Fri. Mar 29th, 2024

लेकिन अन्य तीन दलों के भीतर शीर्ष नेता के द्वारा की गई सहमति विरुद्ध बोलनेवाले व्यक्ति अनगिनत हैं । इसीलिए अन्य तीन पार्टी के आन्तरिक विवाद सड़क पर आ गए हैं । पार्टी नेता तथा कार्यकर्ता के नाम में एमाले द्वारा जो ११ सूत्रीय आचारसंहिता जारी हुई है, यह नेतृत्व की निरंकुशता है या अराजक कार्यकर्ता को नियन्त्रण में रखने का मापदण्ड ? विशेषतः नेतृत्व की योजना और इच्छाओं के विरुद्ध क्रियाकलाप करनेवाले और बोलनेवाले पार्टी के भीतर इस विषय को लेकर बहस हो सकती है । विशेषतः नेपाली कांग्रेस और मधेशी जनअधिकार फोरम (लोकतान्त्रिक) के कार्यकर्ता के बीच बहस होना आश्चर्य नहीं है
लिलानाथ गौतम:राज्य पुनर्संरचना सम्बन्धी समस्या को कैसे हल किया जाए, इस विषय को लेकर राजनीतिक वृत्त में बहस जारी है और सड़क में आन्दोलन । सीमांकन सम्बन्धी असन्तुष्टि को लेकर जारी आन्दोलन में बहुत सर्वसाधारण और सरकारी कर्मचारियों ने अपनी जान गवाँ दी है । सुरक्षा निकाय के उच्चपदस्थ व्यक्ति (एसएसपी लक्ष्मण न्यौपाने, नेपाल पुलिस) सहित लगभग एक दर्जन की मृत्यु होने के बाद भी इस विषय को सही तरीके से सम्बोधन नहीं किया जा रहा है ।



सीमांकन सम्बन्धी विषय को लेकर हरेक राजनीतिक दल विभाजित हैं । एक ही पार्टी के भीतर रहे नेता भी एक–आपस में विवाद कर रहे हैं । विशेषतः पार्टी नेतृत्व के विरुद्ध कुछ नेता अपनी भड़ास निकाल रहे हैं ।
विशेषतः १६ सूत्रीय सहमति के हस्ताक्षरकर्ता नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, एमाओवादी और मधेशी जनअधिकार फोरम (लोकतान्त्रिक) के भीतर सीमांकन सम्बन्धी विषय को लेकर आन्तरिक विवाद दिखाई दे रहा है । इन चार दलों में से नेकपा एमाले के अलावा सभी पार्टी में नेतृत्व विरुद्ध संघर्ष हो रहा है । लेकिन नेकपा एमाले के नेता तथा सभासद् पार्टी विरुद्ध खुल कर बाहर नहीं आ पा रहे हैं । पार्टी नेतृत्व विरुद्ध कुछ नेता बाहर आने ही लगे थे, इसी को मध्यनजर करते हुए एमाले ने ११ सुत्रीय आचारसंहिता का सर्कुलर जारी कर दिया है । उस सर्कुलर में कहा गया है कि पार्टी से आवद्ध कोई भी नेता तथा कार्यकर्ता धर्म, जाति और भाषा के सम्बन्ध में अपना विचार नहीं रख सकते हैं । अर्थात् इस सम्बन्ध में लिखने और बोलने के लिए प्रतिबन्ध किया गया हैं । अगर किसी को धर्म, जाति और भाषा के सम्बन्ध में बोलना और लिखना पड़े तो पार्टी से अग्रिम अनुमति लेना होता है ।
लेकिन अन्य तीन दलों के भीतर शीर्ष नेता के द्वारा की गई सहमति विरुद्ध बोलनेवाले व्यक्ति अनगिनत हैं । इसीलिए अन्य तीन पार्टी के आन्तरिक विवाद सड़क पर आ गए हैं । पार्टी नेता तथा कार्यकर्ता के नाम में एमाले द्वारा जो ११ सूत्रीय आचारसंहिता जारी हुई है, यह नेतृत्व की

