Thu. Mar 28th, 2024
himalini-sahitya

घरमुहाँ उपन्यास मधेस आन्दोलन पर लिखा गया पहला उपन्यास है

जनकपुर,२८ जून | मैथिली साहित्य के एक स्तम्भ बन के खडे वरिष्ठ साहित्यकार, प्राज्ञ डा. रामभरोस कापडि भ्रमर आधुनिक मैथिली कथा के सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं । उनकी दो कथासंग्रह, एक उपन्यास के साथ साथ दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हैं । कथा, कविता,नाटक,निवन्ध, यात्रावृतान्त लगायत डा. भ्रमर के लेखनी का आयाम विस्तृत ही नहीं है, आप मैथिली में गामघर साप्ताहिक तथा आँजुर द्वैमासिक जैसे कईं प्रत्र–पत्रिकाओं का प्रकाशन व सम्पादन कर मैथिली साहित्य को सुदृढ एवम् सवल बनाएँ हुए हैं । साझा प्रकाशन के अध्यक्ष तथा नेपाल पज्ञा प्रतिष्ठान के प्राज्ञ परिषद सदस्य रह चुके डा. भ्रमर का मधेस आन्दोलन के उपर घरमुहाँ उपन्यास भी प्रकाशित है, जिसका भोजपुरी में भी अनुवाद किया जा चुका है । मधेस आन्दोलन के सन्दर्भ में मैथिली साहित्य व साहित्यकारों की दृष्टिकोण को लेकर विशेष संवाददाता विजेता चौधरी से डा भ्रमर की हुई महत्वपूर्ण बातचीत का अंश प्रस्तुत है ।

rambharos kapri

मधेस एवम् मैथिली भाषा के एक साहित्यकार के नाते मधेस आन्दोलन के अवतरण को आप किस रूप में देखते हैं?

निराशा, आक्रोश व संकोच से भरा हुआ । ६ महिनों का कष्टप्रद आन्दोलन व दर्जनों मधेसी सपूत के बलिदान के बाद जिस मजबुरी भरे माहौल में आन्दोलन का अवतरण करना पड़ा वह निराशा जनक है । अपने ही लोगों के अन्तरघात से उत्पन्न स्थिति ने आक्रोशित किया हुआ है, पर संयमित होकर आगे की सुध लेने के सिवा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है । जहाँ तक संकोच की बात है तो इतने लोगों के बलिदान, ६ महीने का प्रभावी नाकाबंदी व आन्दोलन का तीखा स्वरुप, मित्र राष्ट्र भारत का खुला समर्थन के वावजुद भी अन्ततः टुडीखेल के मंच पर सिमटकर रह जाने की विवश्ता ने संकोच से भर दिया है,मधेस के नेताओं को । पर मानने को वे तैयार नही हैं ।

इस अवस्था के जिम्मेदार नेतागण खुद हैं ऐसा नहीं लगता आपको ? कईं बार बुलंद आन्दोलन करके भी अपने अधिकार प्राप्ति से चूक जाना क्या इन नेताओं की अदुरदर्शिता नही ?

अदुरदर्शिता तो..क्या कहुं पर चूक तो है और इसका कारण निश्चय मोर्चा के बीच तालमेल का अभाव व आपसी विश्वास का संकट । साथ मे अन्य पक्षपर निर्भरता । मधेश के सामान्य नागरिक के बीच भी मधेश के प्रति आम सहमति व आक्रोश को परिणाममुखी नही बना पाना कुछ हदतक अदुरदर्शिता के श्रेणी मे तो आयगा ही । जबतक मधेशबादी नेतागण खुद को कार्यकर्ता नही समझेगे तबतक यह बिभेद का अन्त नही कर पायेंगे । सिंहदरबार से पहले बिभेद हटाना होगा और इसके लिय बाहर से दबाब देना होगा, सिंहदरबार के अंग बनकर नही ।

अब आगे का परिणाम क्या होगा, क्या लगता है आप को ?

