मिक्रो मिनी खुशिया जिन्दगि कि
स्माँल इज द न्यू बिग। अंग्रेजी की यह कहावत इस दौर को पूरी तरह परिभाषित करती है। एक जमाना था जब बडा बंगला, बडी गाडी, भरा-पूरा परिवार, भारी-भरकम फर्नीचर और गैजेट्स संपन्नता की निशानी समझे जाते थे। आज स्थिति इसके उलट है। घर-परिवार, गैजेट्स, गाडियां, फिल्में, माँल्स-मल्टीप्लेक्सेज, डाइट और आउटफिट्स तक सब मिनी हो चुके हैं। एसएमएस और टी २० का दौर है। जीने का यह नया अंदाज कैसा है, जानते हैं इस कवर स्टोरी में।
इक बंगला फ्लैट बने न्यारा
क्या आपके सपनों में अब भी हरे-भरे पेडों और खूबसूरत लाँन से सजा हुआ कोई बडÞा सा बंगला आता है – क्या आप अब भी इक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा जिसमें सारा। वाला गाना गुनगुनाते हैं – तब आप पुराने जमाने के बाशिंदे हैं। यह जान लें कि अब न बंगले बचे-न ही कुनबे। अब तो वन बीएचके, टू या थ्री बीएचके के बाद स्टूडियो अपार्टमेंट्स का जमाना है।
रीअल इस्टेट र्सवे बताते हैं कि हाल के पांच-सात वषर्ाे में टू बीएचके फ्लैट्स की डिमांड सबसे ज्यादा बढी है। कारण है, महानगरों में बढÞती आबादी के बाद लगातार घटती जगह। ऐसे में छोटे और बहुमंजिला फ्लैट्स लोगों को आकषिर्त कर रहे हैं। आम लोगों की क्रय शक्ति बढÞी है। क्योंकि हाल के वषर्ाे में लोन की व्यवस्था आसान हो गई है। थोडÞा-बहुत कैश पास में हो और कुछ लोन मिल जाए तो रहने लायक एक घर तो मिल ही सकता है। यही कारण है कि आज युवा नौकरी की शुरुआत में ही घर के सपने देख ले रहे हैं। कुछ साल पहले तक ही लोग रिटायरमेंट के दौर में ऐसे सपने देख पाते थे। भले ही यह घर उनके बचपन के घर से बहुत छोटा है, मगर सुविधाजनक है। बैचलर्स और स्टूडेंट्स स्टूडियो अपार्टमेंट को प्राथमिकता दे रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में यह स्थिति है और मुर्ंबई में प्राँपर्टर्ीीा हाल यह है कि प्रमुख इलाकों में एक हजार स्क्वेयर फुट जगह के लिए एक करोड रुपये तक खर्च करने पड सकते हैं।
न थोडी सी जमीं-न थोडा आसमां। बस एक छोटा सा फ्लैट चाहिए पंद्रह-बीस साल की आसान किस्तों पर।
हम दो हमारे दो एक
चाचा-चाची, दादा-दादी, बुआ, चचेरे भाई-बहन और कम से कम पांच-दस सगे भाई-बहन। क्रिकेट खेलने के लिए बाहर से क्यों खिलाडÞी जुटाए जाएं, जब पूरी टीम घर में मौजूद हो। लेकिन अब कहां अफोर्ड किए जा सकते हैं ये लंबे-चौडे परिवार। भारत सरकार ने बरसों पहले नारा दिया था,हम दो-हमारे दो। व्यस्त युवाओं को चीन की बात भा गई, हम दो-हमारा एक। बात तो इतनी दूर तक चल निकली कि डबल इनकम नो किड तक आ पहुंची। २४घंटे वाली जीवनशैली में बच्चे सीन से गायब होते जा रहे हैं। दिल्ली की एक पी.आर. कंपनी में काम करने वाली प्रज्ञा की शादी के तीन-चार साल हो चुके हैं। बच्चा । – चौंक कर उल्टे हमसे सवाल करती है, पालेगा कौन – क्रेश में छोडें या मेड के भरोसे रखें – ना बाबा ना, हम अभी बच्चा अफोर्ड ही नहीं कर सकते। यह अफोर्ड शब्द कुछ ज्यादा ही चलन में नहीं आ गया है –
ट्वीट-ट्वीट की आजादी
