लेखक बना ही नही बन गया लेखक संघ का अध्यक्ष यानि आंखे नाहीं चश्मे चांही : बिम्मीशर्मा
बिम्मीशर्मा, बीरगंज, २७ दिसिम्बर | जिसका आंख कमजोर हो वह पावर वाला चश्मा पहनें तो ठीक है पर जब वह गगल्स या सन गलास पहन लेता है तो क्या होगा ? जिसका पैर नहीं है वह दौडना चाहता है । जिसके सर में बाल नहीं है वह बार, बार कंघी करता है । ठीक वैसा ही है जिसको लिखना नहीं आता वह लेखक बनने कि ख्वाहिश करे । स्कूल या कलेज में जिन्दगी भर टिचरगिरी करनेवाले इंसान के मन में अचानक लेखक बनने की भावना बलवती होने लगती है । भले ही उसे लिखना न आता हो फिर भी लेखक बने ।
स्कूल कलेज किकाली पाटी पर नेपाली, अग्रेंजी और हिंदी का व्याकरण और विज्ञान और गणित का फार्मूला लिखते लिखते एक शिक्षक के मन में भी लेखक बनने का किडा कुलबुलाने लगता है । लेखक बनना अच्छी बात है । कोई ढंग से लिखना जाने और उसके लेख की वाह, वाही तो सोने में सूगंध है पर जिसने जिन्दगी भर कुछ न लिखा हो वह अचानक लेखक बनने से पहले लेखक संघ का अध्यक्ष या उपाध्यक्ष हो जाए तो कहना ही क्या ? मेट्रिक पास को एम.बि.बि.एस. की डिग्री मिलने जैसा बात है यह तो । पर राजनीति जो न कराए वह कम है । राजनीति में हर पाप धूल जाता है ।
विभिन्न राजनीतिक दल और उसके टट्टू ईनके भ्राता और भगिनी संगठन में खप कर अपना जीवन संवार लेते है । राजनीति में कोई किसी की योग्यता नहीं देखता । कोई बिना पैर वाला आदमी दौड लगा रहा होता है तो कोई हाथ, पावं से तन्दुरुस्त आदमी व्हिल चेयर पर बैठा मुस्कुरा रहा होता है । ईनको यही कलाकारिता या ढोगं करने के लिए ही राजनीतिक दल अपने पहलू में बिठाते हैं । क्या करें सबको पद और पैसा चाहिए ? पद और पैसे के बिना कुत्ता भी आसपास दूम नहीं हिलाता ,
बंदर बुढा भले हो जाए पर वह गुलाटी मारना नहीं छोडता । बंदर का काम ही है एक पेड से दुसरे पेड पर उछलकुद मचाना । राजनीतिक दल के प्यादे भी यहीं करते हैं । जहां पर खाने को तर और घी नहीं मिला उस दल को तुरंत छोड देते है । राजनीति कोई सयांसी बनने के लिए तो नहीं करता । सभी का अपना और परिवार का पेट है । और यह पेट बढिया चीज ही डकारना चाहता है वह भी मूफ्त में । ईस के लिए राजनीति करना और सत्ता में जाना बहुत जरुरी है ।
यह देश क्यों नहीं बना ? ईसी लिए नहीं बना कि जो जिस काम के लायक है वह करना नहीं चाहता और जो काम नहीं करना आता उसी को करने कि कोशिश कर अपना और दुसरों का समय बर्बाद करता है । अब शिक्षकों को ही लिजिए वह पढा सकते हैं, किताब का प्रुफ रिडिगं कर सकते है । भाषाऔर व्याकरण सूधारने का काम भी कर सकते हैं । पर नहीं ईन्हे तो सिधे लेखक या लेखक संघ का अध्यक्ष बन कर नाम कमाना है भले ही ईस चक्कर में बदनाम क्यों न हों जाएं ।
