी बन सकते थे, हिमानी प्रोफेसर, और हृदयेंद्र गायक। यह तर्क दिया गया है कि राजतंत्र ने इन व्यक्तियों को उनकी निजी इच्छाओं के खिलाफ बांधकर उन्हें एक साधारण जीवन जीने से वंचित कर दिया। यह विचार आधुनिक समाज के मूल्यों से मेल खाता है, जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय को सर्वोच्च महत्व दिया जाता है।
राजावादी नेताओं की आलोचना
लेख में दुर्गा प्रसाईं, रवींद्र मिश्र और अन्य राजावादी नेताओं पर कटाक्ष किया गया है। प्रसाईं को एक अराजक और अवसरवादी व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है, जो संविधान और कानून को चुनौती देता रहा, लेकिन सत्ता के समर्थन से बचता रहा। वहीं, रवींद्र मिश्र, जो कभी प्रगतिशील विचारधारा के प्रतीक माने जाते थे, अब राजतंत्र की बहाली जैसे असंवैधानिक सपनों के पीछे भागते हुए हिंसा और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के आरोपी बन गए हैं। बस्नेत उनकी इस “मार्ग परिवर्तन” को हानिकारक मानते हैं और इसे प्रकाशमान सिंह जैसे औसत नेताओं से भी बदतर बताते हैं।
मनीषा कोइराला पर भी समीक्षा
बसन्त बस्नेत के लेख में मनीषा कोइराला का उल्लेख एक अप्रत्याशित लेकिन विचारोत्तेजक प्रसंग के रूप में आता है। लेखक उन्हें एक ऐसी शख्सियत के रूप में पेश करते हैं, जो न केवल बॉलीवुड की सफल अभिनेत्री हैं, बल्कि नेपाल के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य से भी जुड़ी हुई हैं। मनीषा, जो बी.पी. कोइराला की नातिन और प्रकाश कोइराला की बेटी हैं, को लेख में एक ऐसी महिला के रूप में देखा गया है, जो अपने पारिवारिक इतिहास और व्यक्तिगत उपलब्धियों के कारण नेपाली जनमानस में गर्व का विषय रही हैं।
लेखक स्वीकार करते हैं कि मनीषा का पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के प्रति भावनात्मक झुकाव होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, खासकर उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए। वे यह भी कहते हैं कि जब कई अन्य हस्तियां—जैसे जगमान गुरुङ और मिडिया व्यक्तित्व—ज्ञानेंद्र के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान से जुड़ रहे थे, तो मनीषा का भी इस तरह के विचारों का समर्थन करना अस्वाभाविक नहीं था। हालांकि, बस्नेत इस समर्थन को “विषाक्त विचार” कहकर इसकी आलोचना करते हैं।
मनीषा के संदर्भ में लेख का सबसे प्रभावशाली हिस्सा तब आता है, जब बस्नेत बताते हैं कि लेखक-अनुवादक मंजुश्री थापा और केदार शर्मा जैसे सम्मानित व्यक्तियों ने मनीषा के विचारों से असहमति जताते हुए उन्हें अपनी फेसबुक मित्र सूची से हटा दिया। यह “राजनीतिक कदम” मनीषा के प्रति उनके स्नेह के बावजूद उनके विचारों को अस्वीकार करने का प्रतीक था। बस्नेत खुद को भी इस पंक्ति में शामिल करते हैं, यह कहते हुए कि वे मनीषा के कला जीवन की शुभकामना देते हैं, लेकिन उनके राजनीतिक रुख से सहमत नहीं हैं। वे “हीरामंडी 2” की प्रतीक्षा करने की अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं, जो मनीषा की कलात्मक पहचान को रेखांकित करता है, लेकिन साथ ही राजतंत्र की बहाली जैसे विचारों को समर्थन देने वाली उनकी भूमिका को खारिज करते हैं
गणतंत्र और नेतृत्व की चुनौतियां
लेख का एक बड़ा हिस्सा गणतंत्र की वर्तमान स्थिति और इसके नेताओं—प्रचंड, ओली, देउवा—की आलोचना पर केंद्रित है। लेखक यह सवाल उठाते हैं कि 16 साल बाद भी नागरिकों में बढ़ती बेचैनी का कारण क्या है और नेतृत्व इस पर आत्ममंथन क्यों नहीं कर रहा। वे गणतंत्र को मजबूत करने के लिए केवल जुलूस और प्रतीकात्मक कदमों को अपर्याप्त मानते हैं और इसे पंचायतकालीन प्रजातंत्र दिवस की याद दिलाने वाला बताते हैं।
निष्कर्ष
बसन्त बस्नेत का यह लेख एक तीखा, भावनात्मक और वैचारिक रूप से समृद्ध विश्लेषण है, जो नेपाल के अतीत और वर्तमान को जोड़ता है। यह राजतंत्र को रोमांटिक नजरिए से देखने के बजाय उसकी कमियों को उजागर करता है और गणतंत्र को मजबूत करने के लिए नेतृत्व से आत्मनिरीक्षण की मांग करता है। लेखक की शैली व्यंग्यात्मक और प्रभावशाली है, जो पाठक को सोचने पर मजबूर करती है। हालांकि, कुछ जगहों पर व्यक्तिगत हमले और भावनात्मक अतिशयोक्ति तर्कों को कमजोर करती प्रतीत होती है। फिर भी, यह लेख समकालीन नेपाली समाज और राजनीति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
प्रस्तुति : सुदर्शन नेपाल

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