आम आदमी को पूरा हक है अपनी बात कहने का१ सोशल नेटवकिर्ंग ने अपनी बात कहने का तरीका कितना आसान कर दिया है। सिर्फएक माउस के क्लिक पर यह सब संभव है। जो कुछ मन में है-बांट दीजिए। ब्लाँग से लेकर फेसबुक और टि्वटर तक की दुनिया हर आम-ओ-खास, अमीर-गरीब सबके लिए समान रूप से खुली हर्ुइ है। ज्ञ४० अक्षरों में अपनी बात को पूरी दुनिया के सामने रखने की बात क्या कुछ साल पहले तक सोची जा सकती थी१ टि्वटर ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नए अर्थ दिए। यहां ट्वीट ही नहीं रि-ट्वीट की भी सुविधा है। शायद इसलिए यहां अभिनेता फिल्म का प्रमोशन करते दिखते हैं तो राजनेता आरोप-प्रत्यारोप करते या सफाई देते दिखते हैं। अपनी बात कहने और तुरंत उसकी प्रतिक्रिया जानने का सशक्त माध्यम है यह। महज चार वषर्ाे में १०० मिलियन से भी ज्यादा एक्टिव यर्ूजर्स हैं टि्वटर के।
छोटे पर्दे का दम
दम तो है बाँस, तभी तो बाँलीवुड की बडÞी-बडÞी हस्तियां स्माँल स्क्रीन पर नमूदार होती रहती हैं। बिग बी अमिताभ बच्चन आम लोगों को करोडपति बनाते हैं, तो अक्षय कुमार शेफगीरी सिखाते हैं। कुछ ही साल पहले की बात है, जब डिनर के समय पूरा परिवार मिलकर दूर्रदर्शन की धीर-गंभीर खबरें देखा करता था। फिल्में सिर्फरविवार को आती थीं, बुधवार व शुक्रवार को चित्रहार में नए-पुराने फिल्मी गीत देखे जाते थे। आज स्थिति यह है कि न्यूज चैनल व एंटरनेट चैनल का र्फक खत्म होता जा रहा है। प्राइम टाइम में बाँलीवुड गाँसिप देखी जा सकती है। फिल्मों का प्रमोशन हो या टीवी शोज, सभी बडे स्र्टार्स छोटे पर्दे पर एकत्र होते हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा शाहरुख खान, सलमान खान, करन जौहर और प्रियंका चोपडा जैसे सभी बडेÞ स्र्टार्स बुद्धू बक्से की छोटी सी स्क्रीन में समा रहे हैं। इसका एक कारण है नाम छोटा सही, मगर दाम यहां काफी बडÞा मिलता है। साथ ही लाखों-करोडÞों दर्शकों तक पहुंचने का भी यह सशक्त माध्यम है।
माँल्स यानी शहर में हाट
गांवों में लगने वाले मेलों की याद है आपको – अपार भीडÞ टूट पडती थी उनमें। बाइस्कोप पर झांसी की रानी, आगरा का ताजमहल, शहीद भगत सिंह, मीना बाजार से लेकर शोले के गब्बर सिंह तक सबकी तसवीरें चलती दिखती थीं। खेल-खिलौने, चूडÞी-बिंदी, कपडÞे-लत्ते से लेकर राशन-पानी तक सब-कुछ यहां होता था। परिचितों-दोस्तों से मेलजोल और गर्लप|mेंड से मुलाकात की माकूल जगह हुआ करती थी यह। महज छह-सात साल पहले जन्मे माँल्स में जाकर क्या गांव के हाट-मेलों की याद नहीं आती ! रस्सी पर चलने वाली नटनी का संशोधित रूप आज बंजी जंपिंग में देख सकते हैं।
एक छत के नीचे यदि हर चीज उपलब्ध हो तो कोई कहीं और क्यों जाए – एयरकंडीशंन वातावरण में इत्मीनान से खरीदारी करें और मल्टीप्लेक्सेज में फिल्म देखें। छोटे दुकानदारों को भले ही इससे नुकसान हुआ हो, शार्ँपर्स के लिए तो माँल्स जन्नत ही हैं। इलाके में पावर कट है तो घूमते हुए पास के शाँपिंग माँल में जाकर समय बिता लें। शाँपिंग, गेम्स, लंच, फिल्म और डेटिंग। सब संभव है यहां !
