काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता
डॉ. शैलेश शुक्ला
व्यंग्य

सरकारी दफ्तरों में जो बिजली सबसे ज्यादा जलती है, वह मीटर से नहीं, ‘कमिशन कनेक्शन’ से जलती है। और अगर बात हो इलेक्ट्रिकल विभाग की, तो समझिए यह विभाग बिजली का नहीं, चालाकियों का हाई वोल्टेज ट्रांसफॉर्मर है। जहाँ तारों से नहीं, तरकीबों से करंट दौड़ता है। मैं जब किसी खराब बल्ब को देखकर खुद ठीक करने की कोशिश करता था, तब सोचता था—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!

चलते हुए एसी को ‘खराब’ कर देना – और फ्री में मालामाल : सरकारी दफ्तरों में एयर कंडिशनर अगर सही चलता है, तो यह तकनीकी उपलब्धि नहीं, भ्रष्टाचार में बाधा है। इसलिए पहला काम होता है—“सिस्टम डाउन” कर देना। यानी जो एसी पंखा दे रहा है, उसे फर्जी रिपोर्ट में ‘नॉन-फंक्शनल’ दिखाना। फिर कबाड़ के भाव उसे टेंडर में चढ़ाना और बाद में वही एसी विभागाध्यक्ष के साले साहब के ड्राइंग रूम की शोभा बन जाता है।
और मज़ेदार बात यह कि वह AC वहाँ भी ‘वर्किंग कंडीशन’ में ही काम करता है। पूछो तो जवाब मिलता है—“हमने मरम्मत करवा ली।” और फिर तुरंत नया एसी लगवाने का टेंडर पास—क्योंकि “सीनियर ऑफिसर को गर्मी लगती है।” विक्रेता आता है, 50 हज़ार का AC 1.5 लाख में बेचा जाता है और उसकी मोटी ‘थैली’ साहब के ब्रीफकेस में पहुंच जाती है। काश, मैं भी इस ‘एयर-कंडीशंड कमाई’ का हकदार होता! मैं भी हर काम करने वाले एसी को ‘अकाल मृत्यु’ दे देता और हर बार नया एसी लगवाकर अपने ड्रॉइंग रूम को ‘शो रूम’ बना देता। सोचकर ही पसीना आता है और फिर खुद को कहता हूं—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता।
बल्ब नहीं, चालाकियां जलती हैं – मरम्मत में ‘मुनाफा’ : इलेक्ट्रिकल विभाग की सबसे बड़ी कला है—रखरखाव (Maintenance)। जो बल्ब तीन महीने चलता है, उसकी रिपोर्ट हर महीने बनाई जाती है। जो स्विचबोर्ड बदलने की ज़रूरत नहीं, उसकी जगह नया बोर्ड हर बार आता है—क्योंकि पुराना बोर्ड “सरक गया था”।
सारा खेल होता है—‘AMC’ यानि Annual Maintenance Contract का। कंपनी वही आती है जो साहब की पसंदीदा हो, क्योंकि वहां से सीधा कैशबैक आता है। मरम्मत के नाम पर कभी वायर बदले जाते हैं, कभी ट्यूब लाइट और कभी पूरे ट्रंकिंग सिस्टम को ही ‘अपग्रेड’ कर दिया जाता है। अंदरखाने का सूत्र यही कहता है—”जितनी बार खराब होगा, उतनी बार बिल बनेगा।” इसलिए जानबूझकर वैसे उत्पाद खरीदे जाते हैं जो जल्दी खराब होते हैं। क्योंकि अगर उपकरण टिकाऊ हो गए, तो ‘कमाई टिकाऊ’ कैसे होगी? मैं सोचता हूँ, क्या गज़ब का नवाचार है—‘फेल्योर’ को ‘फाइनेंस’ में बदलने का! सच में, काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता।
