योगीराज हंडि़या बाबा : सचिच्दानन्द चौबे
सच्चिदानन्द चौबे, हिमालिनी अंक जून 2025 । योगीराज हंडि़या बाबा का जन्म बिहार प्रान्त के भागलपुर जिले में पुण्य सलिला भगवती भागीरथी के पावन तट पर स्थित “खरीक बाजार” नाम के एक छोटे से गाँव में माता सरस्वती देवी की कोख से १२ मई १८६० ई. में हुवा था । आपके पिता श्री गोकल प्रसाद पोद्दार बडेÞ शालीन स्वभाव के थे । आप अपने माता– पिता के एक मात्र पुत्र थे और आपके एक बहिन भी थी । इनके इनके जन्म से सारे परिवार में आनन्द की लहर दौड़ गई इनके चचेरे भाई बगैरह कई लोग थे परन्तु अपने भोले–भाले धार्मिक प्रवृति के माँ–बाप के आप अकेले पुत्र थे । आप अधिक पढ़ लिख नहीं पाए केवल ४ कक्षा ही तक पढ़ पाए बाँकी जो कुछ पढ़ा–सीखा वह सब परिवार में रहकर ही सीखा । आप बचपन से ही विलक्षण प्रकृति के बालक कभी मोर पंख धारण कर “कृष्ण लीला” करते बाग बगीचे नदी के तट पर नाचते गाते थे तो कभी शमशान भूमि की भस्म शरीर में लगाकर शिव का ताण्डव दिखाते । बचपन में ही माँ की ममता से वंचित हो गयें ।
पिता जी के साथ कीर्तन–भजन में मस्त रहते थे । सात–आठ वर्ष की ही आयु से ये प्रातः उठकर नदी में स्नान करने जाते श्रद्धा–भक्ति के साथ मन्दिरों में जाकर प्रभु को जल चढ़ाकर पुष्पाञ्जलि अर्पण करते थे । भगवान के समक्ष घंटो नेत्र बन्द करके ध्यान मग्न हो जाते थे । शरीर में मिट्टी का लेप करके हाथ में कोई पेंड़ की टहनी लेकर उछलते–कूदते रहते । लोग इनके भक्ति भाव का आचरण देखकर इन्हे “गोसाई” नाम से पुकारने लगे और बचपन वे इसी नाम से प्रचलित रहे । आप अपने मित्रों के प्राण सखा थे । आपके बिना सब बेचैन रहते, कभी–कभी आप ध्यान में बैठ जाते, लोग कंकड़ मारकर आपको जगाते थे पर आप क्रोधित न होकर मुस्कुराकर उन्हें अपने पास बिठा लेते थे । धीरे–धीरे आप युवा हुए । आपके परम् मित्र तथा बचपन के गुरु “मिश्री गोंसाई” जो इनसे उम्र एवं अनुभव में इनसे बडेÞ थे । आप दोनों लोग कभी–कभी गेरुवा बस्त्र धारणकर साधु बन जाते थे । “मिश्री गोसाईं” अच्छे साधक थे । घण्टों एक आसन पर बैठकर शत अक्षर मन्त्र का जाप किया करते थे उन्ही के सानिध्य में ये भी उनसे शत–अक्षर मन्त्र सीखकर जाप करने लगे । कभी–कभी दोनों गुरु–चेला सारी रात जाप में ही बिता दिया करते थे ।
विवाहः–
कुछ और सयाने होने पर इनका पाणिग्रहण संस्कार करा दिया गया । जीवकोपार्जन के लिए आपने अपने बाप–दादों के पेशा को ही अपनाया । आप सोना चाँदी के जेवर बनाकर अपनी जीविका चलाने लगे । आप व्यापार के साथ ही अध्यात्मिक कार्य में भी अपना समय लगाते रहे । होनी को कौन टाल सकता है इनकी धर्मपत्नी का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया जिससे ये जीवन से विरक्त जैसे हो गए । ये देखकर हित–मित्र एवं परिवार के लोगों ने इनका दूसरा विवाह करवा दिया । पत्नी बहुत ही सुन्दर एवं सुशीला थी पर भावी बहुत प्रबल होती है अतः गाँव में प्लेग फैला और उसमें इनकी दूसरी पत्नी भी चल बसी । प्लेग की बिमारी के कारण से