नौ से बारह, बारह से तीन, तीन से छह, छह से नौ और फिर नौ से बारह। फिल्म देखने के लिए इतनी टेंशन अब कोई नहीं लेता। अपनी सुविधा से किसी भी समय जाइए, मल्टीप्लेक्सेज में कोई न कोई फिल्म आपको मिल ही जाएगी।
बस एक लखटकिया नैनो चाहिए
कल्पना कीजिए कि सुबह नौ बजे आँफिस पहुंचने की मारामारी हो, सडÞक पर कई किलोमीटर लंबा जाम हो। आप पसीने-पसीने होकर मायूसी से बार-बार घडÞी देख रहे हों, झींक रहे हों-खीझ रहे हों। ऐसे में कोई छोटी सी गाडी दायें-बायें से निकलकर आगे बढÞ जाए तो दिल में कैसी हूक उठती है – दिल्ली स्थित एक कंपनी के मार्केटिंग हेड अखिलेश कहते हैं, कई वर्षपर्ूव मैंने मारुति ८०० खरीदी थी। बाद में तरक्की हर्ुइ, क्लाइंट्स बढे तो लंबी गाडÞी खरीदी। सच कहूं तो दिल्ली में ट्रैफिक का जो हाल है, उसमें आँफिस जाने के लिए मुझे अकसर पुरानी गाडÞी ही निकालनी पडÞती है। हमें लगभग रोज क्लाइंट्स के सर्ंपर्क में रहना पडÞता है। नई और बडÞी गाडÞी का थोडÞा रौब तो पडÞता है, लेकिन दिल्ली में लंबी गाडÞी लेकर चलने का मतलब है मुसीबत मोल लेना।
टाटा जब अपनी नन्ही सी नैनो लेकर आए तो लोगों की भीडÞ जुट गई उसे देखने के लिए। हालत यह है कि दो लाख से ज्यादा लोगों ने इसके लिए आर्ँडर बुक कराए हैं। डिमांड ज्यादा है-सप्लाई कम। नैनो के बाद महिंद्रा ने निसान के साथ मिलकर और बजाज ने रेनो के साथ मिलकर छोटी कार लाने की घोषणा की है। कंपनियों के बीच जंग अब यह है कि कौन छोटी से छोटी गाडी में बडÞी गाडÞी की तमाम सुविधाएं दे सकता है।
स्लिम-स्लीक गैजेट्स की बहार
क्या आप उन लोगों में हैं जो विश्वास रखते हैं कि साइज से कोई र्फक नहीं पडÞता – अगर हां तो फिर सोच लीजिए। एक शोरूम के मैनेजर का कहना है, स्माँल, स्लिम गैजेट्स की डिमांड सबसे ज्यादा है। इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाइए कि आज ४० ग्राम वजन और साढे सात एम. एम. आकार वाले सेलफोन गिनीज बुक में नाम दर्ज करा रहे हैं। हैंडी डी.वी.डी. प्लेयर, आईपाँड, लैपटाँप और कैमरों की मांग ढती जा रही है। आईपाँड तो डिजिटल युग का आइकन बन गया है। यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि यह पोर्टेबल मीडिया प्लेयर पहली बार २००१ में लाँन्च हुआ था। सिर्फछह साल बाद ही १०० मिलियन से ज्यादा आईपाँड बिक चुके थे। डिजिटल विडियो कैमरे का साइज भी सिगरेट लाइटर जितना दुबला होता जा रहा है।
स्टाइलिश और खूबसूरत अभिनेत्री कैट्रीना कैफ खुद को टेक्नोसैवी मानती हैं। कहती हैं, मुझे स्लीक व स्टाइलिश गैजेट्स अच्छे लगते हैं। घरेलू कार्याें के लिए भी मुझे लेटेस्ट मार्ँर्डन टेक्नोलाँजी वाले हैंडी गैजेट्स ही पसंद है। बी। टेक। थर्डर् इयर स्टूडेंट अतीव वासुदेव कहते हैं, मैं नई टेक्नोलाँजी के बारे में जानने को बहुत उत्सुक रहता हूं। मेरे पास एपल का आईफोन है, लेकिन अब मुझे इसका नया आईफोन खरीदना है, जो ज्यादा स्मार्ट और स्लीक है।
स्माँल बजट फिल्में. ज्यादा फायदा