आन्दोलित जनता को सम्बोधन करने के लिए अब तक सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया हैं और न ही उन्हें वार्ता के लिए बुलाया जा रहा है । गैरों की क्या सरकार तो अपनों की भी नहीं सुन रही है, आखिर यह कौन सी रणनीति या राजनीति है ? क्या चन्द चेहरों में ही पार्टियाँ सिमट गई हैं ? एक नेता जनता से आगे कैसे निकल सकता है जबकि वो जनता की वजह से ही सत्ता में आता है ? सुर्खेत, कर्णाली, थरुहट में हो रहे विरोध को सम्बोधित करने के लिए बुलाई गई बैठक देउवा जी की हठवादिता के कारण बीच में ही स्थगित हो गई । संवेदनशील माहौल में भी इनके गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य जारी हो जाते हैं । इससे तो यही लगता है कि ये देश के नेता नहीं हैं बल्कि प्रदेश विशेष के हैं । जिन्हें सिर्फ एक क्षेत्र की चिन्ता है ऐसे में इन्हें राष्ट्रीय नेता कहा जाय या नहीं सवाल यह भी उठता है
निरंकुशता है या अराजक कार्यकर्ता को नियन्त्रण में रखने का मापदण्ड ? विशेषतः नेतृत्व की योजना और इच्छाओं के विरुद्ध क्रियाकलाप करनेवाले और बोलनेवाले पार्टी के भीतर इस विषय को लेकर बहस हो सकती है । विशेषतः नेपाली कांग्रेस और मधेशी जनअधिकार फोरम (लोकतान्त्रिक) के कार्यकर्ता के बीच बहस होना आश्चर्य नहीं है । क्योंकि पार्टी नेतृत्व विरुद्ध बोलनेवाले नेता इन्हीं दो दलों में ज्यादा दिखाई दे रही है । जब चार राजनीतिक दलों ने अपनी तरफ से सीमांकन सहित ६ प्रदेश (बाद में सात प्रदेश) का नक्शा पेश किया, इस विषय को लेकर इन्हीं दो पार्टी के भीतर हंगामा शुरु हुआ । नेपाली कांग्रेस के नेता तथा सभासद अमरेशकुमार सिंह और उन की अभिव्यक्ति को लेकर सिर्फ पार्टी के अन्दर ही नहीं, बाहर भी चर्चा÷परिचर्चा हो रही है । सिंह की अभिव्यक्ति को लेकर कांग्रेस ने सिर्फ आपत्ति ही नहीं जताई, सिंह के ऊपर कारवाही के लिए पार्टी विधान के अनुसार प्रक्रिया भी आगे बढ़ रही है । इसी तरह कांग्रेस नेता विमलेन्द्र निधि और प्रदीप गिरी लगायत कुछ नेता भी नेतृत्व के प्रति असहमत दिखाई देते हैं । १६ सूत्रीय समझौता और सीमांकन सम्बन्धी विषय को लेकर कांग्रेस नेता प्रदीप गिरी सदन में अपना विचार रखना चाहते थे, लेकिन उनको रोक दिया गया । दूसरी तरफ पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा पूर्वप्रधानमन्त्री शेरबहादुर देउवा को लेकर भी विवाद हो रहा है । उनकी अड़ान और हठधर्मिता के कारण ही कैलाली में थारु और पहाड़ी समुदाय के बीच मुठभेड़ हुई है । इस विषय को लेकर भी कांग्रेस के भीतर विवाद है । एमाले की तरह कांग्रेस ने अपने नेता तथा कार्यकर्ता को नियन्त्रण में रखने के लिए लिखित आचारसंहिता जारी नहीं किया गया है । लेकिन कांग्रेस के तरफ से हुए प्रायः सभी निर्णय पार्टी के आधिकारिक निर्णय भी नहीं है, जो पार्टी के अन्दर बहस करके पारित किया गया हो । पार्टी के भीतर कोई भी विषय में बहस नहीं होना, और शीर्ष नेताओं का निर्णय ही पार्टी का निर्णय बनना हरेक राजनीतिक दलों में आमबात हो गई है । इस को कोई व्यक्ति ‘पार्टी नेतृत्व की निरंकुशता’ कहते हैं तो असामान्य नहीं माना जाएगा ।