निरीक्षण का रिमोट और शराब-शबाब का फुल सपोर्ट सिस्टम : हर कुछ महीनों में जब मुख्यालय से निरीक्षण दल आता है, तो साहब की तैयारी किसी विवाह समारोह से कम नहीं होती। एसी की हवा तेज़ कर दी जाती है, लाइटिंग का लेवल “फोटो फ्रेंडली” हो जाता है और सबसे ज़रूरी : ‘वेलकम पैकेज’। इसमें शाम को होटल में ‘कॉकटेल डिनर’, दो-तीन “कल्चरल डांसर” और ‘वीडियो रिकॉर्डिंग’ का गुप्त इंतजाम भी शामिल होता है।
अगर निरीक्षक महोदय किसी कारण से रिपोर्ट में ‘कमी’ दिखाना चाहें, तो उन्हें रात्रिभोज के साथ एक फाइल मिलती है—जिसमें उनका पुराना ‘डांसिंग मूड’ वीडियो होता है। फिर क्या? निरीक्षण की फाइल में सब कुछ ‘प्रशंसनीय’, ‘मानक अनुसार’ और ‘नवोन्मेषकारी’ लिखा जाता है। मैं हैरान होता हूं कि भ्रष्टाचार के इस हाई वोल्टेज में किसी का फ्यूज तक नहीं उड़ता! सोचता हूँ, अगर मैं यह वीडियो-प्रबंधन सीख जाता, तो सारे ईमानदार अधिकारियों को भी अपने ‘स्मृति एल्बम’ में शामिल कर लेता। अफ़सोस, अब भी सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
ठेकेदारों से ‘करंट वाला’ रिश्ता – जिसमें हर वोल्ट नोट में बदल जाता है : सिविल विभाग की तरह, इलेक्ट्रिकल विभाग भी ठेकेदारों से चला करता है। पर यहाँ ठेका केवल वायर्स या पंखों का नहीं, रिश्वत का भी होता है। ठेकेदार जितना बड़ा एस्कॉर्ट लाता है, उतना बड़ा कॉन्ट्रैक्ट पा लेता है। जो अपने साथ कूलर नहीं, बल्कि कूल लड़कियाँ लाता है, उसका टेंडर बिना लाइट देखे ही पास हो जाता है। जब कोई नया भवन बनता है, उसमें पूरी वायरिंग, पैनल बोर्ड, एमसीबी आदि के लिए पहले से “सेट प्लान” होता है—कीमत 5 लाख, बिल 50 लाख। क्योंकि साहब का मोटिव यही होता है—”माल पुराना भले हो, कमाई नई होनी चाहिए।”
टेंडर डॉक्युमेंट्स से लेकर बिल पास करने तक हर स्तर पर ‘बिजली की तरह तेज़’ निर्णय होते हैं—क्योंकि हर दिन की देरी, “रिटर्न” में कटौती है। और हर सप्लायर जानता है कि ‘बिल पास’ तभी होता है जब साहब का जेब पास हो। मैं सोचता हूँ, यदि मेरे पास भी ऐसा कोई ‘डिस्ट्रीब्यूशन बोर्ड’ होता, जो सीधे कैश फ्लो भेजता, तो मैं भी पंखे के नीचे बैठकर करोड़ों का आर्डर पास कर देता। पर अफ़सोस, फिलहाल मैं बस गर्मी से झुलसता हूं और सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
जनरेटर का झूठा धुआँ और सच्ची मलाई – ‘पावर कट’ का पावर गेम
सरकारी भवनों में बिजली तो जाती है, लेकिन कमाई का करंट तब आता है जब जनरेटर स्टार्ट होता है। जनरेटर यानि वो मशीन, जो जितना धुआँ छोड़ती है, उससे ज़्यादा ‘कैश फ्लो’ छोड़ती है। कितनी बार देखा गया कि बिजली नहीं गई, फिर भी जनरेटर चला दिया गया—क्यों? क्योंकि डीज़ल का बिल बनेगा। और बिल भी ऐसा कि लगे पूरे गांव को बिजली दे दी गई हो।