कोई भी इनकी पत्नी के निकट अन्तिम संस्कार के लिए नहीं आया – संक्रामक बीमारी फैलने के कारण सभी गाँव छोड़कर चले गए थे । इन्होंनें अकेले पत्नी को अपने कन्धे पर उठकार नदी के तीर पर ले जाकर अन्तिम संस्कार किया । और वहीं पर गोसाईं जी ने प्रतिज्ञा किया कि अब विवाह नहीं करुँगा । आप विरक्त की भाँति जंगल में घूमते रहते पत्नी का गहरा शोक इनको विचलित कर दिया अतः अधिक समय जंगल में बिताने के कारण इनका नाम “जंगली गोसाईं” पड़ गया । आपके हृदय में, पत्नी वियोग का गहरा आघात लगा और आपने उसी समय दृढ़ निश्चल करके घर को छोड़ तीर्थाटन के लिए चल पडेÞ । प्रमुख–प्रमुख तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते हुए आपने अपने जीवन काल में ७ वीं बार श्री बद्रीनाथ एवं केदारनाथ की पैदल यात्रा की गंगोत्री एवं यमनोत्री के किनारे–किनारे चलते हुए विभिन्न स्थानों का परिभ्रमण किया । ब्रह्मपुत्र के किनारे–किनारे चलते हुऐ कामक्षा से परशुराम कुण्ड तक तथा नर्बदा के किनारे–किनारे अमर कन्टक तक भी पैदल यात्रा की । दक्षिण में सेतुबन्ध रामेश्वरम् एवं कन्या कुमारी तक पैदल यात्रा की । काश्मीर में अमरनाथ तथा नेपाल में मुक्तिनारायण एवं बागेश्वरी की यात्रा ३ बार की समस्त भारत वर्ष का भ्रमण कई बार किया ।

अपनी पद यात्रा के बीच जंगली गोसाई महाराज अनेक सिद्ध–संत महात्माओं के दर्शन किए एवं उनके अनुभवों एवं उपदेशों का हृदयंगम किया इसी तीर्थाटन के क्रम में योगीराज महाराज प्रयाग पहुँचे यहाँ झाऊ के घने वृक्षों के बीच में दारागंज और झूसी के बीच में जो शमसान घाट है वहीं पर कई वर्षो तक योग साधन का अभ्यास किया । कुछ वर्षों वाद आप पुनः गंगा के किनारे–किनारे चलते हुए बिहार प्रान्त तक पहुँचे वहाँ उनकी भेंट श्रीस्वामी योगानन्द जी सरस्वती महाराज से हुई । योगानन्द महाराज हठयोग और राजयोग के उच्चकोटि के सिद्ध योगी थे । जंगली गोसाई महाराज बचपन से ही हठ योग और राजयोग में विशेष अभिरुचि रखते थे अतः कुछ दिनों तक योगानन्द महाराज के सानिध्य में रहकर योगाभ्यास करने का निश्चय किया । योगानन्द महाराज से आपने हठ योग और राजयोग की सारी क्रियाओं को सीखकर उनसे गुरुदीक्षा लेकर अपना गुरु बना लिया श्री योगानन्द महाराज ने आपको “हृदयानन्द” की उपाधि से अभिहित किया । तभी से आप जंगली गोसाईं से हृदयानन्द सरस्वती हो गए । श्री योगानन्द महाराज के संरक्षण में योगा में दक्ष होकर एवं योगका रहस्य जानकर आप पुनः अपनी यात्रा प्रासम्भ करदी । और इसबार आप बिन्भाञ्चल वृत पर डटकर योगाभ्यास करने लगे । मातु गंगा के तटपर श्री रामगयाघाट और वृत के ऊपर मोतिया तालन्व तथा गेरुवा तालाव पर अधिक दिनों तक आपने हठयोग और राजयोगका अभ्यास किया । वहाँ से आप प्रयागराज लौट आए और दारागंज श्मसानघाट पर एक झोपड़ी बनाकर योगाभ्यास करने लगे ।

दिनचर्याः–