बडÞा सा बजट, खूबसूरत विदेशी लोकेशंस, फोटोग्राफी और ग्राफिक का कमाल। क्या फिल्म की सफलता महज इन सब बातों पर निर्भर करती है – अगर ऐसा होता तो वीर, ब्ल्यू, काइट्स और रावण जैसी बिग बजट वाली फिल्में हिट होतीं। इसके विपरीत दस करोड तक के सीमित बजट में बनने वाली ए वेडनसडे, एक चालीस की लोकल, भेजा प|mाई, खोसला का घोंसला, देव डी, वेलकम टु सूानपुर, दस कहानियां, आमिर, राँक आँन, लव, सेक्स और धोखा, तेरे बिन लादेन और पीपली लाइव जैसी तमाम फिल्में खूब चलीं और इन फिल्मों ने दर्शकों के दिलों में भरपूर जगह बनाई। नए डायरेक्टर फारुख कबीर कहते हैं, छोटे बजट वाली फिल्म का अर्थ यह नहीं है कि फिल्म छोटी है। मार्केट अब काफी बदल चुका है। जो पहले अनकन्वेंशनल था, अब कन्वेंशनल है। बडे प्रोडक्शन हाउस भी कम बजट की फिल्में बनाने लगे हैं। स्माँल बजट में दिक्कत यह होती है कि फिल्म की मार्केटिंग कैसे की जाए। ऐसे में बिलकुल अछूता विषय, नई कहानी और ज्यादा रचनात्मक अंदाज की जरूरत होती है। दर्शक उन्हें तभी मिल पाते हैं।
ट्रेड पंडितों का कहना है कि बडे बजट के साथ रिस्क भी बडा होता है और उसकी भरपाई मुश्किल से हो पाती है। खासतौर पर नामचीन डायरेक्टर मणिरत्नम की फिल्म रावण के फ्लाँप होने के बाद प्रोड्यूसर र्सतर्क हो गए हैं और आने वाली फिल्मों का बजट घटाने लगे हैं।
माइक्रोमिनी आउटफिट्स
माइक्रोमिनी शब्द का सबसे क्रांतिकारी प्रयोग अगर कहीं हुआ है तो वह फैशन इंडस्ट्री है। डिजाइनरों की बात मानें तो थ्री सी यानी क्रिएशन, कट्स और कलर्स यहां बहुत मायने रखते हैं। सबसे बडी चुनौती है, कम से कम कपडÞे में अधिक से अधिक क्रिएटिविटी, कट्स व कलर्स का बेजोडÞ संगम।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में कार्ँमर्स स्टूडेंट सौम्या कहती हैं, मुझे हाँट पैंट्स और माइक्रोमिनी स्कर्टर््स बहुत पसंद हैं। मुझे नहीं लगता कि इन्हें पहनने से कोई एक्सपोजर होता है। सच तो यह है कि ऐसे आउटफिट्स के कारण आज हम अपनी फिटनेस के प्रति इतने सजग हैं। इन्हें पहनकर मैं बहुत काँन्पिmडेंट महसूस करती हूं।
किसी भी बडÞे स्टोर्स में एक ५० साल की स्त्री ठीक वैसे ही आउटफिट्स अपने लिए चुन सकती है, जो किसी १८ साल की लडÞकी के लिए बने हैं। कारण है फिटनेस के प्रति दीवानगी। यह वह दौर है जब मां-बेटी दोनों हाँट पैंट्स या माइक्रोमिनी स्कर्टर््स पहनकर साथ-साथ घूम सकती हैं। फिट है तो हिट है, यह नया सूत्रवाक्य फैशन इंडस्ट्री में बाँडÞी हगिंग आउटफिट्स को प्रमोट कर रहा है।
हेल्दी मिनी मील
कम खाओ गम खाओ। यह बहुत पुरानी भारतीय कहावत है। इसके बावजूद पुराने जमाने में मोटे लोग खाते-पीते खानदान के दिखते थे। आज ऐसे लोगों को ओबेसिटी से ग्रस्त कहा जाता है। पुरानी कहावत में कुछ नया जोड दें तो नया डाइट मंत्र है, थोडÞा-थोडÞा खाओ, लेकिन दिन में छह बार खाओ। डाइटीशियन डाँ। तरु अग्रवाल कहती हैं, तीन बार भरपेट भोजन करने के बजाय छह बार थोडा-थोडा भोजन करना अच्छा है, क्योंकि इससे भूख का एहसास कम होता है। यह डाइट इमोशनलर् इर्टस के लिए र्सवश्रेष्ठ विकल्प है। वेट मैनेजमेंट के लिए भी यह तरीका बेहतर है।
आदर्श साइज जीरो हासिल करने वाली अभिनेत्री करीना कपूर मानती हैं कि ठण् फीसदी सही डाइट, जिसमें छह मिनी मील हों, ३० फीसदी व्यायाम और योग स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है। नए डाइट मंत्र का पालन रेस्त्रां भी खूब कर रहे हैं। फुल कोर्स मील को स्माँल प्लेट्स या स्माँल पोर्शन में परोसने का स्टाइल हिट है। हालांकि मिनी मील के लिए मिनी मनी से काम चल जाए, यह जरूरी नहीं है। ±±±