सक्रियता का रहस्य
पंकज दास
इन दिनों नेपाल की राजनीति में दो बातों की चर्चा सबसे अधिक हो रही है। क्या जेठ १४ गते देश को नयां संविधान मिलेगा – और दूसरा कहीं इस देश में फिर से किसी ना किसी रूप में राजतंत्र तो नहीं लौटेगा – इनमें पहला प्रश्न है जिसका उत्तर सभी नेपाली जनता को ही नहीं बल्कि अन्तर्रर्ाा्रीय समुदाय को चाहिए और दूसरा प्रश्न इस समय जो राजनीतिक परिस्थिति है उसके कारण और मजबूती से उभर कर सामने आ रहा है। हालांकि किसी भी राजनीतिक दल से पूछिए तो राप्रपा नेपाल को छोडकर बांकी सभी दलों का एक ही उत्तर है नहीं, यह कभी संभव ही नहीं है। लेकिन इस बात की आशंका सभी के मन में कहीं ना कहीं पनप रही है। आम जनता या अन्य बुद्धिजीवी वर्ग की बात करें तो उनका जवाब होता है कि यदि वर्तमान राजनीतिक दलों की यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं कि इस देश में फिर से राजतंत्र हावी हो सकता है।
जैसे जैसे जेठ १४ गते का दिन नजदीक आते जा रहा है वैसे वैसे दलों के रवैये से यह साफ हो रहा है कि इस बार भी समय पर संविधान जारी नहीं हो पाएगा। ऐसे में संविधान सभा भंग होगा या फिर र्सवाेच्च अदालत के आदेश के विपरीत हमारे देश के नेता अपनी मनमानी करते हुए संविधान सभा का कार्यकाल बढा लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो फिर क्या होगा – क्या पर्ूव राजपरिवार की भूमिका बढÞ जाएगी – क्या पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र इसका फायदा उठाते हुए कोई कदम तो नहीं उठाने वाले हैं – ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि इन दिनों उनके र्समर्थक नेता और पर्ूव दरबारिया लोगों की भाषा कुछ इस तरह के ही संकेत दे रही है। इसी बीच सुदूरपश्चिमाञ्चल के जिलों में अपने भ्रमण के दौरान पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र ने इस बात के साफ संकेत दिए है कि जेठ १४ गते यदि संविधान जारी करना है तो राजसंस्था को किसी न किसी रुप में स्वीकार करना ही होगा । क्योंकि यह आम नेपाली जनता की भावना है । हाँलाकि ज्ञानेन्द्र ने जेठ १४ गते तक राजनीतिक दलों के द्वारा लिए जाने वाले फैसले पर नजर बनाए रखने और इन्तजार करने की भी बात कही है । लेकिन जिस तरह से पहिली बार र्सार्वजनिक अभिव्यक्ति के दौरान पर्ूवराजा ने राजसंस्था को सक्रिय किए जाने या नये संविधान में किसी न किसी रुप में उसे स्थान दिए जाने की स्पष्ट वकलात की है । उससे साफ जाहिर होता है कि ज्ञानेन्द्र की मनसाय एक बार फिर से राजसंस्था को जीवित करने की है । दूसरी तरफ राजतंत्र र्समर्थक राजनीतिक दलों का एकीकरण, ज्ञानेन्द्र का धार्मिक भ्रमण के नाम पर यात्रा, माओवादी नेताओं का राजा को सांस्कृतिक रूप से रखने की वकालत करना कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनको नेपाली लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता है।
एक ओर तो राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री सहित सभी बडÞे दलों के शर्ीष्ा नेता जेठ १४ गते ही संविधान जारी किए जाने का दावा कर रहे है, वही उपराष्ट्रपति परमानन्द झा की ताजा अभिव्यक्ति इस पर सन्देह करने के लिए काफी है । पत्रकारों से बातचीत में उपराष्ट्रपति झा ने दलों को यह सन्देश दे दिया है कि यदि जेठ १४ गते संविधान जारी नहीं होता है तो राजसंस्था फिर से सक्रिय हो जाएगी और राजनीतिक दलों की असफलता पर नेपाली जनता ने यदि राजतन्त्र को फिर से स्वीकार कर लिया तो सभी दलों के लिए उसे मानना अनिवार्य ही होगा । उपराष्ट्रपति ने जेठ १४ गते संविधान जारी होने में सन्देह व्यक्त किया है । और दाबे के साथ कहा है कि जिस तरह से राजनीतिक दलों का रवैया दिख रहा है, उससे किसी भी हालत में जेठ १४ गते संविधान के जारी होने की स्थिति नहीं दिखती है ।