गुरुजी नित्य प्रातः काल चार बजे उठ जाते और शीतकाल में धूनी जलाकर शौच के लिए चले जाते थे । शौच से लौटकर गुन–गुना पानी पीकर वमन या कुञ्जल क्रिया करते थे । कभी कभी अधिक जल पीकर मलद्वार से निकाल देते थे ऊष्ण जल में सेंधा नमक डालकर कभी– कभी नासिका छिद्रों द्वारा जल खींचकर मुँह निकालते कभी मुहँ से जल पीकर नासिका से निकालते इस क्रिया को जलने की क्रिया कहते हैं । कभी कभी डेढ हाथ लम्बी सूत की बनी बत्ती नासिका छिद्रा में डालकर मुख से निकालते थे इस क्रिया को “सूत नेति क्रिया” कहते हैं । नित्य दश मिनट तक गंगामृतिका द्वार जिहा को दोहन करते थे । लम्बी जीभ से खोचरी मुद्रा करने में सुविधा होती है । दाँतों को भी आप गंगा की मिट्टी से माँजते थे तत्पश्चात ब्रम्हतालु को ठंडे जल से पाँच– दश मिनट धोते थे । हाथ पैर धोकर पानी को गमछा से पोंछकर पदमासन में बैठकर भस्मा प्राणयाम (कपालभाती क्रिया) करते थे ।
तत्पश्चयात उदर सञ्चालन, उड्डियान बन्ध तथा नौली क्रिया करते थे फिर पचास बार पदमासन पर बैठकर कपालभाति क्रिया करते थे । थोडा विश्राम कर खडे होकर ‘ताडासन’ कोनासन तथा बैठकर पदमासन सिद्धासन, पश्चिमोत्तानसन, बज्रासन करके फिर हाथों के द्वारा मयूरासन, बकासन, फिर लेटकर स्र्वागासन, कर्ण पीडासन, हलासन, सर्पासन, चक्रासन, और धनुकासन आदि मिलाकर तीस –चालीस आसन नित्य करते थे । ये आसन व्यायाम के रूप में और शरीर को निरोग एवं दृढ़ रखने के लिए नित प्रतिक्रिया करते थे । आधा घण्टा शीर्षासन के बाद १५ मिनट सीधा खड़े रहते इसके पश्चात १५ मिनट तक शव आसन में पडेÞ रहते । झूलासन जिसमें “पैर ऊपर करके सिर नीचा करके लटके रहते थे । इन आसनों के अतिरिक्त हठयोग के षटकर्म करते थे, वास्तिक्रिया, धौतिक्रिया, चाटकक्रिया, बज्रेलीक्रिया, तथा नेति, नौली, कपालभाती नियमित करते थे ।
कभी–कभी “खेंचरी मुद्रा” शंख प्रक्षालन क्रिया, गणेशक्रिया, शीतली प्राणायाम्, सूर्यभदेन प्राणायाम्,भस्श्रिका प्राणायाम्, भ्रामरी प्राणायाम् एवं बाघीक्रिया भी किया करते थे । इन्ही योगिक क्रियाओं द्वारा आपने हजारों असाध्य रोगियों को प्राणदान किया ।
आहार बिचार ः–
गुरु जी को गेंहू–चना मिले आटे की रोटी बहुत प्रिय थी । मूँग की दाल, चावल की खिचड़ी उनका सर्वप्रिय भोजन था । प्रतिदिन शाक–भाजी वे अवश्य बनाते थे घी–दूध प्रयोग करने के बिशेष पक्षपाती थे । सन्यासी जीवन से आपने खिचड़ी का ही सेवन किया । १ छटाक से लेकर अधिकतम एक पाव त का अन्न ग्रहण करते थे । वे कहते थे अधिक खाने से मनुष्य रोगी हो जाता है । श्रद्धालुओं के यहाँ जाथे वे लोग पे्रम से जो कुछ खिला देते वे पे्रम से पेटभर खा लेते थे । आपको दूसरों को खिलाने में वडाÞ आनन्द आता था आपके साथ जितने भी भक्त बैठे होते सबको बराबर बाँटकर ही कोई चीज खाते थे । साँयकाल वो दूध पीकर ही सो जाया करते थे यही इनका प्रमुख आहार बिचार था । गुरु जी महात्मा कबीर और गुरुनानक के परम् भक्त थे “एकहि साधे सब सधे” इस सिद्धान्त के परम् अनुयायी थे । अर्थात अपना इष्ट किसी एक को ही बनाना चाहिए ।