कंपनी से डीज़ल आता है 60 लीटर, बिल बनता है 200 लीटर का। बाक़ी का डीज़ल कहाँ गया? “डिपार्टमेंटल ट्रांसफर” यानी विभागाध्यक्ष की गाड़ी, उनके साले की मोटरसाइकिल और चहेते बाबू की स्कूटी तक सबका पेट भरा जाता है। इतना ही नहीं, जब जनरेटर पुराना हो जाता है, तो उसे कबाड़ बताकर बेच दिया जाता है—और नया जनरेटर ‘उसी कंपनी’ से आता है जो पहले से तय होती है। कमीशन बंधा होता है, सामान चाहे जितना घटिया हो। अगर मैं होता विभाग का हेड, तो हर जनरेटर में ‘इनविज़िबल डीज़ल मीटर’ लगा देता—जिससे हर महीने लाखों का ‘देखा-अनदेखा’ लाभ मेरे खाते में आ जाता। सच पूछिए तो जनरेटर चालू हो या न हो, उसकी आमदनी तो हमेशा चालू रहती है। सोचता हूं—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
यू.पी.एस. और इन्वर्टर – अनइंटरप्टेड पैसा सिस्टम : इन्वर्टर और यूपीएस (UPS – Uninterrupted Power Supply) सिर्फ बिजली की सप्लाई नहीं, ‘बिना बाधा’ पैसा कमाने का साधन है। हर कार्यालय में दो-तीन इन्वर्टर रखे जाते हैं, लेकिन बैटरी की आयु खत्म होने से पहले ही बदल दी जाती है। कारण? “बैटरी कमज़ोर हो गई है सर, कम्प्लेंट आई थी।”
अब नई बैटरी आएगी, पुरानी बैटरी जाएगी कहाँ? किसी बाबू के घर, या फिर विभाग प्रमुख की पत्नी के NGO के कार्यालय में ‘दान’ के नाम पर। यही नहीं, जब इन्वर्टर खराब हो जाता है, तो बाहर मरम्मत न करवाकर पूरा यूनिट ही बदलवा दिया जाता है—क्योंकि बिल बड़ा बनेगा और कंपनी भी बड़ी ‘ईमानदारी’ से हिस्सा देगी। इस ‘पावर बैकअप घोटाले’ में कोई कोर्ट केस नहीं होता, कोई RTI नहीं डालता, क्योंकि सबको पता है कि यह “इलेक्ट्रिकल स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर” है। मैं सोचता हूँ, यदि मुझे भी मौका मिलता तो मैं हर UPS को ‘Unethical Profit System’ बना देता। अफ़सोस, अब भी टॉर्च लेकर बैठा हूँ और मन ही मन बुदबुदाता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
महिला कर्मचारियों की चयन प्रक्रिया – सौंदर्य से संविदा तक
विभाग में अगर कोई अस्थायी महिला कर्मचारी नियुक्त हो रही है, तो उसकी योग्यता सिर्फ डिग्री नहीं, ‘डिवाइन फेस वैल्यू’ होती है। साक्षात्कार में प्रश्न नहीं पूछे जाते, बस पूछा जाता है—“कहाँ तक पढ़ी हैं?” और देखा जाता है—“कहाँ तक प्रभावशाली हैं?” यदि हँसी प्यारी हो, चाल नज़ाकत से भरी हो और चेहरे पर ‘कॉर्पोरेट स्माइल’ हो, तो नौकरी पक्की।
फिर वह महिला कर्मचारी डेस्क पर काम कम करती है, विभागाध्यक्ष के केबिन में चाय ज़्यादा बनाती है। सप्ताह में एक दिन तो ‘दोपहर भोजन’ भी साहब के साथ “स्पेशल ड्यूटी” में गुजरता है। बाकी स्टाफ को पता होता है कि “मैडम” का प्रमोशन जल्दी होगा, लेकिन वे कुछ नहीं कहते—क्योंकि उन्हें भी समय आने पर इसी ‘मॉड्यूल’ से किसी को लाना होता है। काश, मुझे भी अवसर मिलता, तो मैं भी ‘डेस्क असिस्टेंट’ को ‘डाइनिंग पार्टनर’ बना देता और फाइलों के नीचे भावनाओं की परत बिछा देता। मगर मैं तो अभी भी फाइलों में कागज़ ढूंढ़ रहा हूँ, जबकि वहां फोटो लगे होते हैं। सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