भ्रम फैलाने की कोशिश
पिछले महीने १५ दिनों तक भारत भ्रमण पर रहे पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र ने भारत लौटते ही अपने कुछ करीबी लोगों को बुलाकर कहा कि उनकी मुलाकात सोनियां गांधी और भारतीय प्रधानमंत्री डाँ मनमोहन सिंह से भी हर्ुइ थी। हालांकि इस मुलाकात के बारे में भारत की तरफ से कोई भी औपचारिक जानकारी नहीं दी गई। लेकिन नेपाल की कुछ मीडिया में इस बात को इस कदर उछाला गया मानो भारत ने राजतंत्र को वापस लाने के लिए ज्ञानेन्द्र को सहयोग करने की वचनबद्धता ही जाहिर कर दी हो। लेकिन सत्यता यह नहीं है। इससे पहले भी ज्ञानेन्द्र कई भारत भ्रमण पर जा चुके हैं और हर बार यही अफवाह नेपाल की मीडिया में उछाला जाता है। इससे पहले के किसी भ्रमण में स्वयं पर्ूव राजा के द्वारा यह नहीं कहा जाता था कि भारतीय प्रधानमंत्री से या फिर भारतीय कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी से उनकी मुलाकात हर्ुइ।
यह पहली बार है जब ज्ञानेन्द्र की तरफ से ही यह बात मीडिया में फैलायी जा रही है। दिल्ली भ्रमण से लौटने के अगले दिन ही ज्ञानेन्द्र ने अपने कुछ निकटवर्ती लोगों को निर्मल निवास बुलाकर कहा कि माघ ११ गते उनकी मुलाकात सोनिया गांधी से १० जनपथ में हर्ुइ थी। इस मुलाकात के दौरान ज्ञानेन्द्र ने नेपाल की राजनीतिक अवस्था के बारे में श्रीमती गांधी को अवगत कराने के अलावा अपने अनुभव के बारे में भी उन्हें बताया था। सूत्रों की मानें तो ज्ञानेन्द्र इस बारे में कह रहे हैं कि सोनिया गांधी को उन्होंने बताया कि नेपाल में संविधान बनने की अवस्था काफी कम है और बार बार संविधान सभा का कार्यकाल बढाने के बाद भी संविधान का काम पूरा नहीं हुआ है। नेपाल में लोकतांत्रिक शक्तियां कमजोर होती जा रही हैं और इससे माओवादी के एजेण्डे वाला संविधान नेपाल में लागू किए जाने का खतरा बढÞ गया है। यदि ऐसा हुआ तो इसका असर भारत में भी पडÞने की संभावना है। इसलिए भारत को इस बारे में सचेत रहना चाहिए। नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता, बढÞती जातीय और क्षेत्रीय मतभिन्नता का भी नकारात्मक असर भारत पर पडÞने की बात ज्ञानेन्द्र ने बताई। इसी तरह ज्ञानेन्द्र ने भारतीय प्रधानमंत्री से मुलाकात के बारे में भी अपने विश्वासपात्र को बताया और यह भी कह रहे हैं कि उन्हें यह कहा गया है वो नेपाल में अपना ग्राउण्ड बनाएं और जनता का विश्वास जीतें तब भारत उनको सहयोग करेगा।
ये तमाम बातें नेपाल में भारत विरोधी मिडिया द्वारा भ्रम की स्थिति फैलाने के लिए की जा रही है। और इन बातों को इसलिए भी हवा मिल गई क्योंकि जिस समय ज्ञानेन्द्र दिल्ली में राजनीतिक मुलाकातों के लिए प्रयास कर रहे थे उसी दौरान एक कार्यक्रम में भारतीय राजदूत जयन्त प्रसाद ने कहा कि नेपाल में संविधान निर्माण का काम सहमति से होना चाहिए और इसके लिए देश की सभी शक्तियों को एक होने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्रवादी शक्ति, गणतंत्रवादी शक्ति, मधेशी शक्ति, राजावादी, आदिवासी