तीसरे पहर गुरुजी रोगियों एवं षटकर्म सीखने वालों के लिये सूतनेति, ब्रम्हदातून या बाँस की पुल्लियाँ बनाते रहते थे चार बजे एक मिट्टी की हंडिया लेकर दारागंज घूमने निकल जाते थे । उनके हाथ में सदैव एक मिट्टी की हंडिया रहती थी इस कारण लोग स्वामी जी का “हृदयानन्द” नाम बदलकर “हडिया बाबा” रख दिया, और वे इसी नाम से प्रचलित हो गए । गुरु जी की हंडि़या में लोग पैसा– मिठाई – फल आदि डाल देते थे फिर वे उसे कुटिया में लाकर खोलते थे पैसा अलग रखकर बाँकी फल –फूल मिठाई आदि सभी को बाँट देते थे । यह उनकी दैनिकी बन गई थी लोग उनकी प्रशंसा और सम्मान करने लगे ।
हडि़या बाबा ने अपने जीवन में न जाने कितने असाध्य रोगियों को स्वास्थ्य लाभ कराया । लोग उनके द्वार से खाली नहीं जाते थे । वे जब तक जीवित रहे तन–मन–धन से सेवा करते रहे । एक एक्सीडेन्ट में उनका एक पैर फै्रक्चर हो गया था उसे अपने पूर्व जन्म के किसी गलत कर्म का फल समझकर स्वीकार कर लिया था । आप अपने जीवन काल में न जाने कितने यौगिक चमत्कार दिखाए जिन्हे देखकर लोग चमत्कृत हो जाते थे उनकी इन यौगिक शक्तियों को देखकर जीवन के उतराद्र्ध में जब उनका स्थायी नेपालगन्ज हो गया उनके तमाम भक्त एवं शिष्य बन गए जो उनकी सब तरह से सेवा करते रहे । जिनमें प्रमुख भक्तों में थे –बाबा रामलोचन दास की कइयों बीघा जगह में मुस्लिम लोग जबरजस्ती कर्बला बनाए थे खाली करने का बहुत प्रयास किया परन्तु मुस्लिम समुदाय नहीं माना अतः बाबा जी ने उसको खाली कराने के लिए बल प्रयोग किया–अयोध्या से एक हजार संत–महन्तो को लाकर रातभर में ही उस अमिला कर्बला भूमि पर छप्पर छा गए, कई मडैÞया बनाई गईं रातभर में एक कुँआ खोदा गया चारो तरफ की भूमि को बल्लियाँ गाड़कर घेरा गया और वहाँ पर “योगीराज हडिया बाबा” की समुपस्थिति में एक धार्मिक समागम में कार्यक्रम चालू हुए कीर्तन–भजन नाचगाना एवं प्रवचन प्रारम्भ हो गए । उक्त कार्यक्रम में मेरे बडेÞ चाचा महाबीर चौबे जो स्वामी जी के परम् भक्त थे उनके साथ वहाँ गये स्वामी जी की कुटिया में चाचा के साथ २ दिन तक रहे । मुस्लिम लोगों ने प्रतिशोधात्मक कार्यवाही करने की सोची मगर महात्माओं का पौरुष एवं संख्या देखकर वे चुप रह गए । उसी स्थान पर कुछ वर्ष पूर्व डा. सूर्यलाल वर्मा के सद्प्रयास से गायत्री पीठ की स्थापना हुई जिसमें अब निरन्तर पूजन–हवन एवं विभिन्न कार्यक्रम हुवा करते हैं ।
जब से स्वामी जी इस क्षेत्र में आए उन्हाेंने यहाँ पर भी अध्यात्म की वर्षा कर दी भक्त लोग इनसे जुड़ते गए जिनमें होलीराम बैश्य, लक्ष्मीराज रेग्मी, बालेमुन्ना, गोपालराज रेग्मी, लाला रामचरन अग्रवाल, महाबीर चौबे, सीताराम हलवाई, राम प्रसाद डेबा, बिशवनाथ टण्डन, मोहनलाल बैश्य, पाटनदीन गुप्त, पं ।