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भगवत गीता के इस दृष्टान्त से यह शिक्षा मिलती है कि श्रेष्ठ व्यक्ति भी कुसंगत से पाकर नष्ट हो जाता है । गीता में भगवान् कहते हैं– ‘अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्धार को और अपने को अधोगति में न डालें, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । भगवान् हमें विवेक दिया है ।



गलत आचरण होने में मुख्य कारण विषयों का आसक्ति ही है, आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, कामना की पूर्ति से लोभ और कामना में बिघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है । इसीलिए भगवान् ने कहा है– ‘काम, क्रोध और लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं ।
रवीन्द्र झा ‘शंकर’
श्रीमद्भागवत में कान्यकुब्ज नगर के एक शास्त्रज्ञ ब्राह्मण अजामिल का चरित्र वर्णन हुआ है । जो शील, सदाचार और सद्गुणों का खजाना था । वह ब्राह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रीय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेता और पवित्र था । उन्होंने गुरु, अग्नि, अतिथि और वुद्ध पुरुषों की सेवा की थी । वह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और यहाँ तक कि किसी के गुणों में दोष नहीं ढूंढ़ता था । एक दिन वह अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल–फूल, समिधा और कुश लेकर घर लौटा । लौटते समय उसने एक भ्रष्ट, कामि, निर्लज्ज शराबी शूद्र को किसी वेश्या के साथ दुष्कर्म करते देखा । जामिल काम से मोहित हो गया और उसका सदाचार और शास्त्र सम्बन्धित सभी चेष्टाएँ नष्ट हो गयी । वह वेश्या का गुलाम हो गया और उसने अपनी कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया । दासी के संगत से दूषित होने के कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था । वह पतित कभी बटोहियों को बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगों को जूए के छल से हरा लेता, किसी का धन धोखा–धड़ी से हरा देता, किसी का चुरा लेता । इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्ति का आश्रय लेकर वह अपने कुटुम्ब का पेट भरता था और दूसरे प्राणियों को बहुत ही सताता था ।
भगवत गीता के इस दृष्टान्त से यह शिक्षा मिलती है कि श्रेष्ठ व्यक्ति भी कुसंगत से पाकर नष्ट हो जाता है । गीता में भगवान् कहते हैं– ‘अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्धार को और अपने को अधोगति में न डालें, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । भगवान् हमें विवेक दिया है । उसके प्रकाश में देखना चाहिए कि हमारे लिए क्या उचित है तथा क्या अनुचित है ? हमें सदैव श्रेष्ठ व्यक्तियों– सा आचरण करना चाहिए तथा कभी कुसंग में नहीं पड़ना चाहिए । गलत आचरण होने में मुख्य कारण विषयों का आसक्ति ही है, आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, कामना की पूर्ति से लोभ और कामना में बिघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है । इसीलिए भगवान् ने कहा है– ‘काम, क्रोध और लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं । ये आत्मा को नाश करनेवाले हैं, अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।’
संसारिक भोगों के आसक्ति एवं संसारी वस्तुओं के संग्रह की रूचि महान् अनर्थकारी है । भोगों के आसक्ति रूचि महान् अनर्थकारी है । भोगों के आसक्ति एवं संग्रह की रूचि कभी मिट नहीं सकती । ज्यों–ज्यों भोग भोगते जाते हैं, रूपयों का संग्रह करते जाते है, त्यों–त्यों उनकी रूचि बढ़ती जाती है– ‘जिस प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’
भगवत गीता में वर्णन आता है कि राजा ययाति स्त्री के वश में होकर एक हजार वर्ष तक विषयों का भोग करते रहे, अपने पुत्र की युवावस्था ले ली, तब भी उनकी विषय भोगों को भोगने की इच्छा का शमन नहीं हुआ । अन्ततः उन्हें भोगों से विरागी नहीं हुआ । तब वे पश्चाताप करते हुए कहते हैं– ‘पृथ्वी में जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि) सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब के सब मिलकर भी उस पुरुष के मन को सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जी कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है । विषयों के भोगने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती, बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासनाएं भी भोगों से प्रबल हो जाती है ।
हमें यह भी नहीं मानना चाहिए कि भोग और संग्रह की रूचि नष्ट नहीं होती है । इतिहास में सैकड़ो–हजारों ऐसे दृष्टान्त हैं, जिन्होंने भोगों की रूचि का नाश करने के सम्बन्ध में आदर्श स्थापित किये हैं । स्वयं भगवत गीता में कहा है– ‘पहले भी जिन के राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए और जो मुझ में अन्यन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते हैं, ऐसे मेरे आश्रित रहनेवाले बहुत से भक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं ।
काम–क्रोधादि अन्तः करण के धर्म नहीं है, विकार है । इसलिए सत्संग–कुसंगत पाकर ये घटते–बढ़ते रहेते हैं । घटने–बढ़ने वाली चीज नाश को प्राप्त हो सकती है । काम–क्रोध के वश में रहनेवाले व्यक्ति ज्ञानि कहे जा सकते । जब तक हम में ये दोष हैं, तब तक हमें ज्ञान दोषों के नाश का प्रयत्न करते रहना चाहिए तथा दूराचारी व्यक्तियों का संग कभी नहीं करना चाहिए । जैसे अन्धे के पीछे चलने वाला अन्धा गढ़े में गिरता है, वैसे ही दुष्ट व्यक्तियों का अनुशरण करनेवाला पतित होता है । हमें सदैव सत्पुरुषों का संग करना चाहिए । क्योंकि सत्पुरुषों के सदुपदेश ही मन के आसक्तियों को मिटाते हैं । हम यह दृढ़ निश्चय कर लें कि कुसंग हमारा अधःपतन करनेवाला है ।



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