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हिन्दी साहित्य में नारी के बदलते रूप

 



तुम्हारे अधरों का रस पान,
वासना तट पर पिया अधीर ।
अरी ओ माँ हमने है पिया,
तुम्हारे स्तन का उज्ज्वलक्षीर।।

घृतकुम्भसमा नारी तप्तागारसमः पुमान। नारी घी का कुआँ है और पुरुष जलता हुआ अंगार। दोनों के संयोग से ज्वाला प्रज्वलित हो उठती है, यानी नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। नारी के बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं। पुरुष के अभाव में नारी का कोई मूल्य नहीं। दोनों का सम्बन्ध अभिन्न अखण्ड और अनादि है। आदिकाल से लेकर आज तक का भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि नारी किस प्रकार जीवन के क्षेत्र में पुरुष की अभिन्न सहयोगिनी के रूप में अपने नारीत्व को दीपित करती आयी है। नारी के सहयोग के अभाव में पुरुष ने सदा एकाकीपन अनुभव किया है और जहाँ भी सहयोगिनी के रूप में नारी प्राप्त हुई है वहाँ उसने अभिनव से अभिनव सृष्टि की है। नारी की इसी प्रतिभा से पराजित हो प्रसाद जी की श्रद्धा फूट पडी।

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में ।
पीयूष स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुन्दर समतल में ।
सारा का सारा भारतीय साहित्य नारी के विविध चित्रों से ओतप्रोत है। वास्तव में सत्य यह है कि जिस युग के समाज में नारी का जो स्थान था, उस युग के साहित्य में नारी उसी रूप में चित्रित की गयी है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज की सारी मान्यतायें, मर्यादायें उसके युग के साहित्य में स्वतः उभर उठती हैं। यही कारण है कि आदिकाल से लेकर आज तक साहित्य में चित्रित नारी के विविध रूप, अपने युग की नारी विषयक मान्यताओं के ही प्रतिरूप हैं।
भारतीय इतिहास का प्रारम्भ वैदिक युग से होता है। वैदिक युग भारतीय संस्कृति का उज्ज्वलतम युग था, उस युग में नारी का समाज में आदर था, वह पुरुषों के साथ ही जीवन के क्षेत्र में कन्धों से कन्धा मिलाकर कार्य करती थी। उसे पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे। गार्गी, मैत्रेय, विश्ववारा उस युग की ऐसी नारियाँ हैं, जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर ऋषियों का पद प्राप्त किया था।
तलवारों की झनझनाहटों के बीच हिन्दी साहित्य के वीर(गाथा काल ने विकास पाया। युद्ध होते, नारियों का अपहरण होता। राजपूत कुमारियों के सौन्दर्य से न जाने कितने हिन्दू राजवंशों का नाश हुआ। लेकिन स्त्रियों की पति(भक्ति इस काल की विशेषता है। पति का मानापमान स्त्री का अपना मानापमान था। पति के लिए अपने प्राणों पर खेल जाना उसके लिये साधारण सी बात थी। जिसमें उस युग का नारी गौरव, उसका तेज जैसे छलक उठा है। नारी कहती है –
भल्ला हुआ जु मरिया बहिरीया महारा कंतु ।
लज्जेज तु वयंसिअहु जइ भग्गा घर ऐतु ।।
अर्थात् हे बहिन भला हुआ जो मेरा कंत (पति) मारा गया। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं से लज्जित होती। परन्तु ऐसे चित्र कम हैं उन्हीं चित्रों का बाहुल्य है, जहाँ नारी ने अपने रूप की आग में राजाओं को झुलसा दिया है।
पृथ्वीराज चौहान ने राजकवि चन्द्र द्वारा रचित रुपृथ्वीराज रासोरु में ऐसा ही चित्र निम्नलिखित पंक्तियों में उभर उठा है, जिस समय गौरी पूजन के लिये गयी हुई पद्मावती पृथ्वीराज को देख उसे अपने हाव(भावों द्वारा मुग्ध कर देती है और जिसके परिणामस्वरूप उसका अपहरण होता है –
संगह सषिय लिय सहस बाल
रूकभिनिय जेम लज्जत भराल ।
पूजिअइ गौरी शंकर अनाथ,
दच्छिनइ अंगकारि लगिअ पाय ।
फिर देषि देषि पृथ्वीराज राज,
हंस मुद्ध मुद्द चर पह लाज ।
यह थी वीरगाथाकाल की नारीरूप की साक्षात् प्रतिमा, समस्त दुस्साहसों का मूल स्रोत। वीरगाथाकाल के नारी का यही रूप उभर सका, शेष सब उसके सौन्दर्य की आग में झुलस गये, कवियों को उनमें कोई आकर्षण न दिखाई दिया।
भक्तिकाल का प्रारम्भ निर्गुण सन्तों की वैराग्यपूर्ण उक्तियों द्वारा हुआ। इस काल में आचार की शुद्धता पर विशेष जोर दिया गयास इसलिए सन्तों ने साधना के पथ में नारी को बाधा स्वरूप माना, उसे माया ठगिनी आदि विशेषणों से विभूषित किया। नारी जीवन के उज्ज्वल पक्ष इन सन्तों की दृष्टि से अपरिचित रहे। कबीर की निम्नांकित पंक्तियाँ सन्तों की नारी सम्बन्धी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं(
माया महाठगिनी हम जानी ।
निरगुन फांसि लिये कर डोले, बोलै मधुरी बानी ।
नारी तो हम भी करो, नाना नहीं विचार ।
जब जाना तब परिहरि, नारी बडा विकार ।
नारी की झांई परत, अन्धा होत भुजंग ।
कबिरा तिनकी कौन गति, नित नारी को संग ।।
कबीर ने नारी के ऐसे चित्र क्यों दिये ? केवल इसीलिये कि उस युग में नारी भोग की वस्तु ही समझी जाती थी, उसके गौरवमय पक्षों को भुला दिया गया था। कबीर सन्त थे, उन्होंने जनता को नारी की वासनात्मक पक्ष की ओर देखने से सचेत किया। वैसे उन्होंने नारी के प्रति घृणा नहीं प्रदर्शित की। पतिव्रता नारियों की उन्होंने प्रशंसा की है और सबसे बडी बात तो यह कि स्वयं को राम की बहुरिया माना है। सती कौ अंग, विरहणी, पतिव्रता आदि रूपों का सम्मान किया।
सूर की राधा प्रणय एवं समर्पण की सौगात है। वह जीवन के समस्त बन्धनों, आकर्षण और सुखों से मुक्त होकर चिरन्तर पुरुष की प्रेमिका बनकर उसको पाने के लिये लालायित हो उठती है। उनके लिये हरि हारिल की लकडी के समान हैं –
अखियाँ हरि दरसन की भूखी ।
सूर की राधा में विश्वभर की प्रेमिकायें मान मनुहार करती हैं। यशोदा में विश्व की माताओं की करुणा, वात्सल्य किसी को प्यार करने के लिये लहर उठती है। सूर ने गोपियों की तन्मयता एवं प्रेमासक्ति में हृदय की रागात्मक अनुभूतियों का सजीव चित्रण प्रस्तुत करके नारी जाति के गौरव को उन्नतिशील बनाया है।
तुलसी ने सीता के अतिरिक्त कौशल्या, मन्दोदरी और अनुसूया आदि नारी के आदर्श गुणों की भूरि भूरि प्रशंसा की है और उन्हें समाज का गौरव सिद्ध किया है किन्तु जहाँ भी नारी उन्हें अपने वास्तविक पद से गिरती हुई दिखाई पडी है वहीं उन्होंने उसकी घोर निन्दा की है।
डॉ माता प्रसाद गुप्त ने लिखा है कि प्रत्येक युग के कलाकार नारी चित्रण में प्रायः उदार पाये जाते हैं। किन्तु नारी चित्रण में तुलसी बेहद अनुदार हैं, लेकिन उनका यह ख्याल गलत है जिस कवि ने सीता जैसी नारी का चित्रण कर उसे जगत् जननी का पद दिया, वह नारी जाति के प्रति निन्दनीय विचारधारा कदापि नहीं रखता था। फिर तुलसी को तुलसीदास बनाने वाली भी तो एक नारी ही थी – उनकी पत्नी रत्नावली, जिसने धक्के देकर उन्हें राम के वास्तविक महत्त्व से परिचित कराया था। तुलसी रत्नावली के इन शब्दों को कदाचित् क्यों न भूले होंगे –