इसी तरह सींमाकन सम्बन्धी विषय को लेकर फोरम लोकतान्त्रिक के भीतर भी पार्टी विभाजित करने की बहस हुई है । नेतृत्व के विरुद्ध आवाज उठानेवाले नेताओं का मानना है कि पार्टी अध्यक्ष विजयकुमार गच्छदार ने थारु और मधेशियों के हित के विपरीत समझौता किया । जितेन्द्र देव, रामजनम चौधरी, रामेश्वर राय यादव लगायत पार्टी के बहुसंख्यक सदस्यों ने गच्छदार के विरुद्ध बहस चलाया और पार्टी अध्यक्ष को कारवाही की धमकी दे दी । पार्टी के अन्दर किसी भी प्रकार के छलफल बिना जब नेतृत्व वर्ग, महत्वपूर्ण विषय में दूसरे के साथ समझौता करते हैं, तब इस तरह का विवाद सामने आता है । यही हुआ है, संविधान निर्माण तथा सीमांकन के सम्बन्ध में भी । संविधानसभा के तीसरे बड़े दल एकीकृत नेकपा माओवादी के भीतर भी यह समस्या दिखाई दे रही है । पार्टी के प्रभावशाली नेता डा. बाबुराम भट्टराई, प्रचण्ड द्वारा किए गए निर्णय के प्रति असन्तुष्ट दिखाई देते हैं । लेकिन वह खुलकर बाहर नहीं आते । लेकिन शीर्ष नेता द्वारा किए गए सीमांकन सम्बन्धी विषय को लेकर मधेश केन्द्रित माओवादी नेता तथा सभासद सड़क में आए हैं । माओवादी के रामचन्द्र झा, रामकुमार शर्मा, प्रभु साह, रामरिझन यादव, विश्वनाथ साह लगायत ने तराई में हो रहे आन्दोलन को समर्थन किया है । लेकिन अब तक इस में माओवादी नेतृत्व ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जतायी है ।
कहते है, प्रजातन्त्र में अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता सभी के लिए है । राजनीतिक दल तथा उनके नेता कुछ ज्यादा ही इसको प्रयोग करते हैं और विवादित भी होते हैं । लेकिन प्रश्न भी है– क्या अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता को उपयोग करते वक्त कोई भी सीमारेखा को मानना नहीं होगा ? यह तो हो ही नहीं सकता । अर्थात् अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता की भी एक सीमा होती है । उक्त सीमा को कुचल कर अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता का गलत प्रयोग करने का अधिकार किसी को भी नहीं है । सकारात्मक रूप में देखा जाए तो एमाले द्वारा जारी किया गया ११ सूत्रीय आचारसंहिता का उद्देश्य अपने नेता तथा कार्यकर्ता को अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के गलत प्रयोग से रोकना भी हो सकता है । लेकिन वर्तमान अवस्था में जिस तरह का राजनीतिक आन्दोलन हो रहा है, उस में यह ११ सूत्रीय सर्कुलर जारी करना कितना जरुरी था ? और राजनीतिक पार्टी इसतरह के विज्ञप्ति जारी करने से क्यों बाध्य हो रहे हैं ? इसका दूरगामी असर क्या हो सकता है ? अनगिनत प्रश्न सामने आता है ।
सभी को स्वीकार करना चाहिए कि देश में संघीयता के साथ–साथ पहचान के मुद्दा में भी बहस हो रही है । विभिन्न राजनीतिक दलों के भीतर नेतृत्व के विरुद्ध हो रहे विद्रोह और सृजित विवाद पहचान के मुद्दा से जुड़ा हुआ है । तराई के विभिन्न भू–भाग तथा पश्चिम नेपाल के पहाड़ी समुदाय के द्वारा  हो रहा आन्दोलन भी पहचान के मुद्दा से जुड़ा हुआ है । अर्थात् पहचान सम्बन्धी मुद्दा को लेकर ही नेपाल में संघीयता की आवश्यकता महसूस की गई है और इनके ऊपर बहस हो रही है । ऐसी अवस्था में स्वाभाविक है– अगर कोई एक समुदाय नया संविधान में अपनी पहचान और अधिकार की सुनिश्चितता महसूस नहीं करेगा तो वह समुदाय अवश्य ही विद्रोही बन सकता है । उक्त विद्रोह के नेतृत्वकर्ता और राज्य संवेदनशील नहीं हो जाते हैं तो वहाँ हिंसा और अराजकता मच सकती है । कैलाली (टिकापुर) घटना को भी इस तरह का उदाहरण मान सकते हंै । कैलाली में जारी आन्दोलन और वहाँ की जनता की मांग अनुचित नहीं थी, लेकिन आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता और राज्य सम्वेदनशील नहीं होने के कारण हिंसात्मक घटना घटित हो गई ।
