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काशिकांत झा
विक्रम संम्वत् २०७० साल में दूसरी बार संविधान सभा का निर्वाचन सम्पन्न हुआ । परिणाम नेपालियों के लिए आश्चर्यजनक नहीं है परन्तु संघीय गणतन्त्रात्मक लोकतान्त्रिक राजनीतिक संस्कृति को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करने की चेष्टा में राज्य सञ्चालन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से संलग्न व्यक्ति तथा समूह द्वारा विभिन्न प्रलोभन में फँसे हुए कुछ मधेशी गण भी सक्रिय देखे गए । इनकी सक्रियता गैर मधेशियों की जमात में व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति हेतु इन्हें प्रवेश कराने में सफल हुई । वहाँ ये सब के सब सीधा–सादा मधेशियों के प्रति नश्ल के आधार पर विभेद करने की परम्परावादी ‘खस’ प्रवृत्ति सरकारी द्वैध तथा विभेदकारी नीति के प्रयोग से सत्ता में बने रहने के दाँवे पेंच में माहिर देखे जाते हैं । इसका ज्वलन्त उदाहरण देखेन को तब प्रारम्भ होता है, जब सुशील बाबू प्र. मन्त्री की कुर्सी पर विराज हुए ।
संविधान सभा में संविधान निर्माण फास्ट ट्रयाक से करने की प्रतिवद्धता एमाले के सांसदगण द्वारा बारम्बार इसलिए उच्चारण किया जाता रहा कि संविधान घोषणा पश्चात् सुशील बाबु प्रधानमन्त्री पद से राजीनामा देंगे और एमाले के नेतृत्व में नयी सरकार का गठन होगा । फास्ट ट्रयाक से संविधान निर्माण के दुष्परिणाम को प्रधानमन्त्री सुशील बाबु के सिर पर मढ़ने के उद्देश्य से फास्ट ट्रयाक शब्द के आगे सुपर शब्द जोड़कर सुपर फस्ट ट्रयाक द्वारा संविधान निर्माण कराने की वचनवद्धता प्रधानमन्त्रीद्वारा संसद में अभिव्यक्त कराने में एमाले के सांसदगण सफल हुए ।
गैर मधेशी नेतृत्व में गठित राजनीतिक दल के मधेशीगण मधेशियों को भ्रमित कर मधेश में पैसा, वाहुवल एवं छलकपट द्वारा निर्वाचन में विजयी होकर केन्द्रीय राजनीतिक मञ्च पर मधेशी विरोधी सञ्चालित गतिविधि में अग्रभूमिका निर्वाह करते हुए ताली बजाने वाले ये मधेशी सांसदगण भी अपनी छद्म राजनीतिक चातुर्यता साथ संसद् में प्रस्तुत होते रहे हैं । इससे प्रधानमन्त्री सुशील बाबु की निरीहता तथा कांग्रेस के अधिकांश सांसदों की मधेशियों के प्रति हीन भावना को बल मिलता रहा । जिससे शक्ति को सामथर्ग में गैर कानुनी विधि से रुपान्तरण हेते सत्त तप्तर रहने को कांग्रेस के पुराने मनो विज्ञान का पुनः भण्डाफोर हुआ ।
एक तरफ संसद में कांग्रेस तथा एमाले के सांसदगण सुपरफास्ट ट्रयाक से संविधान निर्माण की चर्चा को जोड़ पकड़ाने में पूर्ण संलग्न देखे गए तो दूसरी तरफ दलित, जनजाति, आदिवासी, थारु, मुस्लिम तथा मधेशी जनता नश्ल के आधार पर विभेद करने की भावना रहित संविधान निर्माण के पक्ष में वातावरण सिर्जना करने में व्यस्त थी । इसीक्रम में मित्र राष्ट्र भारत के शुभचिन्तक गण ने भी सत्तासीन नेतृत्व वर्ग से निर्माणधीन संविधान के कुछ अमान्य धाराओं को निकालकर मानवीय आधार पर सर्वस्वीकार्य विषय समावेश करने का सलाह दिया । इतना ही नहीं सत्ता पक्ष से संविधान सार्वजनिक करने की तिथि को आगे बढ़ाकर सार्वजनिक करने की तिथि को आगे बढ़ाकर लोकतन्त्र के आधार पर असन्तुष्ट पक्ष से वार्ता द्वारा लोकतन्त्र में सर्वपूज्यनीय संविधान सार्वजनिक करने का श्रुति सम्मत कदम आगे बढ़ाने के लिए देशी–विदेशी विद्वत्गण भी समय–समय पर अपना–अपना विचार मीडिया के माध्यम से सरकार तथा जनता समक्ष प्रस्तुत करते रहे । फिर भी सत्ता के मद में चूर एक पूर्व कांग्रेसी गृहमन्त्री संसद में वक्तव्य देते है कि ‘बिना एक शब्द बोले राष्ट्रपति को २०७२ साल असोज ३ गते संसद में संविधान जारी करना होगा ।’ हुआ भी ऐसा ही ।
महामहिम राष्ट्रपति महोदय, दबाव में या स्वेच्छा से संविधान जारी किए हंै यह तो भविष्य ही बताएगा परन्तु सत्य यही है कि मधेश आन्दोलन के वक्त गृहनगर सपही, धनुषा जाने के लिए कार्यभारभक्त राष्ट्रपति महोदय नेपाल सरकार से सुरक्षा की व्यवस्था मिलाने के निवेदन को सार्वजनिक किया जाता है, जिससे मधेश आन्दोलन प्रति उनकी भावना एवम् आन्दोलन की गम्भीरता स्पष्ट होती है ।