धिरे, धिरे सिंढी चढ कर उपर पहुंचने में जो मजा है वह लिफ्ट से सिधे उपर पहुचने में कहां ? पर नहीं ईन्हे तो हर जगह तयार और तर माल चाहिए । चाहे दुनिया जाए भाडं में ईनकि बला से । एक जिस देश में एक आठ कक्षा पास आदमी सत्ता का कमान संहाल लेता है वहां एक शिक्षक लेखक संघ काअध्यक्षबनजाएतो कोई अचरज कि बात नहीं । कलको मेट्रिक फेल आदमी डाक्टर बन कर किसीका पेट चिरनाचाहे तो क्याहोगा?क्या उसे उस क्षेत्र काकाम करने देनाचाहिएजिसकावहविशेषज्ञ नहीं है ?तो फिर जिन्दगी भर टिचर गिरी करने वाला इंसान लेखक संघ का अध्यक्ष बने तो उसे खुशी, खुशी बनने देना चाहिए । क्योंकि वह किसी का पेट या जिगर तो नहीं चीर रहा । हां ईस से लेखन कि आत्मा जरुर तार, तार हो रही है । ईस देश में सब को सब चिज करने कि आजादी है ।
और ईसी आजादीकालोकतंत्र के नाम पर लोग दुरुपयोग कर रहे हैं । अगर आपकि सभी पार्टी के कारिंदा हैं तो आपका सौ खूनमाफ है । पर अगर आपहम जैसे बिना किसी राजनीतिक दल के टहनी के लट्के हुएलोग जैसे लट्के हुए हैं तो एक दिन ध्डाम से गिर जाएगें और उठाने वाला भी कोई नहीं होगा । ईस देश में यह बात बहुत मायने रखता है कि कौन आदमी कौन से राजनीतिक दल के छतरी के निचें है या किस राजनीतक दल नामक पेड के किस मजबुत शाखा पर बैठा हुआ है ।
आखिर छतरी ही तो किसी को भी बारिश से बचा सकता है और बाघ से पेड कि मजबुत शाखा बचाती है । ईसी लिए लोग कुछ बने न बने किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता अथवा किसी भातृ संगठन के सदस्य जरुर बन जाते है । क्यों कि जब तक जीवन है तब तक बहु सी समस्याओं का वैतर्णी पार करना होता है । ईसी लिए सारे गुंडे, मवाली किसी राजनीतिक दल के छोटे, बडे नेताओं के पिछलग्गू बन कर अपना जीवन कृतार्थ कर लेते हैं और अपने पाप कर्म पर गंगाजल डाल लेते हैं ।
अंधा क्या चाहे मिले तो दो आंख नहीं तो एक से ही काम चला लेगावह । उसी तरह कोई भी ईंसान पद और पैसा दोनो चाहता है । पर दोनों ही चिज न मिलने पर पद या पैसा में से एक को चून कर संतोष मान लेता है । जिसके पास पैसा है वह पद के लिए हाय, हाय करता है और जिसके पास पद है वह पैसे के लिए उल्टा। सिधा काम करता है । पैसा पद खरिद सकता है और पद में पहुंचते ही पैसा बनाने कि टक्सार विभाग का चाभी अपने आप मिल जाता है ।
सत्ता के गलियारें में यहीतो हो रहा है वर्षों सें । विभिन्न राजनीतिकदल और ईसके नेता गण पैसा खर्च कर के चुनाव जितते है और मंत्री पद मिलते ही फिर पैसा कमाना शुरु कर देते है । यह फुड अफ चैन जैसा ही सिस्टम है । राजनीति का अभिष्ट ही सत्ता या पद है । ईसी लिएतो जिस तरह एक नेशहीनबाईक चलाने का लाइसेंस ले लेता है उसी तरह किसी राजनीतिक दल के प्रभाव में रहने वाला शिक्षक भी कुछ लिखे या छपे बिनाही लेखक संघ का अध्यक्ष हो जाता है । ईसी को कहते हैं आखें नहीं पर चश्मा जरुर चांही । भले हीवहचश्माखोपडी में लगा ले पर चाहीं जरुर । (व्यग्ंय)