संविदा कर्मियों से ‘व्यक्तिगत सेवा’ – शासन की आड़ में दासता : संविदा कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं विभाग के कामकाज के लिए, लेकिन उनके कंधों पर विभाग प्रमुख का बैग और उनके हाथ में साहब के घर का राशन होता है। कई बार संविदा कर्मी बिजली ठीक करने ऑफिस आता है, लेकिन साहब कहते हैं—“पहले घर चल, मेरा पंखा ठीक कर।”
कभी कोई नया लैम्प आता है, तो वह पहले ‘घर में फिट’ होता है, फिर ऑफिस में लगवाने का बिल बनता है। संविदा कर्मचारी को छुट्टी चाहिए, तो पहले साहब की बीवी की पूजा में सहायता करनी होगी। कोई बोले तो कहा जाता है—“हमने उसे मानवीय दृष्टिकोण से सहयोग दिया है।” यानी नौकरी देने का बदला, नौकर बना कर वसूला जाता है। अगर मैं विभागाध्यक्ष होता, तो मैं भी इस ‘इंसानियत के नाम पर शोषण’ को पॉलिसी बना देता और हर संविदा कर्मी को ‘डबल यूज़ स्टाफ’ में तब्दील कर देता। लेकिन अफ़सोस, मैं तो अभी तक यह तय नहीं कर पाया कि रविवार को छुट्टी है या ‘साहब की सेवा’। सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
उपहार संस्कृति और बड़े अधिकारियों की ‘इलेक्ट्रिक हैंडलिंग’ : जो लोग समझते हैं कि ईमानदारी से उच्च अधिकारी खुश हो जाते हैं, वे सरकारी तंत्र को कम आंकते हैं। असली ‘हैंडलिंग’ तो तब होती है जब त्योहार आते हैं और विभाग प्रमुख खुद ‘उपहार रथ’ बनकर एक-एक अधिकारी के घर जाते हैं। बिस्कुट के डिब्बे में रखी स्मार्टवॉच, फलों की टोकरी में छुपाया गया मोबाइल और मिठाई के डिब्बे के नीचे रखे 10,000 के नोट—यह सब केवल ‘प्रशंसा पत्र’ के बदले की भूमिका होती है।
और जो सबसे मुश्किल अधिकारी होता है, उसके लिए स्पेशल अरेंजमेंट—“सुविधा स्थल” जहाँ VIP आतिथ्य मिलता है। साथ में मनोरंजन का प्रोग्राम और उसके मोबाइल में खुद का वीडियो रिकॉर्ड कर लिया जाता है—जिसे बाद में “गोपनीय मित्रता” के नाम पर याद दिलाया जाता है। मैं सोचता हूँ—यदि मुझे भी ऐसे ‘गुडविल प्रबंधन’ की कला आती, तो मैं भी हर जांच को ‘स्वागत समारोह’ में बदल देता। अफ़सोस, मैं अभी भी पेन से नोट्स बना रहा हूँ, जबकि बाकी लोग तो ‘वीडियो नोट’ बना रहे हैं। सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
फायर अलार्म : आग लगे तब भी मुनाफा जले नहीं : सरकारी इमारतों में ‘फायर अलार्म सिस्टम’ लगाना ज़रूरी होता है, लेकिन असल में उससे ज़्यादा ज़रूरी होता है उस पर लगने वाला खर्च! हर साल फायर अलार्म की सर्विसिंग के नाम पर लाखों का बिल पास होता है, लेकिन अक्सर अलार्म तब भी नहीं बजता जब वॉशरूम में सिगरेट से धुआं उठता है। कारण? अलार्म तो ‘कागजों में’ बदले गए थे, असल में वही पुराने, जंग लगे सिस्टम पड़े रहते हैं।