जहाँ तक बात अब परिणाम क्या होगा जैसे सवालों का है तो बस संविधान संशोधन की रट, वार्ता का नाटक और नागरिक समाज व कुछ दलों के सामान्य समर्थन व मागों के प्रति सहानुभूति का अपनत्व भरा दृश्य को संजोने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं । आन्दोलन का स्वरुप तो बदला गया है परन्तु सत्ताधारियों के कुविचार में कोई परिवर्तन नहीं, इस अवस्था को सकारात्मक सोंच व परिणाम के तह तक ले जाना होगा और इस मे कांग्रेस की भूमिका का उपयोग करना उचित होगा ।

कांग्रेस की कैसी भूमिका ? थोड़ा स्पष्ट करें ।

.कांग्रेस की विगत की भूमिका किसी भी रुपमे सकारात्मक नही था । बिमलेन्द्र निधि लगायत के कुछ नेताओं ने प्रयास नही बिया हो ऐसी बात नही है पर पार्टी पंक्ति का साथ न होने कारण वह ज्यादा कारगर नही हो सका था । पर अब जबकि स्वयं सभापति देउबा ही आगे आ रहे हैं तो इसका लाभ लेने मे हर्ज ही क्या है । मधेश में पूर्व से ही जनाधार रहा कांग्रेस मधेश आन्दोलन में जो चोट खा चुका है उसे सुधारने के लिय अन्य किसी भी दल से ज्यादा इमानदार होकर मधेश समस्या समाधान मे लग सकता है । इसलिय मैने कांग्रेस के साथ आगे बढने की बात की है ।

मधेस के नेताओं का चरित्र अब कितना विश्वसनीय रह गया है ? समाज में इस का क्या असर है ?

दो दो जोखिम भरे आन्दोलन ने मधेसियों को वाजिब मुकाम तक पहुँचाने में जब कोई असरदार उपलब्धि दिला नहीं सका तो निश्चय ही इस से मधेसवादी दलों को जनता के कटघरा में खडा होने पर विवश कर दिया है । अन्य विकल्प के अभाव में मधेसवादी दल व इन के नेतागण विश्वनीय रहेगें पर जो आशा व विश्वास इन पर था उस में कमी आती जा रही है । और इसी का लाभ लेने के लिए कुछ नये कुछ पुराने दल अपनी रणनीति बनाने में लग चुके हैं । अब यह इन नेताओं का काम है कि, फसल काट सकने की क्षमता व प्रतिवद्धता इनमें है वा कोई दुसरा इसे रातोरात अपने खलिहान में जमा कर लेता हैं ।

नेपालीय मैथिली साहित्यकार लोग मधेसी आन्दोलन के प्रति कितने समर्थक रहें हैं ?

काफी हद तक । इस आन्दोलन के दरम्यान जितने भी साहित्यकारों कि रचनाएं पाठकों को मिली है सभी में आन्दोलन के प्रति प्रखर समर्थन दिख रहा है । मधेस के मुद्दों को अपनी रचनाओं में प्रमुखता से उभारने का प्रयास किया है ।

विचार व प्रतिवद्धता देख कर आप किस मधेसवादी दल को समर्थन देना चाहेगें ?

विचार व चिन्तन के आधार पर मधेस व मधेसियों के लिये काम करने वाले व मधेसी दल इतर को भी तमाम दल व राजनेता के प्रति मेरी पूर्ण सहानुभुति व समर्थन है । मुद्दा कभी भी व्यक्तिगत नहीं होता, सामूहिक व न्यायपूर्ण मुद्दों के लिए चलनेवाला कोई भी आन्दोलन परिवर्तन के लिये होता है, जो सुखद दिनों का संकेत देता है । ऐसी अवस्था में किसी दल के प्रति मात्र झुकाव रखना हम जैसे कलमजिवी के लिये उचित नहीं दिखता । सच बात तो यह है कि हम सभी के साथ हैं ।

किसी खास दल को समर्थन न करने की अन्य कोई वजह तो नहीं ?

