संविधान किसी भी हाल में जारी करना, देश को विखण्डन और द्वन्द्ध की राह पर धकेल रहा है : श्वेता दीप्ति
श्वेता दीप्ति, काठमांडू,११ अगस्त |
क्या नियति है इस देश की, मौत का तमाशा देखते हैं किन्तु उफ तक नहीं करते । देश को सुलगा कर उसमें हाथ सेकने की आदत हो गई है । खसवादी संस्कृति पूरी तरह हावी हमेशा से रही है,, यह एक कड़वी सच्चाई है, किन्तु इन्हें अब यह समझना होगा कि समय परिवर्तनशील होता है । कल जो था वो आज नहीं है और आज जो है वो कल नहीं रहेगा इसलिए अपनी संकुचित मानसिकता से ऊपर उठें । कल तक जो अपने अधिकारों से परिचित नहीं थे वो आज खुद को जान चुके हैं । उन्हें अधिक समय तक अधिकार विहीन और शोषित कर के नहीं रखा जा सकता । दमन के बल पर उनकी आवाज को दबाया जा सकता है, किन्तु हमेशा के लिए उनकी जुबान बन्द नहीं की जा सकती । संविधान बनाने के नाम पर हर रोज एक प्रयोग हो रहा है और उसमें मर रही है आम जनता । कभी सुझाव संकलन के नाम पर तो कभी सीमांकन के नाम पर जो परोस रहे हैं सत्ताधारी, उसे देखकर तो यही लग रहा है कि बिना किसी गम्भीरता के ये सिर्फ प्रयोगशाला में प्रयोग पर प्रयोग किए जा रहे हैं, ये शायद भूल रहे हैं कि वैज्ञानिकताविहीन प्रयोग विस्फोट ही लाते हैं जिसमें न तो प्रयोगशाला बचता है और न प्रयोगकत्र्ता । हर बार दबे कुचले को और भी दबाने और कुचलने की पूरी कोशिश में लगे हुए हैं । सुझाव संकलन के समय हिंसा हुई, प्रहरियों का पूरा दमन चक्र चला, लोग घायल हुए, महिलाओं और बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया, किन्तु स्वतःस्फूर्त रूप में विरोध जारी रहा, क्या यह काफी नहीं था सत्तापक्ष को मधेशी, थारु, जनजाति आदि की मनोदशा को समझने के लिए ? क्या उन्हें यह अहसास नहीं हो जाना चाहिए था कि इसके विपरीत जाकर वो देश को ही आग में झोंकने का काम कर रहे हैं ? या फिर जनता के रक्त का कोई महत्व नहीं रह गया है ? हर बार आन्दोलन और जनयुद्ध के नाम पर निरीह जनता सूली पर चढ़ रही है और इनके चेहरे पर शिकन तक नहीं है ।
आधी रात के अँधेरे में फैसला लिया जाता है और उसी अन्धकार में देश के भविष्य को दाँव पर लगा दिया जाता है । अखण्ड मध्यपश्चिम की मांग करते हुए सोमवार के प्रदर्शन में एक बार फिर प्रहरी का दमन दिखा तीन लोगों ने शहादत प्राप्त की और दर्जनों घायल है, क्या यही लोकतंत्र है ? चंद लोगों के स्वार्थ सिद्धि हेतु एक पूरे समुदाय और प्रदेश को द्वन्द्ध की राह में धकेलना कहाँ तक उचित है ? क्या हर बात आन्दोलन के पश्चात् ही सत्ता पक्ष के कानों तक पहुँचती है ? सोमबार के उग्र विरोध को देखने के बाद सीमांकन पर पुनः विचार करने की बात हो रही है, इससे तो यही लगता है कि हमारे प्रतिनिधियों में दूरदृष्टि, दूरदर्शिता और जनता की सोच एवं भावनाओं को समझने बुद्धि की बहुत कमी है, या फिर है ही नहीं । संवाद समिति और सुझाव संकलन बस एक तमाशा मात्र है यही दिख रहा है । सुझाव लिए जाते हैं, ज्ञापनपत्र भी स्वीकार किए जाते हैं किन्तु होता वही है जो ये करना चाहते हैं । हर बार अपने अनुकूल प्रावधानों को लाया जाता है बस इस अंदाज में कि चांस लिया जाय चल गया तो चल गया । किन्तु जब जनता का आक्रोश सामने आता है तो पुनर्विचार की बात की जाती है । सुझावों को अगर प्राथमिकता दी जाती तो मध्यपश्चिम जिलों की हालत ऐसी नहीं होती । संविधान किसी भी हाल में जारी करना है यह सोच देश को विखण्डन और द्वन्द्ध की राह पर धकेल रहा है । देश का हर हिस्सा असंतुष्ट है अगर इसे नजरअंदाज किया गया तो स्थिति नियंत्रण से बाहर जा सकती है और इससे हुए परिणाम की सहज ही कल्पना की जा सकती है ।