संसदीय प्रणाली में बहुमतद्वारा निर्वाचित प्रधानमन्त्री भी देश के उपेक्षित, दलित एवम् अल्पसंख्यक के साथ सम्वाद, सहमति तथा सहकार्य के माध्यम से सम्पूर्ण देशवासी की भावना को कदर करते हुए राजनीतिक सुझबुझ और बुद्धि–विवेक से राज्य सञ्चालन में अपनी जिम्मेदारी का परिचय गम्भीरता साथ देते हैं । जिसका अनुकरण प्रजातान्त्रिक देश की आम जनता द्वारा किया जाता है ।
परन्तु प्रधानमन्त्री केपीशर्मा ओली मधेश आन्दोलन में शाहदत प्राप्त करनेवालों के सम्बन्ध में २–४ आम पेड़ से गिर जाने से पेड़ को कुछ फर्क नहीं पड़ने का उदाहरण प्रस्तुत कर अपनी शैक्षिक स्तर का परिचय देते हैं । इतना ही नहीं, मधेश आन्दोलन के क्रम में मेची से महाकाली तक के सम्पूर्ण मधेशीगण जब एक ही समय में मानव–श्रृंखला खड़ा करते हैं तो केपीशर्मा ओली इससे पुनः ‘माछी श्रृंखला’ के नाम से सम्बोधन कर अपने पद की मर्यादा का उपहार करते हुए प्रस्तुत होते हैं । प्रधानमन्त्री ओली सर्वसत्तावाद में विश्वास कर मधेशी तथा आदिवासियों की भावना को चोट पहुँचाकर नेपाल राष्ट्र की अखण्डता प्रवद्र्धन करने के प्रयास में अपनी कमजोर मानसिकता का परिचय दिया । वे मधेश आन्दोलन के वक्त प्रजातान्त्रिक मूल्यमान्यता अनुसार देश की समस्या समाधान करने के बजाय भारत के विरोध में नेपाल की अविभाज्य जनता को विभाजन करने के प्रयास में अग्रपंक्ति में खड़े हो गए ।

जिसका प्रमाण तब मिला जब मधेशी गण द्वारा किया गया नाकाबन्दी को भारतीय सरकार द्वारा अघोषित नाकाबन्दी की संज्ञा दी गई । इस प्रकार के भ्रामक वक्तव्य से सम्पूर्ण देशभक्त के बीच भी वे अपने देश में भी अपनी अमर्यादित तथा संकीर्ण सोच के लिए आलोचित हुए । उनके इस रवैया से सरकार में सहभागी माओवादी केन्द्र के नेतृत्ववर्ग भी असन्तुष्ट हुए । अन्ततः मधेशी मानव अधिकारवादी गण विवस होकर जेनेवास्थित मानव अधिकारवादी संस्था तथा न्यूयोर्कस्थित संयुक्त राष्ट्रसंघ में अधिकार प्राप्ति हेतु शान्तिपूर्ण मधेश आन्दोलन में सहभागी ऊपर प्रहरी द्वारा की गई ज्यादती का प्रमाण प्रस्तुत किया । इससे विश्व के प्रजातन्त्रप्रेमी तथा मानवतावादी गण का ध्यान काठमांडू की ओली सरकार की ओर आकृष्ट हुए ।
इन्हीं कारणों से सरकार को हटाने की प्रक्रिया शुरु हुई । परन्तु प्रधानमन्त्री सत्ता नहीं छोड़ने के पक्ष में दृढ़ता व्यक्त करने के कारण सरकार के प्रमुख घटक माओवादी केन्द्र के अध्यक्ष पुष्पकमल दाहालको देश की अवस्था को साम्य करने हेतु कांग्रेस से हाथ मिलाने के लिए बाध्य होना पड़ा । अस्तु, ओली की सरकार गिरी और संसद में नयाँ समीकरण के आधार पर प्रचण्ड बाबु प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर विराजमान हुए । आन्दोलनरत मधेशी तथा अल्पसंख्यक की मांग संविधान संशोधन द्वारा पूर्ति करने की वचनवद्धता कांग्रेस पार्टी तथा माओवादी केन्द्र के अध्यक्षद्वय द्वारा सार्वजनिक की गई ।
नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री प्रचण्ड महोदय भारत तथा चीन दोनों देशों में दो उपप्रधानमन्त्री को अपने विशेष दूत के रुप में भेजकर पुरानी मित्रता को और प्रगाढ़ बनाने के मार्ग को अपनाया हैं, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा किया जा रही है । लक्ष्य की प्राप्ति नेपाल की राजनीतिक अवस्था को स्थिरता प्रदान करने में सहायकसिद्ध होगी तथा भविष्य में बननेवाली सरकार भी इनके पदचिन्ह पर अटल गति से आगे बढ़ेगी, आशा की जाती है ।
उपरान्त नव नेपाल के निर्माण में इस देश के सम्पूर्ण दलित, जनजाति, आदिवासी, थारु, मुस्लिम, सीमान्तकृत, अल्पसंख्यक तथा मधेशी गण भी स–सम्मान नेपाल के संविधान– २०७३ के पूर्ण कार्यान्वयन में समर्पित होंगे ।



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