मैने कहां कहा है कि मैं किसी खास दल को समर्थन करता हूँ वा नही, राजनीतिक परिवेस में हूँ, कहीं न कहीं मेरी भी तादात्मयता किसी के कार्यक्रम, इतिहास व उपलब्धि से हो सकती है और इस का अभिब्यक्ति..चयन करने की स्थिति में प्रकट होगा । पर समष्टि रुप में मै मधेस मुद्दा को इमान्दारीपूर्वक उठाने वाले सभी दलों के प्रति अभी समर्थन व विश्वास प्रकट करता हूँ ।

मैथिली साहित्य में विगत एक दशक का मधेस आन्दोलन किस रुप में अभिव्यक्त हुआ है ?

मैं पहले ही कह चुका हूँ इधर लिखी गई बहुत सारी रचनाएँ मधेस के आवाज को बुलंद करती दिखी हैं । अधिकांश कविताएँ है जिसका नाम गिनाना संभव नहीं है । कुछेक कथाएँ भी लिखी गई । पर ये सभी स्फूट रुप से आयी है । हां, कुछ उपन्यास भी आए हंै ।

मधेस आन्दोलन पर लिखी रचनाओं का प्रभाव आन्दोलनरत दल व जनता पर पड़ा है या नहीं ?

बिलकुल । राजविराज, जनकपुर जैसे आन्दोलन के गढ में जब मधेस आन्दोलन के भावों को समेटकर कवि सम्मेलन होते थें तो दर्शक–श्रोताओं की भारी भीड़ लगती थीं । अपनी वृहत उपस्थिति से प्रोत्साहन मात्र नही देते थें खुद उनके जोश को तालियां बजा कर बढाने का काम करते थें । जहाँ तक साहित्य के प्रभाव की बात है तो वो प्रायः प्रत्यक्ष दिखाई देने बाली वस्तु नहीं है पर परोक्ष रुप में आवश्यक पड़ता है । पर समस्या यह भी है कि मैथिली साहित्य पढ़नेवाले लोग सीमित हैं ।

रिले अनशन पर दल के नेतागण बैठे हैं, ऐसे में अब साहित्यकारों की भूमिका क्या होनी चाहिये ?

आन्दोलन का यह सुन्दर, आर्कषक व सहज अवतरण है । ध्यान आकृष्ट करने का अहिंसक प्रयास । अब यह कितना कारगर होता है देखना बाकी है । पर ऐसे माहौल में साहित्यकार महज कुछ रचनाओं को पूर्व जेसे ही समर्थन में लिखने के अतिरिक्त एक संगठित स्वरुप में अनसन स्थल पर भौतिक रुप से समर्थन दिखा सकते हैं, जो सर्वथा उचित होगा ।

आपका घरमुहाँ उपन्यास मधेस आन्दोलन पर लिखा गया संभवतः पहला उपन्यास है । इसे लिखने की भावना कैसे जागृत हुई ? इस का मुख्य विषयवस्तु क्या है पाठक जानना चाहते हंै ।

२०६२–६३ का मधेस आन्दोलन नेपाल के मधेसियों के लिये सचमुच अनुभव का एक नया अध्याय था । दो सौ पचास वर्षाें की पीड़ा एक झटके में बाहर आने का प्रसव वेदना से जुझता मधेस पहाड़ी चेहरा देखते ही बौखला गया था । पुरे मधेस क्षेत्र में पहाड़ी मूल के वासियों के प्रति नकारात्मक भावना का जागरण निश्चय ही वर्षों की भड़ास का परिणाम था । जिसे अन्य मधेसियों के तहत मैने भी महशुस किया था । तभी लगा के सायद यह मधेस में रहने वाले पुराने पहाडी बासिन्दा के प्र्ति कुछ ज्यादे ही अन्याय हो रहा है । आन्दोलन का ज्वार था, कुछ समझाने की स्थिति नहीं थी । पर जब सबकुछ शान्त हा ेगया तो लगा मुझे इस मुद्दे को उठाकर कुछ लिखना चाहिये । और मैने लिखा यह घरमुहाँ उपन्यास ।