शीशराम शर्मा, एवं गाँव के बहुत से भक्त थे । इन लोगों की व्यवस्था के कारण यहाँ हर महीने राप्ती नदी किनारे गंगापूजन–हवन–भण्डारा एवं कन्या पूजन, रुद्रीपूजन का कार्यक्रम चलने लगा सम्पूर्ण वातावरण एवं पर्यावरण अध्यात्म से परिपूर्ण हो गया । इन अवसरों पर बाबा जी के द्वार दिखाए गए बहुत से चमत्कार आज तक लोगों में प्रचलित है । जैसे गंगा जी से चीनी घी, उधार लेना और फिर व्यवस्था हो जाने पर उनको लौटा देना । उनकी कृपा से बहुत से गरीब धनवान हो गए निःसन्तानों को सन्तान मिली तमाम असाध्य राेंगियों को ठीक किया ये सब घटनाएँ यथार्थ हैं इनको लोग किवदन्ती समझते है । इस प्रकार स्वामी जी की आशीष वर्षा इस इस क्षेत्र में होती रही । स्वामी जी अपने यात्रा काल में बहुत से राजेरजवाडेÞ एवं संत महन्तो से मिले, जिन्हे अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करके अपना परम् भक्त बना लिया । जिनमें प्रमुख थे काशी, ग्वालियर नरेश और बलरामपुर के नरेश । इन महान हस्तियों के साथ ही साथ थे महान तान्त्रिक बाबा डा.रामनाथ अघोरी स्वामी चिन्मया नन्द, खप्तड़ स्वामी ये सभी हंडि़या बाबा के परम् शिष्य थे । नेपालगन्ज में जब कभी स्वामी जी को कोई शारीरिक कष्ट होता था तो वे बिस्कोहरियन टोल निवासी आयुर्वेदाचार्य सन्त बहादुर शाक्य (लाल बैद्य) को बुलवाते थे और उनसे आयुर्वेदिक उपचार कराते थे । आपको कीर्तन–भजन सुनने का बहुत शौक था अतः वे तबला वादक शीतलकाजी के यहाँ पहुँच जाते थे । वहाँ पर उनके भक्त बाबा हरीशंकर गुरु, लक्ष्मीराज रेग्मी, गोपाल शर्मा रेग्मी, दरबारी कुर्मी और बाबा के परम् भक्त बडे विनम्र एवं ब्राम्हण–सन्तो का सम्मान करने वाले होलीराम बैश्य भी पहुँच जाते थे । सीताराम हलवाई, राम प्रसाद बैश्य, महाबीर चौबे, फुन्नी महराज, बाले मुन्ना , सुर्जीगावँ निवासी आशाराम मिश्र जेसे बहुत से भक्त थे जो एक–एक करके स्वामीजी को अपने आवास पर भिक्षा हेतु बुलाते थे और उनकी चरण रज अपने घर पर पड़ने पर अपने को सौभाग्यशाली समझते थे, इस तहर से आध्यात्मिक कारवाँ बढ़ता गया और एक दिन वह अपनी मन्जिल पर पहुँच गया जहाँ उसे पूर्ण विराम सहित पूर्ण विश्राम करना था । वह दिन था बि.सं ।२०२१ कार्तिक २० गते दिन गुरुवार तदनुसार मार्गकृष्ण द्वितीया अर्थात ६ नवम्बर सन् १९६४ ई.इसी दिन स्वामी जी का पार्थिव शरीर पंच तत्वों में विलीन हो गया और स्मरण रह गएÞ उनके द्वारा किए गए चमत्कारिक कार्य जिससे हजारों लोगों का कल्याण हुआ । इसी समाधिस्थल की पावन भूमि पर सन् १९६६ ई.२१ फरवरी सोमवार तदनुसार बि.सं ।२०२२ साल फाल्गुन १० गते से १३ दिन तक शान्ति कुञ्ज से आए आचार्य श्रीराम शर्मा जी के संरक्षण एवं श्री कृष्ण गोपाल टण्डन के प्रतिनिधित्व तथा प्रातः स्मरणीय पूज्य गोवद्र्धन प्रसाद चौबे एवं पूज्नीय माता चन्द्रकला देवी चौबे के यज्ञमानत्व में सवा लाख गायत्री महायज्ञ का आयोजन हुवा । यज्ञमान के चयन हेतु टण्डन जी के आवास पर वेदान्ती–आचार्य–पण्डितों की एक सभा बुलाई गई जिसमें आचार्य श्रीराम शर्मा जी द्वारा एक अन्तर्वार्ता ली गई जिसमें यज्ञमान होने के लिए कुछ शर्तें रखी गई थी जैसेः–
१. यज्ञमान ब्राम्हण, बेदपाठी, कर्मकान्डी एवं सात्विक प्रवृति का व्यक्ति हो ।
२. कभी भी आमिष का भोज एवं सुराका पान न किया हो ।
३. पुत्रवान हो, पत्नी हो, एवं कोई अंग–भंग न किया हो ।
४. नियमित गायत्री का जाप–पूजन–हवन–तर्पण जैसे धार्मिक कार्य में निरत हो ।