जनजाति सभी के एकजूट होने पर ही एक अच्छे संविधान का निर्माण होगा और तब जाकर संविधान को देश की जनता और सभी वर्गाें की मान्यता मिलेगी। भारतीय राजदूत के इस बयान को नेपाल की मीडीया ने कुछ इस तरह से उछाला जैसे मानो भारत ने राजतंत्र की ही वकालत कर दी हो और पर्ूव राजा को फिर से नेपाल में सक्रिय होने के लिए अपनी हरी झण्डी दे दी हो। भारतीय राजदूत जयन्त प्रसाद के इस बयान को सहमति के नाम पर संविधान जारी किए जाने का भारतीय सल्लाह और सुझाव के रूप में लेने की बजाय इसको कुछ और ही रंग दिया गया। यह महज संयोग ही था कि भारतीय राजदूत जयन्त प्रसाद का ऐसा बयान आना और पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र का दिल्ली में सक्रिय होना एक ही समय था। इसलिए लोगों में यह भ्रम फैलता गया कि भारत सरकार नेपाल में राजतंत्र की पर्ुनर्बहाली और ज्ञानेन्द्र को सक्रिय करने की रणनीति में है। जबकि बहुतों बार भारत सरकार, भारतीय विदेश मंत्रालय और भारतीय राजदूत के तरफ से यह साफ किया जा चुका है कि नेपाल में सहमति के आधार पर समय पर ही संविधान का निर्माण हो और यहां लोकतांत्रिक पद्धति की सरकार बने, नेपाल के विकास में भारत यथासंभव मदत करने के लिए हमेशा तैयार है। नेपाल में भारत के पर्ूव राजदूत, पर्ूव विदेश सचिव और भारतीय प्रधानमंत्री के सल्लाहकार समेत रहे श्याम सरण कहते हैं कि ‘नेपाल के लिए भारत की एकमात्र रणनीति है नेपाल की जनता की भावनाओं का सम्मान। नेपाल की जनता जो फैसला करेगी भारत हमेशा ही उसी के पक्ष में है। और नेपाल की जनता ने महान आन्दोलन के जरिये राजतंत्र को उखाड फेंका है और लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना की है इसलिए भारत भी इसी का र्समर्थन करता है। और ऐसा लगता नहीं कि नेपाल में राजतंत्र की पर्ुनर्बहाली संभव है किसी भी रूप में।’
पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र एक और बात हमेशा ही अपने निकटवर्ती लोगों को कहते हैं कि २०६२-६३ के जनान्दोलन के बाद जब देश में शासन व्यवस्था के परिवर्तन की बात चल रही थी उस समय भी भारतीय दूत बनकर आए कांग्रेस के नेता कर्ण्र्ाासंह ने उन्हें आश्वासन दिया था कि राजतंत्र को किसी ना किसी रूप में स्थापित करने के लिए भारत मद्द करेगा। लेकिन इस बात में भी कितनी सच्चाई है इस बात का विश्लेषण करना भी जरूरी है। यदि भारत ऐसा चाहता तो क्यों सभी राजनीतिक दल और तात्कालीन व्रि्रोही गुट माओवादी के बीच लोकतंत्र की पर्ुनर्बहाली के लिए अपने यहां ७ सूत्रीय समझौता होने देता। इसलिए इस तर्क में कोई दम नहीं है कि भारत ने ज्ञानेन्द्र को किसी भी रूप में स्थापित करने का आश्वासन भी दिया हो। हां इस बात की संभावना है कि उस समय के दल के नेता रहे गिरिजा कोइराला माधव नेपाल या फिर प्रचण्ड ने उन्हें आश्वासन दिया होगा यह बात अलग है। लेकिन इस बात को भारत के साथ जोडकर ज्ञानेन्द्र बडी राजनीतिक चाल चल रहे हैं।
चीन से करीबी रिश्ते