जब कभी आकस्मिक निरीक्षण होता है, तब फौरन संविदा कर्मचारी भेजा जाता है—“अलार्म सिस्टम ऑन करो, टेस्टिंग बताओ।” अधिकारी के सामने बस एक बटन दबा दिया जाता है, आवाज़ आती है और सब संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन कोई ये नहीं देखता कि उस अलार्म की वायरिंग तक बिना बदले ही नया बिल बन चुका है। इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि कई बार बिना ज़रूरत के फायर कंट्रोल सिस्टम बदलवा दिया जाता है—क्योंकि नई कंपनी से ‘पुराना रिश्ता’ होता है। मुझे लगता है अगर मैं विभाग का प्रमुख होता, तो हर अलार्म की झूठी घंटी में भी असली आमदनी खोज लेता। अफ़सोस, मैं तो अब भी अपने कमरे में रखे पुराने सायरन को देखकर यही सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
स्मार्ट क्लॉक और घड़ियों की स्मार्ट लूट : किसी भी सरकारी बिल्डिंग में लगी डिजिटल वॉल क्लॉक्स (Digital Wall Clocks) दिखने में भले ही समय बताती हैं, पर असल में यह विभागीय समय नहीं, ‘सांठगांठ का समय’ बताती हैं। स्मार्ट घड़ियों का टेंडर पास करना तो बस शुरुआत है, असली खेल तब शुरू होता है जब हर घड़ी की कीमत 3000 के बदले 13000 दिखाई जाती है।
पूरे भवन में लगे 50 घड़ियों की रिपोर्ट बनाई जाती है, “घड़ी पुरानी हो चुकी है, समय सही नहीं बता रही।” अब नए घड़ी लगाई जाएगी और पुरानी घड़ी साहब के फार्महाउस में सजाई जाएगी। क्लॉक कंपनी को कहा जाता है—“हर घड़ी पर एक ‘वाच’ रखो और हर वाच का ‘वॉचमैन’ मैं हूँ।” कुछ घड़ियाँ तो ऑटोमैटिक टाइम एडजस्टमेंट वाली होती हैं, लेकिन विभाग प्रमुख इन्हें ‘ऑटोमैटिक कमिशन जनरेटर’ के रूप में देखते हैं। काश, मेरे हिस्से में भी ऐसी घड़ियाँ होतीं जो सिर्फ समय नहीं, सम्भावनाएं भी दिखातीं। मैं भी घड़ियों के टिक-टिक में अपने बैंक अकाउंट की टिक-टिक सुनता। अफ़सोस, अभी भी मैं अपनी सस्ती दीवार घड़ी देखकर हर घंटे यही दोहराता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
लाइट्स और लाइटिंग – अंधेरे में उजाले की कमाई : सरकारी कार्यालयों की लाइटिंग ऐसी होनी चाहिए कि रोशनी फैले—पर यहाँ तो रोशनी की आड़ में अंधकार फैला होता है। हर साल ‘एनर्जी एफिशिएंसी’ के नाम पर नई ट्यूबलाइट्स और एलईडी बल्ब बदले जाते हैं। विभागीय सूची में लिखा होता है—“पुरानी लाइट्स में फ्लीकर आ रहा है।” पर हकीकत में तो वे लाइट्स साहब के लान में नई चमक के साथ जल रही होती हैं।