स्पष्ट हैं कि उक्त आन्दोलन थारु पहचान के लिए है । लेकिन इस आन्दोलन की पृष्ठभूमि निर्माण करनेवाले व्यक्ति उपेन्द्र यादव, महन्थ ठाकुर, राजेन्द्र महतो और अमरेशकुमार सिंह थे । जो उस समुदाय से सम्बन्धित व्यक्ति भी नहीं है । अगर इन लोगों ने वहाँ जाकर जातीय साम्प्रदायिकता के पक्ष में अभिव्यक्ति नहीं दी होती तो उस दुर्घटना की सम्भावना कम ही रहती । इसीतरह उक्त क्षेत्र में पहुँच रखने वाले (जो राज्य ‘सरकारी पक्ष’ से सम्बन्धित थे) कांग्रेस के शेरबहादुर देउवा और एमाले के भीम रावल सम्वेदनशील होते थे तो भी यह घटना नहीं होती ।
अभी तक विकसित घटनाक्रम को देखने पर स्पष्ट होता है कि संघीयता, पहचान और अधिकार का विषय, किसी भी एक दल, नेता तथा व्यक्तियों की महत्वाकांक्षा और उनकी विवेक पर निर्धारित हो रहा है । इसी का परिणाम है– एक ही पार्टी के भीतर से अलग–अलग और विवादित बातों की बाढ़ आनी । परस्पर विरोधी विचार को जनता में ले जाकर इन्हीं नेताओं के द्वारा देश में गृहयुद्ध का प्रहसन होना । बहस शुरु होती है– समग्र देश को पुनर्संरचना करने के विषयों को लेकर । लेकिन दो जिला को लेकर यह लोग रक्तपातपूर्ण आन्दोलन करते हैं । विशेषतः हाल विवादित कैलाली–कञ्चनपुर से सरोकार रखनेवाले राजनीतिक दल और नेताओं को खयाल रखना चाहिए– इन दो जिला को इधर या उधर करने के कारण ही क्या संघीयता असफल हो जाती है ? विशेषतः नेपाली कांग्रेस और नेकपा एमाले को इस विषय को लेकर सम्वेदनशील होना चाहिए । कांग्रेस के शेरबहादुर देउवा, एमाले के भीम रावल और एमाओवादी के लेखराज भट्ट को अपनी मानसिकता परिवर्तन करनी चाहिए । सर्वस्वीकार्य थारु बाहूल्य उक्त क्षेत्र (कैलाली–कञ्चनपुर) में अगर थारु जाति अपने अधिकार के लिए आन्दोलन करते हैं तो यह कोई अपराध नहीं है । लेकिन जब तक यह बात देउवा, रावल और भट्ट को समझ में नहीं आती, तब तक समस्या समाधान भी नहीं हो सकेगा । इस समस्या का समाधान करने के लिए पार्टीगत निरंकुशता भी आवश्यक हो सकती है । कांग्रेस, एमाले और एमाओवादी को  पार्टीगत निर्णय करके देउवा, रावल और भट्ट को सचेत कराना चाहिए और उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को तोड़ना चाहिए ।
पार्टी के भीतर रहे प्रभावशाली नेता को स्वतन्त्र (अराजकता के लिए भी) छोड़ कर कार्यकर्ता को नियन्त्रण में रखने का प्रयास करना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है । उदाहरण के लिए कांग्रेस सभासद अमरेशकुमार सिंह सम्बन्धी प्रसंग को ले सकते हैं । उन्होंने कैलाली जाकर जो भाषण किया है, यह खेदजनक ही था । उनकी अभिव्यक्ति सार्वभौम देश के नागरिकों के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकती । राज्य विखण्डन करने का भाषण करना और एक जाति को दूसरे जाति पर आक्रमण के लिए निर्देशन देना निन्दनीय है । इसके चलते उनके ऊपर कारवाही करना कोई भी आश्चर्य नहीं है । लेकिन शेरबहादुर देउवा, जो ‘थारु समुदाय को मैं कुछ भी नहीं दूंगा’ कहकर उन्हें अधिकार से वञ्चित रख रहे है, यह कौन सी न्यायसंगत बात है ? देउवा के व्यक्तिगत हठ के कारण ही थारु समुदाय आक्रोसित हो गए और हिंसात्मक आन्दोलन में उतर आए हैं, इस अपराध के भागीदार देउवा हैं या नहीं ? अमरेश सिंह के ऊपर पार्टी अनुशानस की कारवाही चलानेवाले कांग्रेस, शेरबहादुर देउवा के व्यक्तिगत हठधर्मिता तोड़ने के लिए क्यों तैयार नहीं हो रहे है ? यही सवाल नेकपा एमाले के केपी ओली और भीम रावल के उपर भी लागू होती है । कार्यकर्ता को नियन्त्रित करने के लिए ११ सूत्रीय आचारसंहित बनानेवाले नेकपा एमाले, पार्टी अध्यक्ष केपी ओली और उपाध्यक्ष भीम रावल को क्यों नियंत्रण में नहीं रख पाता ? अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए कब तक वे लोग थारु समुदाय को आन्दोलित करते रहते है ? प्रजातन्त्र के नाम में पार्टी के भीतर जारी अराजकता और निरंकुशता की यह श्रृंखला, चरित्र और भूमिका जब तक जारी रहेगी, तब तक इस तरह के समस्या का समाधान नहीं ढूँढ पाएँगे ।
निधि की असन्तुष्टि
आन्दोलित जनता को सम्बोधन करने के लिए अब तक सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया हैं और न ही उन्हें वार्ता के लिए बुलाया जा रहा है । गैरों की क्या सरकार तो अपनों की भी नहीं सुन रही है, आखिर यह कौन सी रणनीति या राजनीति है ? क्या चन्द चेहरों में ही पार्टियाँ सिमट गई हैं ? एक नेता जनता से आगे कैसे निकल सकता है जबकि वो जनता की वजह से ही सत्ता में आता है ? सुर्खेत, कर्णाली, थरुहट में हो रहे विरोध को सम्बोधित करने के लिए बुलाई गई बैठक देउवा जी की हठवादिता के कारण बीच में ही स्थगित हो गई । संवेदनशील माहौल में भी इनके गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य जारी हो जाते हैं । इससे तो यही लगता है कि ये देश के नेता नहीं हैं बल्कि प्रदेश विशेष के हैं । जिन्हें सिर्फ एक क्षेत्र की चिन्ता है ऐसे में इन्हें राष्ट्रीय नेता कहा जाय या नहीं सवाल यह भी उठता है ।
ऐसे मौके पर ही एक बार फिर काँग्रेस नेता एवं भौतिक पूर्वाधार तथा यातायात मंत्री विमलेन्द्र निधि जी अपनी प्रधानमंत्री के नाम लिखी सात पृष्ठों की चिट्ठी के कारण चर्चा में आ गए हैं । माना जा रहा है कि इस चिट्ठी ने सत्ताधारियों में बैचेनी पैदा कर दी है । विमलेन्द्र जी का काँग्रेस पार्टी में एक महत्वपूर्ण कद रहा है । पार्टी में इनकी एक अलग पहचान है । इस स्थिति में अगर पार्टी इनकी बातों का नजरअंदाज करती है तो यह कोई अच्छा संकेत नहीं होगा देश के लिए । निधि जी ने समय समय पर अपना विरोध जताया है किन्तु उनके विरोध को सरकार अनदेखा करती आई है । इस स्थिति में वर्तमान की चिट्ठी को सरकार कितना महत्व देती है यह देखना है । देश अभी जिस तरह हर तरफ से असंतोष की आग में जल रहा है, ऐसे में इस चिट्ठी को जनता की आवाज के रूप में लिया जा सकता है । किन्तु आलम तो यह नजर आ रहा है कि सरकार को न तो जनता की फिक्र है और न ही बन्द से हो रहे आर्थिक हानि की । रोज