जहाँतक कथा–वस्तु का प्रश्न है, मधेस आन्दोलन के तमाम सकारात्मक व नकारात्मक पक्षों को संक्षिप्त रुप में ही सही उकेरने का प्रयास किया गया है । घटनाएँ क्यों घटी, क्या क्या हुआ, सरकार की भूमिका और अन्ततः वार्ता–सहमति सब कुछ है इस में । और इस सभी कथाबस्तु के साथ एक अन्य उपकथा जो इस उपन्यास सार्थकता प्रदान करता हैे ( समालोचकों की दृष्टिकोण में) दो परिवारों का अन्तरसम्बन्ध । एक आन्दोलनरत जगमोहन का मधेसी परिवार दुसरा नेपाली भाषी एक शिक्षक रमेश उपाध्थाय का परिवार । दानों परिवारों के बच्चो के बीच प्रेमसंवन्ध विकसित होते जाना और मधेस की विपरित अवस्था को देख शिक्षक रमेश अपना घरवार बेचकर यहाँ से जाना चाहता है । वहीं दोनो बच्चों के प्रेम ने उन्हें घर लौटने पर विवश करदेता है । वास्तब मे विस्थापन नहीं एक्यवद्धता ही इस उपन्यास का मूल भाव है ।

फिर मधेस क्रान्ति की ही बात करें तो, भारतीय क्षेत्र का मिथिला खण्ड इस मधेस आन्दोलन के प्रति कितना सकारात्मक हैं ? उस पर इस विषय में क्या लिखा गया है ?

पहला व दुसरा मधेस आन्दोलन से भिन्न इस वार का आन्दोलन भारतीय मित्रों का अत्यधिक समर्थन प्राप्त किया है । क्या जनता, क्या राजनेता और क्या मिडिया के लोग मधेस का सही चित्र निखारने में उन लोगों ने अहम भूमिका निभायी है । कहना न होगा भारतीय मिथिला क्षेत्र उस से भिन्न नहीं है । सीमा क्षेत्र के भारतीय मित्रों ने ६ः महिने के कठिन नाकावन्दी में जिस आत्मीयता से मधेसी आन्दोलनकारियों को या यहाँ के कठिनाइयों से जुझते सामान्य मधेसी नागरिक को विभिन्न प्रकार से भरपुर सहयोग करते रहें हैं । अभी हाल ही में दरभंगा के महिला काँलेज ने एक अन्तराष्ट्रीय गोष्ठि का आयोजन किया था जिसका विषय ही मधेस मुद्दा पर केन्द्रीत था । अन्य स्थानों में भी कार्यक्रम हुए हैँ । जनतादल के वरिष्ठ नेता रघुवंशप्रसाद सिंह ने सीमा क्षेत्र में मधेसीयों के समर्थन में दर्जनों सभाओं का आयोजन कर समर्थन जताया था । हाँ जहाँ तक लेखनी की बात है तो छिटपुट रुप में निवन्ध, कविताएँ प्रशस्त लिखिगयी है पर पुस्तकाकार प्रकाशन नजर पर नहीं आ पाया है ।

एक आखिरी प्रश्न, आप आजकल क्या लिख रहें हैं ?

स्फूट रचनाओं के अतिरिक्त मैं अभी कोई पुस्तक नहीं लिख रहा हूँ । हाँ अपनी वही स्फूट रचनाओं को संकलित कर प्रकाशन के तरफ उन्मुख हूँ ।



About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.
Loading...
%d bloggers like this: