वर्त्तमान संसद मधेश को बिलकुल और बिलकुल उपेक्षा करनेबाली है : बृषेश चन्द्र लाल
बृखेष चन्द्र लाल, जनकपुरधाम | राजपा नेपाल स्थानीय चुनाव में भाग लेने का निर्णय किया है ।
पीड़ा सभी के मन में है । मेरे मन में भी । जो उत्साहित हैं उनके मन में भी कहीं न कहीं पीड़ा तो है । अगर वास्तव में किसी के मन में बिल्कुल नहीं है, तो पक्का समझ लो गड़बड़ है । एजेन्डा से उसे लेना देना नहीं है ।
फिर भी पार्टी का निर्णय शिरोधार्य !
हमारा एजेन्डा सशक्त है । एक लब्ज में कहा जाय तो बराबरी का है यह, कभी छोड़ा नहीं जा सकता ।
लाखों मधेशी सडक पर उतरे । सैकडौं ने जीवन न्योछावर किया । मगर मधेशीयों के पास का राजनीतीक तागत तितरबितर है । पहले मधेश का प्रतिनिधित्त्व खस के माध्यम से होता था । खस नेता ही मधेश से चुन कर संसद में जाते थे । जब से आन्दोलनकारी सडक पर हैं, परिवर्तन यह हुआ कि अब खस पार्टीयाँ मधेश में नियुक्त अपने दत्तक पुत्रों को अपनी सीटें मजबूर हो कर दे दी है जो मधेश और मधेशी के मुद्दों से ऐन मौकों पर कन्नी काट लेते हैं । लात मार देते हैं । हरदम भ्रमित करते रहते हैं ।
सत्य यह कि हमारे पास पर्याप्त राजनीतिक शक्ति नहीं है जिससे संवैधानिक परिवर्त्तन कर बराबरी लिया जा सके । संविधान संशोधन एक प्रयास था जो नहीं हो सका । क्यों नहीं हुआ ? क्योंकि –
• वर्त्तमान संसद मधेश को बिलकुल और बिलकुल उपेक्षा करनेबाली है ।
• वर्त्तमान अवस्था में संसदीय प्रणाली से मधेश के मुद्दों का सम्वोधन नहीं
होने की स्थिति लगती है ।
• शासकों के हृदय में शहादत और शान्तिपूर्ण आन्दोलन के प्रति
संवेदनशीलता नहीं है ।
• संघर्ष के अन्य विकल्प हमारे लिए भूराजनैतिक अवस्थिति के कारण
प्रतिकूल है ।
• यहाँ के सभी शासक और प्रतिपक्षी दल भारत-चीन के प्रतिद्वन्द्विता को
मधेश पर वर्चस्व के निरन्तरता के लिए प्रयोग करते हैं । अपने स्वार्थ के
लिए ये दोनों देश शासक और प्रतिपक्ष को सहयोग कर देते हैं ।
ऐसे में क्या किया जाय ? हम सड़क पर बराबरी के लिए गोली खाते रहें या आन्दोलन के साथ जनता का शक्ति एकत्रित करने का भी प्रयास करें । राजपा नेपाल का निर्णय इन परिस्थितियों में देखा जाना चाहिए ।
कमजोरीयाँ हम में भी है । हम आमलोग भी खस षडयन्त्रों से भ्रमित हो जाते हैं । स्वार्थ के आगे सब कुछ भूल जाते हैं । कमजोर कड़ी हर जगह है । जनता में, कार्यकर्ता में और नेतृत्त्व में भी । जो जीता वही सिकन्दर ! पराजित का संघर्ष चाहे जितना हो हीरो वे नहीं बनते ।
कुछ लोग कहते हैं, संशोधन प्रस्ताव निर्णयार्थ प्रस्तुत नहीं करना चाहिए । तो क्या करना ठीक था ? भूलभूलैये में पड़े रहना ? अरे अगर संसफो एकाएक पैंतरा नहीं बदल लेता, तो संशोधन से पहले चुनाव नहीं होता और संशोधन हो कर रहता । मधेश आन्दोलन के पीठ में छूरा था वह । भलें ही वो खुश हों मगर यह करतूत इतिहास में काला क्षण ही होगा । असफल हो गया है मगर, अब यह संविधान देश का संविधान नहीं है । जिस संविधानसभा ने जबर्दस्ती यह संविधान लादा था, उसी का रुपान्तरित संसद ने अभी यह साबित कर दिया कि २०६ के बिरुध्द ३४७ इसमें तुरत संशोधन चाहते हैं तभी यह देश में स्वीकार्य बन सकता है ।
स्थानीय चुनाव से संशोधन तो नहीं होगा मगर जनमत तैयार होगा । अतएव समय के आभाव में भी चुनाव दिलेरी से लड़ना है । जीत और सिर्फ जीत जरुरी है । आवश्यक है –
• एकजूट रहें ।
• उपयुक्त साथी को सामने लायें । कोई राग नहीं अनुराग नहीं । जीत ही
प्राथमिकता ।
• कोई चोरी नहीं । अन्तर्घात नहीं । गद्दारी नहीं ।
• एकजूटता ही हमरा हथियार है । तभी जनता विश्वास करेगी ।
स्थानीय चुनाव से हम प्रदेश में फिर संसद में मजबूती से उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे । अगर इसमें असफल हुए तो पूरी जिम्मेवारी हमारी ही होगी । बहुत पीछे छूट जायेंगे । मधेश का बराबरी का मुद्दा बरसों पीछे चला जाएगा । नुकसान से कोई नेता, कार्यकर्ता या मधेशी जनता कोई नहीं बचेगा ।
संसद में हम मजबूत स्थिति में नहीं हैं । मधेश से जीते मधेशी भी मधेश के मामलों में मधेश के साथ चलनेबाले लोग नहीं हैं ।
संविधान ही इस तरह बनाया गया है कि हम कभी बहुमत में नहीं हो सकते । मगर सभी मधेशीयों का राजनैतिक शक्ति अर्थात् वोट मदेश के पक्ष में जमा हो तो हमारे समर्थन के बिना कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकेगी और मधेश देश का निर्णायक शक्ति बन जाएगा । संविधान का परिवर्त्तन हो कर रहेगा ।
अब जीत ही लक्ष्य है । करो और जीतो । (बृखेष चन्द्र लाल,के वाल से)