कलियुगी मानव के एक मात्र तारणहार महादेव
रमेश झा
सब युगों में कलियुग एक ऐसा युग है, जिस में मानव सब काम अमर्यादित, अविचारित, अविवेकपर्ूण्ा तरीके से करता है। जिससे सामाजिक संरचना ही नष्ट, भ्रष्ट होती दिखाई देती है। मानवीयता लुप्त होती जा रही है। स्वार्थान्धता बढÞती जा रही है। पापाचार में मानव की लिप्तता बढÞती जा रही है। कलियुगी सभ्यता मानवीय विवेक शक्ति को अपना ग्रास बनाती जा रही है। पुराणादि ग्रन्थों में उल्लेखित कलियुगी प्रभाव अक्षरशः दृष्टिगोचर हो रहा है-
कलौ र्सर्वे भविष्यन्ति मानवाः धर्मवर्जिताः।
सदा पापरताः र्सर्वे सत्य धर्मपराङ्मुखाः।।
परदाररता नित्यं परद्रोहपरायणाः।
परिनिन्दारताश्चैव परवित्तापहारिणः।।
गुरु भक्तिविहीनाश्च गुरुनिन्दारता सदा।
स्वस्वकर्म विहीनाश्च धनलुब्धाः कलौ युगे।
भविष्यन्ति द्विजाःर्सर्वे शूद्राचाररताः सदा।
महाभागवत ८१ श्लो, २,३,४,५
अर्थात् कलियुग में सभी मानव धर्महीन, पापाचारी, सत्य से विमुख होंगे। परायी स्त्री में आशक्त, दूसरे सर्ेर् इष्र्या करने वाले, दूसरों की निन्दा में रत तथा दूसरे के धन को हरनेवाले होंगे। कलियुग में लोग गुरुभक्ति विमुख, गुरुनिन्दा में व्यस्त, अपने कर्म से विमुख तथा धन के लोभी होंगे। ब्राह्मण लोग शूद्राचार में लिप्त तथा वेद, तप एवं योगाभ्यास से रहित रहेंगे। सज्जनों की हानि दर्ुजनों की उन्नति होगी। ऐसी अवस्था में मानव जीवन की र्सार्थकता कैसे सिद्ध होगी – इस ओर मानव को चिन्तन मनन करने की जरूरत है। भगवान शिव का एक नाम आशुतोष है। आशुतोष का अर्थ होता है- जल्दी प्रसन्न होने वाला। भगवान भोलेबाबा औघडÞ, औढÞर दानी हैं । देवों के देव महादेव अपने भक्त के द्वारा की गई भक्ति से तुरंत ही खुश होनेवाले हैं। इस प्रकार घोरान्ध कलियुग में भगवान शिव की भक्तिपर्ूवक पूजन से पापबुद्धि मानव पापमुक्ति का भागीदार बन सकता है। कलियुग में अल्प साधन मात्र से भगवान शिव की पूजाराधना करने वाला भक्त आनन्दमय जीवन प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। अकिंचन भक्तों के लिए भगवान विश्वनाथ ही एक मात्र ऐसे देवता हैं, जिनकी पूजाराधना के समान कोई भी सर्त्कर्म कलियुग में नहीं है। जो मानव भक्तिपर्ूवक र्सव देवमय भगवान आशुतोष की पूजार्चना और भक्ति करता है, वह अपने मानवीय देह द्वारा किए गए पापों से मुक्त होकर साक्षात् शिव लोक को प्राप्त करता है।
भगवान शंकर ऐसे देवाधिदेव महादेव हैं, जिनकी जो देहधारी मानव शंकर स्वरुप लिंग या पार्थिव लिंग की पूजा अर्चना करता है, वह मानव मानवों में श्रेष्ठता, आरोग्य, अतुल आनन्द एवं संतति वृद्धि को प्राप्त करता है। पुराणादि ग्रन्थ तथा आप्त वचनानुसार यदि मानव काशी में अनिच्छा से भी यदि विश्वनाथ की पूजा करता है, उसे अन्त समय में भगवान शिव स्वयं मुक्ति प्रदान करते हैं और द्वादश ज्योतिलिंग स्वरुप प्रदान करते है। और द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरुप विश्वेश्वर की सभक्ति पूजा करने वाला मानव पर्ुनर्जन्म का भागीदार नहीं होता।
इस भूलोक में आशुतोष शंकर की पूजार्-अर्चना के समान कोई भी श्रेष्ठ कर्म नहीं है, जो बडेÞ से बडÞे पाप को हरने वाला और पुण्यदायी हो तथा सभी प्रकार की आपत्तियों -आधिव्याधियों) को हरने वाला हो। शास्त्रों में मनुष्यकृत जघन्य पापादि कर्मों से छुटकारा पाने का असंख्य पुण्यदायक कर्मजन्य मार्ग बताये गये हैं। उनमें र्सव सौविध्य सुखकर एवं हितकर मार्ग भगवान शिव की भक्ति, पूजार्-अर्चना है। शिव नाम संकर्ीतन तथा श्रवण करना पापनाश या मुक्ति का र्सवश्रेष्ठ उपाय है। इस प्रकार जो मानव एकबार भी शिव ! विश्वनाथ हर ! गैरीपते ! आप प्रसन्न हों ! कहकर श्रद्धाभक्ति के साथ पुकारता है, उस मानव की रक्षा स्वयं शूलपाणि शिव करते हैं।
अतः तारणहार शिव की महिमा का अन्त कोई भी नहीं पा सकता । देवाधिदेव के रहस्य और शिव तत्व जानने में ऋषि-मुनि सब के सब अर्समर्थ रहे हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के पर्ूव न सत् था, न असत्। केबल निराकार स्वयम्भू शिव की ही सत्ता विद्यमान थी। जो शक्ति सृष्टि से पर्ूव हो वही, जगत का आद्य कारण हो सकती है। ऐसी अवस्था में शिव ही नित्य, अजन्मा और अनन्त हैं। इस अनन्ताकाश स्वरुप शिव-पार्वती का गुणगान प्रेम और भक्ति से जो मानव करते हैं, उसे चारधामयात्रा का फल मिल जाता है।
इसी अनन्त स्वरुप शिव की भक्ति पर्ूवक पूजार्-अर्चना करें और अपने आप को शिवसायुज्य के भागीदार बनावें।
उपायो विद्यते नान्यः सत्यं सत्यं कलौं युगे
शम्भोः आराधनात् स्वल्प साधनान्मुनिसत्तम।।
इसीलिए यह उक्ति समीचीन है- सत्यं शिवं सुन्दरम् ।