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संविधान जारी या संविधानसभा भंग –

हिमालिनी डेस्क
सर्वोच्च अदालत ने संविधानसभा के कार्यकाल को बढाए जाने के कानूनी रास्ते को बन्द कर दिया है। जेष्ठ १४ गते संविधानसभा से या तो संविधान जारी होगा या फिर संविधान सभा ही विघटन हो जाएगा। अदालत के द्वारा संविधानसभा के कार्यकाल पर जो फैसला पहले आया था, उसपर पुनर्विचार करने के सरकार और संसद के आग्रह को ठुकरा दिया है। सरकार की तरफ से प्रधानमन्त्री तथा संसद की तरफ से सभामुख सुवास नेम्वांग ने सर्वोच्च अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर करने की कोशिश की थी। लेकिन अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई करने से ही मना कर दिया है।
सर्वोच्च अदालत का कहना है कि संविधान सभा के कार्यकाल पर अब दुवारा विचार नहीं हो सकता है। सरकार व संसद की ओर से संविधान सभा के भंग होने के सर्वोच्च के आदेश के कारण संविधान लिखने का काम रुकने को कारण बताते हुए संविधान सभा के कार्यकाल को बढÞाने के लिए पहले के आदेश को बदलने की माँग की गई थी। लेकिन अदालत ने साफ कर दिया कि संविधान सभा के कार्यकाल संबंधी आदेश सर्वोच्च के प्रधान न्यायाधीश सहित ५ न्यायाधशों के विशेष इजलास के द्वारा दिया गया आदेश था, इसलिए वही आदेश अन्तिम है और उस पर किसी भी प्रकार का विचार फिर से नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च अदालत के इस फैसले के बाद अब राजनीतिक दलों के पास जेष्ठ १४ गते ही संविधान जारी करने या फिर संविधान सभा के भंग होने के आलावा दूसरा कोई विकल्प नजर नहीं आता है। सर्वोच्च अदालत के इस फैसले के बाद दलों के नेता संविधान बनाने पर तो गम्भीर नहीं दिख रहे हैं। लेकिन इसके विकल्प की तलाश में जरुर माथापच्ची करते नजर आ रहे हैं।
जेष्ठ १४ गते की संभावनाएं
भाषण में तो सभी दलों के प्रमुख नेता जेष्ठ १४ गते हर हाल में संविधान जारी करने का दावा कर रहे हैं लेकिन जिन मुद्दों को लेकर संविधान अभी तक नहीं बन पाया है, उन विवादित मुद्दों पर सहमति बनाने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
नये संविधान के लिए सबसे जटिल विषय है, संघीयता। संघीयता के बिना संविधान जारी हुआ तो इसके गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। क्योंकि माओवादी, मधेशी मोर्चा सहित अन्य कुछ दलों ने भी जनता के बीच संघीयता के बारे में इस कदर से माहौल बना दिया है कि जैसे संघीयता के बिना संविधान पूरा ही नहीं हो सकता है। लेकिन माओवादी १४ प्रदेशों की संघीयता चाहता है तो कांग्रेस एमाले ७ से ८ प्रदेश की ही संघीयता चाहते हैं। मधेशी मोर्चा एक मधेश, एक प्रदेश चाहता है तो राप्रपा नेपाल और जनमोर्चा जैसी पार्टियाँ संघीयता के ही विरोध में हैं। ऐसे में संघीयता पर सहमति जुटने की संभावना काफी कम है और संघीयता के बिना संविधान जारी हुआ तो देश में द्वन्द्व फैलने की पूरी सम्भावना है। इसी तरह न्याय प्रणाली, शासन प्रणाली और निर्वाचन प्रणाली पर भी सहमति नहीं बन पाई है। संविधान में होनेवाले सभी प्रमुख बातों पर सहमति होना अभी बाँकी ही है। ऐसे में संविधान जारी करने के लिए बचे सिर्फडेढ महीने में सहमति जुटने की कोई संभावना भी नजर नहीं आ रही है।
विकल्प की तलाश
सहमति नहीं बन पाने के बाद राजनीतिक दल अब इसके लिए विकल्प की तलाश में जुट गए हैं। यूँ तो संविधान के पूरी तरह लिख जाने के बाद भी उसपर चर्चा व बोटिंग के लिए ६ महीने का समय चाहिए। लेकिन अब प्रक्रिया को छोटी करने के लिए संविधान संशोधन कर कम से कम संविधान का कुछ अंश भी जारी करने की तैयारी हो रही है। ऐसे में नेताओं के पास कुछ विकल्प हैं। जिनपर अमल करने पर प्रमुख दल के शर्ीष्ा नेता विचार कर रहे हैं।
सिंविधान का प्रारम्भिक मसौदा पेश करना।
सिंघीयता को किनारे करते हुए संघीयता बिना का संविधान जारी कर संघीयता के बारे में र्सवदलीय समिति बनाकर उसपर बाद में निर्ण्र्ााकिया जा सकता है।
सिंविधान में संघीयता को लिखकर लेकिन उसके सीमांकन, नामांकन और आधिकार बँटवारे पर बाद में फैसला लिया जा सकता है।
७ि-८ प्रदेशों पर सहमति बनाकर उप प्रदेशों का बाद में निर्माण किए जाने की बात कहते हुए संविधान जारी किया जा सकता है।
इिस समय तक पूरे हुए कामों को ही जारी कर सर्वोच्च अदालत से कुछ और समय की माँग की जा सकती है।
रिाजनीतिक दल जो कि संविधान सभा और संसद को ही सर्वोच्च मानते हैं और अदालती आदेश को संसद पर हस्तक्षेप होन की बात कहते हुए अन्तरिम संविधान में संशोधन कर संविधान सभा का कार्यकाल बढÞा सकते हैं। ऐसा करने पर नेताओं का यह तर्क है कि अन्तरिम संविधान संशोधन करने के लिए सर्वोच्च अदालत के आदेश की कोई जरुरत नहीं है और ना ही अदालत ने इसके लिए मना किया है। ±±±

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