ज्ञानेन्द्र और भारत का संबंध किस वजह से बिगडा। इस पर राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि जिस समय ज्ञानेन्द्र ने भारत को बिना विश्वास में लिए ही चीन को र्सार्क देशों के संगठन में पर्यवेक्षक की भूमिका का प्रस्ताव किया और बनवाया। दक्षिण एशियाई देशों के इस संगठन में चीन के प्रवेश से भारत उस समय नाखुश था। भारत के कई बार समझाने पर भी ज्ञानेन्द्र ने चीन को पर्यवेक्षक बनवा दिया था। भारत के साथ उसी समय से संबंध और अधिक बिगड गया। हालांकि भारत नेपाल में ज्ञानेन्द्र के प्रत्यक्ष शासन अपने हाथ में लेने से भी नाखुश था। और चीन को र्सार्क में पर्यवेक्षक की भूमिका में रखने के प्रस्ताव ने आग में घी का काम किया। जो कि ज्ञानेन्द्र के सत्ताच्युत होने का प्रमुख कारण बना। ज्ञानेन्द्र को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि नेपाल के तमाम राजनीतिक दल भारत के प्रति सदाशयता रखते हैं और उसके द्वारा कही जाने वाली बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। इसीलिए अब ज्ञानेन्द्र भी भारत के शरण में जाने से ही उनकी खोई हुआ सत्ता प्राप्त होने या नेपाल की राजनीति में कोई महत्वपर्ूण्ा स्थान मिलने की उम्मीद में यह सब दांव खेल रहे हैं। कहने के लिए तो ज्ञानेन्द्र भारत की यात्रा करने और भारतीय नेताओं से मिलने की बात र्सार्वजनिक रूप से कहते रहते हैं और मिडिया के जरिये भी इन बातों को बाहर लाते रहते हैं लेकिन चीन से उनकी नजदीकी अभी भी बनी हर्ुइ है। चीन से आने वाले दूतों से भी उनकी मुलाकात होती रहती है। इतना ही नहीं चीन के अलावा अन्य विदेशी राजदूतों और उन देशों से आने वाले मंत्रियों और आला अधिकारियों से भी वो अपना संबंध बरकरार रखे हुए हैं। अमेरिका, आँष्ट्रेलिया, कनाडा और यूरोपीय यूनियन देशों के राजदूतों से भी ज्ञानेन्द्र अक्सर मिलते रहते हैं।
सक्रिय राजनीति में आने की तैयारी
संविधान सभा की समय सीमा खत्म होने की तारीख जैसे जैसे पास आती जा रही है वैसे वैसे ही पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र की सक्रियता भी बढÞती जा रही है। जेठ १४ गते संविधान जारी नहीं होने पर संविधान सभा के स्वतः भंग होने का आदेश र्सवाेच्च अदालत ने दे ही दिया है। दलों के बीच प्रमुख मुद्दे पर अभी तक सहमति नहीं बन पाई है और जिस तरह से दलों का रवैया दिख रहा है उस तरह से सहमति होने के कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में ये सभी बातें ज्ञानेन्द्र के लिए अच्छी खबर है। दलों के बीच इसी मतभिन्नता का फायदा उठाते हुए पर्ूव राजा अपनी सक्रियता बढÞा रहे हैं। और उनकी तकदीर कहिए कि राजनीतिक दलों का जो रवैया और जनता के प्रति उनका व्यवहार रहा है वह भी ठीक नहीं होने से जनता के मन में भी दलों और नेताओं के प्रति वितृष्णा फैल रही है। ऐसे में जनता के मन में अपनी छबी बनाने और पुरानी बातों के बदले नए तरह से जनता उन्हें स्वीकार करे इसलिए ज्ञानेन्द्र जनता के बीच जा रहे हैं उनका दुख दर्द सुन रहे हैं।
पिछली बार जनकपुर से धार्मिक यात्रा शुरू करने वाले ज्ञानेन्द्र वीरगंज, नेपालगंज आदि स्थानों पर गए थे। लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए उन्होंने धार्मिक रास्ता अपनाया है। उन्हें मालूम है कि जिस देश में जातीय क्षेत्रीय और भाषायी नाम पर लोगों में वैमनस्यता फैलाई जा रही है वहां सिर्फधर्म ही एकमात्र ऐसा रास्ता है जिसके सहारे लोगों को एकजूट कर अपने पक्ष में किया जा सकता है। इसलिए अपने धार्मिक भ्रमण का दूसरा चरण भी उन्होंने शुरू कर दिया है। इस बार सुनसरी के झुम्का से शुरू हर्ुइ उनकी यात्रा जुम्ला, धनगढी, महेन्द्रनगर, नेपालगंज और दीपायल में सम्पन्न हुआ ।
इसके अलावा अपने र्समर्थन में रही राजनीतिक दलों को भी पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र ने एकीकरण करने के लिए दबाब बनाया है। पर्ूव पंचों की पार्टर्ीीहे जाने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टर्ीीराष्ट्रीय जनशक्ति पार्टर्ीीौर राप्रपा नेपाल के बीच एकीकरण में पर्ूव राजा की भूमिका के बारे में आए दिन अखबारों में समाचार आता ही रहता है। उधर अन्य दलों में भी अपने प्रति सहानुभूति रखने वाले नेताओं से भी लगातार सर्ंपर्क कर पर्ूव राजा अपने लिए जगह बनाने में जुट गए हैं। अपने पक्ष में थोडी भी सहानुभूति रखने वाले लोकतांत्रिक धार के नेताओं से भी मिलकर ज्ञानेन्द्र अपने पक्ष में हवा बनाने में लगे हुए हैं। पर्ूव राजा ज्ञानेन्द्र की रणनीति यह है कि इन नेताओं से अपने पक्ष में बयान दिलवाना जिससे किसी ना किसी रूप में उन्हें भी सक्रिय राजनीति में स्थान हासिल हो सके। विभिन्न दलों के नेताओं से मुलाकात के दौरान ज्ञानेन्द्र यह कहना नहीं भूलते कि प्रजातांत्रिक शक्तियों के एकजुट होने के पक्षधर हैं और इसके लिए हमेशा ही वो सहयोग करने के लिए वचनबद्ध भी हैं।
इस तरह से पूरी योजना के साथ और कई मोर्चाें पर एक साथ पर्ूव राजा ने अपने पक्ष में माहौल बनाने का काम शुरू कर दिया है। नारायणहिटी से बाहर जाने के बाद खामोश बैठे और कोई भी प्रतिक्रिया नहीं करने वाले ज्ञानेन्द्र की खामोशी भी अब खत्म हो रही है और जनता को लुभाने वाले भाषण भी वो दे रहे हैं। मिडीया के जरिये अपनी बात रख रहे हैं और जनता की नब्ज भी टटोल रहे हैं। जेठ १४ गते के बाद की स्थिति का आकलन करते हुए वो अपनी पूरी रणनीति बनाने में जुट गए हैं। अपने भ्रमण के दौरान दिखने वाली भीड को अपने र्समर्थन में होने की भूल कर रहे हैं। इतने सालों तक जनता से दूर रहने और अपने शासन के दौरान आम जनता तो दूर की बात है बडे मंत्रियों तक से मिलने से परहेज करने वाला शासक यदि सत्ता से बाहर जाने के बाद सीधे सडकों पर ही उतर आए तो जनता तो देखना चाहेगी ही कैसा था हमारा पर्ूव शासक। और नेपाल में तो राजसंस्था के प्रति लोगों में खास सम्मान हुआ करता था। लेकिन वह ज्ञानेन्द्र के प्रति तो बिलकुल भी नहीं था। लोगों के मन में आज भी अपने पर्ूव राजा वीरेन्द्र के वंश नाश की वह वीभत्स काली रात की यादें ताजा है और इस सामूहिक नरसंहार में ज्ञानेन्द्र की संदिग्ध भूमिका के बारे में आम नेपाली जनता के मन में आज भी आंशकाएं भरी हर्ुइ हैं। ऐसे में जब ज्ञानेन्द्र सडकों पर जनता के बीच जाने का प्रयास कर रहे हैं और उन्हें देखने के लिए सैकडों लोगों की भीड सडक पर इकठ्ठा होती है तो इस बात को देख कर ना तो ज्ञानेन्द्र को और ना ही उनके र्समर्थकों को यह गलतफहमी होनी चाहिए कि भीड उनके र्समर्थन में है। नेपाली जनता ने सदियों से चली आ रही लर्डाई के बाद और सैकडों लोगों की शहादत के बाद ही गणतंत्र हासिल किया है और इस गणतंत्र को फिर से निरंकुश लोगों के हाथ में नहीं सौंप सकती है। अगर किसी नेता या दल या फिर स्वयं ज्ञानेन्द्र को इस बात का भ्रम हो कि उनका शासन फिर से लौट सकता है यह अब नामुमकिन है। हां उनके लिए एक ही रास्ता बचा है राजनीति में वो सक्रिय हो सकते हैं, चुनाव लडें और जनता के बीच से जीत कर जाएं और फिर इस देश पर शासन करें इस पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन निरंकुशता के जरिये मौके का फायदा उठाकर वो सत्ता पर काबीज होने या फिर किसी ना किसी रूप में राजतंत्र को जिन्दा करने का दुष्प्रयास कर रहे हैं तो उनके लिए यह घातक हो सकता है। ±±±