समस्त ब्राम्हणों से इन प्रश्नों को पूछा गया परन्तु किसी न किसी में कोई न कोई त्रुटि निकल आई और सबको वापस भेज दिया गया । यज्ञ कार्य न हो सकने की स्थिति में पहुँच गया पर संयोग कहा जाय कि सौभाग्य उसी अवसर पर हमारे पूज्य पिता गोवद्र्धन प्रसाद चौबे, टण्डन जी के यहाँ कुछ कार्य से गए थे उन्हें देखकर टण्डन जी यजमान के लिए उनके समक्ष उपर्युक्त शर्ते सहित प्रस्ताव रखा जिनमें वे पूर्णतया खरे उतरे और आचार्य जी ने उनको यजमान बनने के लिये आग्रह किया परन्तु पिता जी ने इतनी बड़ी यज्ञ कराने में अपनी असमर्थता व्यक्त की यहां तक टण्डन जी ने कहा चौबे जी आप हाँ कहिए बाकी सब व्यवस्था मैं करवा दूँगा और पिता जी ने अपनी स्वीकृति दे दी । दिन तिथि मिति सब नियत की गई अतः यज्ञ आयोजन की व्यवस्था में लोग जुट गए, टण्डन जी ने कुछ बिशेष ब्यक्तियों की एक मीटिंग बुलाई जिसमें हमारे पिता जी, टण्डन जी सहित, सीताराम हलवाई, राम प्रसाद बैश्य ढेबा, पं । शीषराम शर्मा, बदलूसुबेदार, लाला रामचरन अग्रवाल, बालेमुन्ना, होलीराम बैश्य, लक्ष्मीराज रेग्मी, गोपाल शर्मा रेग्मी सहित कुछ और व्यापारी एवं भक्तों को बुलाया जिसमें सबको कार्यका अभिभारा बाँटा गया । निकट के गाँव की एक बुढि़या जो हर साल उनकी पुण्यतिथि पर गंगाजल लाती है । योगीराज हंडि़या बाबा की पुण्य समाधिस्थली पर अनवरत १३ दिन तक सवालक्ष मन्त्र की आहुतियाँ चलती रही, लगभग दो हजार संत–महात्मा एवं नगरवासी यज्ञ भूमिपर पहुँचकर महापुरुषों के प्रवचन एवं भण्डारे के प्रसाद से लाभान्वित होते रहे । उक्त यज्ञस्थल में बद्रिका आश्रम के जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य शान्तानन्द महाराजका आगमन हुवा था, निरन्तर यज्ञ, प्रवचन, एवं महापुरुषों की पावन चरणरज से वह पावन भूमि और उर्जावान हो गई उक्त पवित्र भूमि के दाता रामनगर निवासी अपरीका प्रसाद यादव का जीवन सफल हो गया । १ बिघा १७ कट्टा जगह उन्होंने हंडि़या बाबा के मन्दिर वास्ते दान दे दिया । यज्ञ अवधि भर हनुमान गढी के बाबा हरी शैकर गिरी, पं ।रामेश्वर आचार्य, पाटनदीन पुजारी एवं विभिन्न क्षेत्र से पधारे हुए प्राज्ञ स्तर के मनीषी जौनपुर से आए ‘आधुनिक अर्जुन’ जो शम्दभेदी बाण का सञ्चालन करते थे, पण्डित, शिक्षक आदि विद्वान का स्वामी शंकराचार्य के मण्डप में उनके आशिर्वचनों का अभिलाषा से आवागमन होता रहा । मुझे भी कई बार स्वामी जी की चरणरज पाने का सौभाग्य प्राप्त हुवा । उनके आशिर्वाद एवं माता–पिता के सुकर्मों के कारण आज मैं अपने जीवन से पूर्ण सन्तुष्ट हूँ और मुझे पूर्ण विश्वास है भविष्य में भी उनकी अहेतुकी कृपा बनी रहेगी समस्त देश–बिदेश के लोगों से मेरा आग्रह है कि यदि इस पावन भूमि पर आनेका अवसर मिले तो आप लोग अवश्य इस योगीराज हंडि़या बाबा की पुण्य समाधिस्थली पर आकर अपनी श्रद्धा–भक्ति के द्वारा मनोवांक्षित फल प्राप्त करें ।
योगीराज हंडि़या बाबा के भक्त
सचिच्दानन्द चौबे
नेपालगन्ज–११ भवानी बाग, बाँके