नया टेंडर निकाला जाता है, वही पुरानी कंपनी को इशारा मिलता है और लाइटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर ‘अपग्रेड’ होता है—पर केवल बिल के कागजों में। कई बार लाइट्स सही होती हैं, बस स्विच बदल दिया जाता है और बिल में दर्ज होता है : “रेनोवेशन ऑफ लाइटिंग कनेक्टिविटी।” अगर कभी किसी ने सवाल कर भी दिया, तो जवाब होता है—“सर, इन्वायरमेंट ऑडिट के लिए लाइट्स बदलनी पड़ीं।” जब जवाब देने की कला इतनी प्रभावशाली हो, तो सवाल करने वाला खुद अपनी रोशनी खो देता है। सोचता हूँ—काश मैं भी हर लाइट को कमाई का बल्ब बना पाता। तब शायद मेरी भी ज़िंदगी में ट्यूबलाइट की तरह अचानक उजाला आता। लेकिन अब भी मैं टेबल लैम्प जलाकर फाइलें पढ़ता हूँ और धीरे से बुदबुदाता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
इलेक्ट्रिक बिल और वॉल्टेज में हेराफेरी – सिस्टम को शॉर्ट सर्किट बनाना : किसी सरकारी इमारत का बिजली बिल करोड़ों में आता है, लेकिन उसमें जो बिजली होती है, वह विभाग की कम और अधिकारियों की ज़्यादा होती है। साहब के सरकारी आवास, उनके बेटे के कोचिंग सेंटर और साले के गेस्टहाउस तक—सब जगह ऑफिस के मीटर से बिजली पहुँचाई जाती है।
कई बार देखा गया है कि मीटर से सीधे ‘सप्लाई’ उठाकर निजी उपयोग में ली जाती है और बिल फिर भी ‘सरकारी खाते’ से कटता है। यही नहीं, अगर किसी महीने बिल ज्यादा आ जाए तो पुरानी पेंडिंग यूनिट्स को ‘एडजस्ट’ कर दिया जाता है। और जो बिजली चोरी पकड़ी जाए, उसका जिम्मेदार बना दिया जाता है किसी संविदा कर्मी को। काश, मुझे भी मीटर की रीडिंग के साथ ‘कमिशन की रीडिंग’ मिलती, तो मैं भी हर बिल को ‘बिल्डिंग ब्लॉक’ की तरह चढ़ाता चला जाता। लेकिन अब तो मेरी जेब में बैटरी भी डाउन है और मैं खुद भी पावर सेविंग मोड में हूँ। सोचता हूँ—काश मैं इलेक्ट्रिकल विभाग का प्रमुख होता!
निष्कर्ष – बिजली से ज्यादा करंट रिश्वत में है : इस पूरे व्यंग्य यात्रा के बाद मैं केवल एक निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ—बिजली के तारों में जितना करंट नहीं, उससे ज़्यादा करंट विभागीय योजनाओं में है। यहाँ ट्रांसफॉर्मर का फ्यूज उड़ने से पहले ‘नीति की नैतिकता’ का फ्यूज उड़ चुका होता है। जहाँ पंखा, बल्ब, इन्वर्टर, जनरेटर, मीटर, बैटरी और स्मार्ट घड़ी—हर चीज़ की कीमत दोगुनी इसलिए होती है ताकि आधी जेब में जाए। और जो लोग इसे रोकने आते हैं, उन्हें ही ‘खास स्वागत’ देकर हिस्सा दे दिया जाता है। यह विभाग ‘इलेक्ट्रिकल’ नहीं, ‘इनफ्लुएंशियल’ हो चुका है—जहाँ रोशनी के नाम पर अंधेरा फैलाया जाता है और अंधेरे में ‘खुला खेल’ चलता है। काश मैं भी इस विभाग का प्रमुख होता… तो मैं भी रोज दो-दो बल्ब बदलकर दो बंगलों का मालिक बन जाता।
डॉ. शैलेश शुक्ला I Dr. Shailesh Shukla
गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार’ से सम्मानित वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं
वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह
