कामोन्माद का पर्व
इतिहास देखकर कहा जाए तो होली की सुरुवात सातवीं शदी से हर्ुइ है। पर्व मनाने के पीछे विभिन्न रोचक पौराणिक कथानक भी इस में जुडÞकर आते है। जिस तरह का कथानक हो, सब का निचोडÞ, अन्तरवस्तु और व्यवहारिक पक्ष में काम और यौन उन्मुक्ति की बातें जुडÞ जाती है। आजकल आधुनिक होली के नाम पर युवा पीढी जो-कुछ कर रही है, वह भी यौनकुण्ठा का प्रकटीकरण ही है। सामाजिक रुप में होली के अन्य विविध पक्ष भी हैं लेकिन मैं यहाँ जो बात कहने जा रहा हूँ, उससे सब लोग सहमत नहीं हो सकते। बाहर से भले कोई इसे नमाने, वह भी अन्दर से इस बात को स्वीकार करता है।
आग से न जलने का वरदान पानेवाली होलिका से सहयोग लेकर जब हिरण्यकश्यपु ने विष्णुभक्त प्रल्हाद को मारने की कोशिस की तो होलिका खुद ही आग में भष्म हो गई और प्रल्हाद बच गए। इसी की खुशीयाली में होली की शुरुआत होनी की पौराणिक किम्वदन्ती हम पाते है। उसी तरह शिवर्-पर्वती और राधा-कृष्ण सम्बन्धी प्रसंग भी होली से जुडे है। इन दोनों किम्वदन्तियों में विपरीतलिङ्गीप्रति के आकर्षा और उस के उन्माद की झलक मनोवैज्ञानिक रुप में मिलती है। यह सच भी है कि होली युवावस्था के यौनमनोविज्ञान प्रकट करने का सहज माध्यम भी है। इस में कुण्ठित यौनिक मनोविज्ञान तथा भावनाओं को रंग और पर्व के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
युवावस्था में प्रवेश होने के बाद हरेक प्राणी में स्वतः विपरीतिलिङ्गीप्रति आकर्षा पैदा होता है। लेकिन हिन्दू संस्कृति ने इसे खुले रुप में प्रकट करने की स्वीकृति नहीं दी है। लेकिन होली ही एक ऐसा पर्व है, जहाँ युवा-युवतियां इसी के बहाने अपनी अतृप्त कामेच्छा को भी सलीके से प्रकट कर सकते है। होली के नाम से युवा-युवतियों का आपस में मजाक करना, वार्तालाप में कुछ अश्लीलता का संकेत करना, शरीर के अंग-प्रत्येक को र्स्पर्श करके आनन्द प्राप्त करना सामान्य माना जाता है। इस को कोई रोक नहीं सकता और रोकना भी नहीं चाहिए। दोनों की इच्छा होकर भी धर्म, परम्परा और संस्कृति के नाम पर र्स्पर्श से बञ्चित युवा-युवती होली के अवसर पर एक-दूसरे को लाल रंग के माध्यम से र्स्पर्श कर के सन्तुष्ट हो जाते है, जिसका मनोवैज्ञानिक कारण यौन से ही सम्बन्धित होता है। लाल रंग यौन उत्तेजना का प्रतीक भी है। जिस के माध्यम से युवा-युवती अपने आप को सभ्य ढंग से खुलकर प्रस्तुत कर सकते है। लेकिन कोई आदमी ऐसी बात को अनुचित समझे और पसन्द नहीं करें तो उसे इस बात से अलग ही रखना चाहिए और उसको इससे कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। वसन्त ऋतु शुरु होते ही मौसम में इस प्रकार का परिवर्तन होता है, जिससे हर दिल में यौवनका सञ्चार होने लगता है।
इसी तरह लिंग, जाति और वर्गभेद रहित पर्व होना होली के दूसरी विशेषता है। होली मनाते समय महिला हो या पुरुष सभी में गजब का उत्साह देखने को मिलता है। कोई अपने को छोटा-बडा नहीं समझता। उसी तरह जात और आर्थिक दृष्टि से भी होली के लिए कोई आदमी अयोग्य नहीं ठहरायां जाता है। एक बूँद लाल रंग हो तो सब होली मना सकते हैं। इसीलिए होली सब जाति और वर्ग का समान पर्व है।
राधा और कृष्ण के होली खेलने का वर्ण्र्ाासखियों के द्वारा कृष्ण को स्त्री बनाना
राधावर खेलत होरी। टेक-
नन्दगांव के ग्वाल सखा है,
बरसाने की गोरी।
खेलत फाग परसपर हिलि मिलि;
सुख, रंग में रस भोरी।।१।।
घर घर फाग भनोरी।
राधावर खेलत ….
राधा सान दियो सखियन के;
जुथ्य जुथ्य उठि दौरी।
लपटि झपटि धरि साम सुनर के
बरबस पकडिÞ भिगौरी।।२।।
राधाबर खेलत …..
मची ब्रज में अब होरी।
छीन लियो बनमाल मुरलिया;
पीताम्बर लियो छोरी।
भामिनि भेख बनाई कहतु है;
नन्दराय की छोरी।।३।।
राधावर खेलत ….
भली छवि आज बनो री।
दे दे ताल नचावत गावत;
अपनी अपनी ओरी।
वा दिन की सुधि भूलि गयो;
जमुना तीर चीर हरो री।।४।।
राधाबर खेलत …
आजु मोर दाव परोरी।
कृष्ण रंग फगुआ मन भावे;
लियो न प्रीति निहोरी।
भवो अधीन वृखभानु सुता के;
‘सूर’ करे बिनती कर जोरी।।५।।
साम जी खूब छको री।
राधावर खेलत ….