के राजस्व घाटे पर भी सरकार का ध्यान नहीं जा रहा । अनिश्चितकालीन बन्द से देश और जनता जिस बदहाली से गुजर रही है उसे सम्बोधन करने के लिए फास्टट्रैक नहीं दिख रहा किन्तु संविधान फास्ट ट्रैक से लाने के लिए सत्ता पक्ष प्रतिबद्ध है । प्रहरी का दमन जारी है, गोलियाँ चल रही हैं, आम जनता कराह रही है किन्तु इनकी ओर से जिस सम्बोधन की आवश्यकता जनता महसूस करना चाह रही है वो गौण है । न तो प्रधानमंत्री की और न ही गृहमंत्री की ओर से कुछ होने के आसार नजर आ रहे हैं ।
निधि जी ने अपने पत्र में संविधान में निहित लगभग हर पक्ष पर ध्यानाकर्षण कराया है । सीमांकन के सवाल पर उन्होंने अपने पूर्व के विचारों को फिर से जाहिर किया है । उनका मानना है कि विकास क्षेत्र, अंचल, जिला, नगरपालिका, गाविस के विद्यमान सीमाओं को भूलकर सहमति हुए १६५ निर्वाचन क्षेत्र का सीमा निर्धारण करें और उस निर्धारण को करने के लिए २४० निर्वाचन क्षेत्र के सीमा के लिए जो मापदण्ड पहले से है उसी मापदण्ड का अवलम्बन करें । इसके बाद १६५ निर्वाचन क्षेत्र का निर्धारण होने के बाद प्रदेश संख्या निर्वाचन क्षेत्र संख्या में भाग कर के औसत संख्या निकालें अर्थात् एक प्रदेश में कितने निर्वाचन क्षेत्र होते हैं उसका निराकरण निकालें । और जो बाकी शेष संख्या हैं उसे एक दूसरे में अनुकूल रूप से व्यवस्थित करें और प्रदेशों का निर्माण करें । साथ ही जनता की भावनाओं का ख्याल रखें कि वो किधर रहना चाहते हैं उनकी इच्छा का सम्मान करें ।
निधि जी ने सत्ता के प्रति अपने विरोध को स्पष्ट रूप से जताया है । उन्होंने सत्ता को यह चेतावनी भी दी है कि प्रदेश के निर्माण के नाम पर केन्द्र का तानशाह बनना उचित नहीं होगा । नागरिकता सम्बन्धी मसले पर भी उन्होंने स्पष्ट कहा कि अंगीकृत नागरिकता का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि हमारी संस्कृति में शादी के बाद औरत का सबकुछ उसका पति का घर होता है ऐसे में उन्हें अंगीकृत कहना उनकी अस्मिता के ऊपर प्रहार है । उन्होंने गैर नेपाली पुरुष नागरिकों के लिए भी उदारता की अपेक्षा की है । नागरिकता के प्रावधान में नेपाली मूल पर भी अपना विरोध जताते हुए कहा है कि मूल शब्द को हटाया जाना चाहिए ।
समावेशी के लिए भी उनकी धारणा है कि समावेशी का विषय लोकतान्त्रिक गणतन्त्रात्मक संविधान में सुव्यवस्थित होना चाहिए । कर्णाली, दलित, महिला, जनजाति, मधेशी, मुस्लिम, अल्पसंख्यक इन सबको राज्य की हर संरचना में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए । न्यायपालिका और संवैधानिक अंग और निकायों में स्वतन्त्रता और स्वायत्तता होनी चाहिए ।
अर्थात् सभी संवेदनशील मुद्दों पर उन्होंने सम्बद्ध पक्ष का ध्यानाकर्षण कराया है परन्तु सवाल यह उठता है कि सत्ता पक्ष का इस ओर ध्यान कितना जाता है । निधि का यह पत्र सिर्फ प्रधानमन्त्री के नाम नहीं है बल्कि संविधान निर्माताओं सभी के नाम है । खैर जो भी हो आन्दोलनकर्ताओं के लिए भी यह पत्र उर्जा का काम अवश्य करेगा और इससे आन्दोलित मधेश को काफी सहयोग मिलेगा ।



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