अब तेरा क्या होगा ओबामा ?
प्रो. नवीन मिश्रा
जिस समय ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने गरीब सद्भावना का माहौल देखने को मिला था। एक हद तक इसका कारण ‘जोशे-जवानी हाँय रे हाँय’ वाला उत्साह था। सारे जहान में नौजवानों को लग रहा था कि वह नई पीढ के प्रतिनिधि हैं, और उनके आने से एक नए युग की शुरुआत हो रही है। इसके साथ ही यह बात भी भुलाई नहीं जानी चाहिए कि ओबामा वास्तव में कई मामलों में अनूठे और अभूतपर्व हैं। वह अंशतः ही सही अश्वेत और मुसलमान पिता की संतान हैं, माँ भले ही गोरी नस्ल की थी और वह स्वयं इर्साई धर्म को मानते हैं। इन सभी बातों पर जो बात भारी पडÞती है, वह यह है कि अपने चुनाव अभियान के दौरान ओबामा के तेवर जुझारु रुप से आदर्शवादी रहे थे, और उन्होंने यह वादा किया था कि सभी लोगों को साथ लेकर वह देश और दुनिया में एक रचनात्मक बदलाव लायेंगे। इसीलिए शपथ ग्रहण करने के बाद व्हाइट हाउस में उनके प्रवेश के वक्त सभी लोग सुनहरे भविष्य की पदचाप सुन रहे थे।


इंतजार के लम्हे अब समाप्त हो चुके हैं। मगर सत्ता ग्रहण करने के बाद समय बीतने के साथ-साथ काफी बदले-बदले मेरे सरकार नजर आने लगे हैं। यह सच है कि चुनाव अभियान के दौरान अपनी जो छवि कोई भी उम्मीदवार पेश करता है, सत्ता ग्रहण करने के बाद, जिम्मेदारी के बोझ तले उस में बदलाव आनिवार्यतः आता है। यदि बात इतनी भर होती, तो शायद सर्रदर्द पालने की जरुरत न होती। दर्दनाक हकीकत यह है कि ओबामा रातों रात चोला बदलते नजर आने लगे। जिस तरह के सल्लाहकार उन्होंने नियुक्त किए और जिस तरह का स्वयं उन्होंने विस्फोटक अन्तर्रराष्ट्रीय संकट स्थलों के बारे में बर्ताब किया, उससे यही लगता है कि बुश की विरासत को पूरी तह नकारने में या तो वह अर्समर्थ हैं, या अनिच्छुक हैं।
दो चार उदाहरणों से यह बात बिल्कुल साफ हो जायेगी। भले ही ओबामा ने यह बात दो टूक कह दी है कि दुनिया भर के मुसलमानों को यह नहीं महसूस होना चाहिए कि अमेरिका उन का दुश्मन है। पर उन के आचरण से ऐसा नहीं लगता कि मुसलमानों को भरोसा दिलाने के लिए कोई र्सार्थक कदम उन्होंने उठाए हों। पश्चिम एशिया में गाजा पट्टी में बेघर फिलीस्तीनियों पर इजरायलियों का बर्बर हमला कई दिनों से जारी है। हजारों मासूम स्त्रियां और बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं। यह बात जग-जाहिर है कि अरब इजरायली संर्घष्ा का इतना विकराल रुप इसी कट्टरपंथी यहूदी मानसिकता वाले इज्राइल के कंधे पर है। अमेरिका की आतंरिक राजनीति, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन में इजरायल के साथ सहानुभूति रखने वाले उसके र्समर्थक यहूदी अमेरिकी नागरिक एवं नेता कितने प्रभावशाली हैं और यह बात भी र्सवविदित है कि शीत युद्ध के एक दौर में सामरिक संवेदनशीलता के कारण अमेरिका की विवशता इज्राइल का गठन और इस कृत्रिम राष्ट्र राज्य को संरक्षण प्रदान करना आज का कडÞवा सच यह है कि अमेरिका का पक्षधर और उस पर निर्भर सउदी अरब तक इस मुद्दे पर अमेरिका के आचरण से खिन्न और उत्तेजित हैं। भले ही सऊदी अरब का भ्रष्ट, कुनबापरस्त और दकियानूसी मध्ययुगीन सामन्ती संस्कार वाला राज घराना अमेरिका का पिट्ठू बना रहे। कट्टरपंथी वहाँ भी इस्लाम को मानने वाले ऐसी सऊदी नागरिकों की कमी नहीं, जो अमेरिका को नेस्तनाबूद करने की कसम खा चुके हैं। कीनिया के मुसलमान अश्वेतों ने भले ही ओबामा की जीत का भरपूर जश्न मना लिया हो और्रर् इरान के राष्ट्रपति अहमदी निजाद नर्ेर् इमानदारी का तकाजा निभाते हुए यह घोषणा कर डÞाली कि फिलहाल ओमाबा की नियत पर शक करना वाजिब नहीं। आज इस बात को नकारना कठिन होता जा रहा है कि पूरे इस्लामी जगत में ओबामा को लेकर शक और शुबह होने लगे हैं।
यह बात गाजा पट्टी और फिलीस्तन तक ही सीमित नहीं। बुश के मन्त्रिमण्डल में रक्षा मन्त्री के रुप में काम कर चुके व्यक्ति को ओबामा ने उसी पद पर बहाल रखा है। इसी तरह बुश द्वारा नियुक्त उस आला जनरल को जिस ने इराक के ध्वंस में नाम कमाया था। इसी सफलता के कारण उन्होंने अफगानिस्तान के मोर्चे पर तैनात किया। पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमांती इलाके पर अमेरिका का लगभग हमलावर हस्तक्षेप बदस्तूर जारी है। चालक रहित ड्रोन विमानों की बम-बारी से आये दिन दर्जनों निर्दोष नागरिक अपनी जान से हाथ धोते जा रहे हैं। पाकिस्तान की लाचारी यह है कि वह अपनी संप्रभुता का बार-बार उल्लंघन होने के बावजूद सिर्फकराह ही सकता है। अमेरिका के विरुद्ध किसी भी तरह के प्रतिकार की क्षमता उसकी नहीं। अब तक यह बात साफ झलकने लगी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चाहे किसी भी पार्टर्ीीनस्ल, धर्म या पीढÞी का हो, उसके लिए सबसे बडÞी प्राथमिकता अमेरिका के राष्ट्र हित की ही रहती है। ओबामा इसका अपवाद कतई नहीं हो सकते। यह बात हमें हमेशा याद रखनी चाहिए कि किसी भी दूसरे राष्ट्र राज्य की तरह अमेरिका के राष्ट्र हित को भी कोई एक अकेला व्यक्ति परिभाषित नहीं कर सकता और न ही इन्हें संशोधित कर सकता है। तरह-तरह के न्यस्त स्वार्थ, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थिति इन्हें प्रभावत करते हैं।
ओबामा की मजबूरी यह है कि राष्ट्रपति वह पूरे अमेरिका के हैं- सिर्फनौजवानें के या अल्पसंख्यक अमेरिकियों के नहीं। साथ ही यह बात भी रेखांकित की जानी चाहिए कि सारे के सारे नौजवान अमेरिकी भी मानवीय परिवर्तन नहीं चाहते, जैसी हमारी सोच है। जिस बदलाव के लिए, बहुसंख्यात्मक अमेरिकी मतदाता ने जीत दिलाई वह मूलतः आंतरिक राजनीति से जुडÞा और अर्थव्यवस्था में, तथा समाज कल्याणकारी नीतियों पर केन्द्रित था। इराक हो या अफगानिस्तान इन दोनों ही जगहों में युद्ध विराम की अभिलाषा सिर्फइसलिए मुखर होती रही है कि इन मोर्चों पर कर्ुबान होने वाले अमेरिका के सैनिकों को वापस निरापद कर लौटाया जा सके। जहाँ तक दक्षिण एशिया का प्रश्न है, ओबामा ने रर्ीचर्ड हाँलाब्रुक को अपना विशेष दूत नियुक्त किया है। फिलहाल भले ही उन्होंने यह भरोसा दिलाया है कि उन्हें कश्मीर विषयक या भारत-पाक संबंधों में सुधार के लिए मध्यस्थता वाली पूरी जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा रही है। यह आशंका स्वाभाविक है कि भविष्य में उनको सौंपे गए काम की सूची में इसे भी जोडÞा जा सकता है। ओबामा ने अपने सेक्रटरी आँफ स्टेट के रुप में हिलेरी क्लिंटन को नियुक्त किया है, जिन्हें क्लिंटन युगीन दक्षिण एशियाई सोच से मुक्त नहीं समझा जा सकता।
कुल मिला कर जिस तरह का क्रियाकलाप ओबामा ने अपने कार्यकाल में दिखाया है, उससे तो यही लगता है कि उनकी भूमिका पहले के राष्ट्रपतियों से बहुत भिन्न नहीं रही है। अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनाव के बादल मडÞराने लगे हैं। ऐसे में तो बरबस ही यह बात दिमाग में आती है कि, ‘अब तेरा क्या होगा ओबामा -‘ ±±±