अस्थि चरम मय देह मम, तासे जैसे प्रीति ।
वैसी जो श्रीराम में, होत न तो भवभीति ।।
ऐसी दशा में तुलसीदास के विषय में यह धारणा रखना पर्याप्त भ्रामक होगा कि उन्होंने नारी जाति की निन्दा की है, उसके प्रति अनुदार रहे हैं। उन्होंने नारी जीवन की वेदना के प्रति अपनी सबसे गहरी सहानुभूति इन पंक्तियों में प्रकट की है –
कत विधि सृजी नारि जग माहि,
पराधीन सपने हूँ सुख नाहीं ।
रीतिकालीन कवियों ने नारी के मातृत्व पक्ष की उपेक्षा करके उसके वासनात्मक पहलू को चमकीले रंगों से रंगा है। बाह्य सौन्दर्य से अभिभूत हो नारी के विकृत चित्र खींचे सर्वत्र नारी के अन्तः सौन्दर्य की अवहेलना की। मातृत्व से देवी होने पर भी उसे सुरति, सुखिन सी देखा। कहीं उसे काम की नटिका, पगडी शभदान एवं नवग्रह की माला बनाया तो कहीं कै गई कोटि करेजन के कतरे कतरे पतरे करिहां की के रूप में नश्वर के समान ठहराया। रीतिकालीन नारी में झुलसता रहा। सामाजिक मर्यादा से शून्य नारी अपनी ही चकाचौंध में झुलसती रही।
आधुनिक काल में भारतेन्दु ने नारी को बन्धन से निकालकर नील देवी जैसी क्षत्राणी के रूप में उसके व्यक्तित्व को स्वीकार कर उसे प्राणों की रागिनी एवं दीप्ति की प्रतिभा घोषित किया। गुप्त जी एवं हरिऔध ने युगोंयुगों से अभिशप्त नारी के प्रति संवेदना प्रकट करते हुए अपनी श्रद्धा के सुमन चढाये। उनकी राधा कहती है
प्यारे जीवें जग हित करें,
गेह आवें न आवें।
गुप्त जी ने लिखा है –
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को प्राणों के पण में
हमी भेज देती है रण में, क्षात्र धर्म के नाते ।।
अबला जीवन हाय । तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।।
छायावाद के युग में नारी अस्तित्व केवल भावुकता, सौन्दर्य कल्पना एवं अतीन्द्रिय चित्र प्रस्तुत करने का साधन बना। इससे जीवन के स्पन्दन से वह बहुत दूर जा पडी। फिर भी उसके मातृत्व, सहचरीत्व एवं देवत्व की सदैव अर्चना की गयी और उसे भूल करने में कल्याण दिख पडा
मुक्त करो नारी को मानव चिर वन्दिनी नारी को।
युग युग की निर्मम कारा से जननी सखि प्यारी को।
प्रसाद जी की नारी सार्वजनिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। कवि की भौतिक प्रतिभा ने नारी को पुरुष की प्रेरणा एवं शक्ति रूप में चित्रित किया। दिनकर जी ने भी नारी की प्रतिभा की भूरी भूरी प्रशंसा की।
तुम्हारे अधरों का रस पान,
वासना तट पर पिया अधीर ।
अरी ओ माँ हमने है पिया,
तुम्हारे स्तन का उज्ज्वलक्षीर।।
नारी के आदर्शों को देखकर आज के युग की पुकार है कि हमें रीतिकालीन(युग की वासनात्मक नारी नहीं चाहिए, हमें आदर्श माँ चाहिए। हमें विश्वास है कि आज के जागरूक कवियों द्वारा नारी जीवन के आदर्श रूपों की सृष्टि होगी जो सदियों से पीडत नारी को मुक्त कराने में, उसकी भावना को अभिव्यक्ति करेंगे और तभी मनु की वह युक्ति भी चरितार्थ हो सकेगी – यत्र नार्यस्तु पूज्यते।

साभार  हिन्दी साहित्य



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