Mon. Jan 13th, 2025

गुरू के त्याग और तप को समर्पित है गुरू पूर्णिमा : विनोदकुमार विश्वकर्मा

विनोदकुमार विश्वकर्मा

विनोदकुमार विश्वकर्मा : आज गुरू पूर्णिमा अर्थात् जीवन को नई दिशा देने वाले गुरू को सम्मान देने का खास दिन । बताया जाता है कि आषाढ़ पूर्णिमा को आदि गुरू वेद व्यास का जन्म हुआ था । उनके सम्मान में ही आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है । गुरू पूर्णिमा गुरू के प्रति श्रद्धा व समपर्ण का पर्व है । यह पर्व गुरू के नमन एवं सम्मान का पर्व है । मान्यता है कि इस दिन गुरू का पूजन करने से गुरू के दीक्षा का पूरा फल उनके शिष्यों को मिलता है । गुरू शब्द में ‘गु’ का अर्थ होता है ‘अन्धकार’ और ‘रू’ का अर्थ होता है ‘प्रकाश’ । गुरू हमें अज्ञानरूपी अन्धकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाते हंै । भावी दिन का निर्माण गुरू द्वारा ही होता है ।
गुरू को गुरू इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन शलाका से निवारण कर देता है । गुरू जगमगाती ज्योति के समान हैं, जो शिष्य की बुझी हुई हृदय–ज्योति को प्रकट करते हैं । गुरू मेघ की तरह ज्ञान वर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं । गुरू ऐसे वैद्य हैं, जो भावरोग को दूर करते हैं । गुरू अभेद का रहष्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं । इस दुःखरूप संसार में गुरूकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है, जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है । गुरू को मान की चेतना का कर्मज्ञ माना गया है ।
गुरू को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है । सिख धर्म की एक कहावत निम्न है— ‘गुरू गोविन्द दोउ खडेÞ काके लागू पांव, बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय ।’ शास्त्रों में भी गुरू को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों — ब्रह्मा, बिष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है । गुरू की महत्ता को हम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते हैं । कवीरदास जी गुरू का महत्व बताते हुए कहते हैं कि — मेरा गुरू भांैरी के समान है जिस प्रकार भौंरी अपने गुंजन से किसी भी कीड़े को अपने समान भौंरी बना देते हैं उसी प्रकार मेरा गुरू भी अपने उपदेशों से शिष्यों को अपने समान बना देता है । मै कीडेÞ के समान था, पर गुरू ने मुझे अपनी शरण में लेकर अपने उपदेशों से भ्रृंगी बना दिया ।
जीवन में गुरू और शिक्षक के महत्व को आने बाली पीढ़ी को बताने के लिए यह पर्व आदर्श है । गुरू पूर्णिमा अन्धविश्वास के आधार पर नहीं बल्कि श्रद्धा भाव से मनाना चाहिए । आज राष्ट्र को ज्ञानबान, प्रकाशवान तथा शक्तिवान बनाने के लिए चिर प्राचीन गुरू–शिष्य परम्परा की पुनरावृत्ति की नितान्त आवश्यकता है । इसके बिना शाश्वत आनन्द की अनुभूति तो दूर शान्तिमय जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसमें कुछ देर भले ही लगे, किन्तु आत्मा की ज्ञान–पिपासा को अधिक दिन तक भुलाया नहीं जा सकता । गुरू पर्व ही उसे जगाने का शुभ मुहूर्त है । अन्त में —
‘तुमने सिखाया ऊंगली पकड़ कर हमें चलाना,
तुमने बताया कैसे गिरने के बाद संभलना,
तुम्हारी वजह से आज हम पहुँचे इस मुकाम पे,
गुरू पूर्णिमा के दिन करते है आभार सलाम से ।

About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

WP2Social Auto Publish Powered By : XYZScripts.com
%d bloggers like this: