राजनीति में ईमानदारी होनी चाहिए : कैलाश महतो
कैलाश महतो
राजनीति में ईमानदारी होनी चाहिए । मगर ‘हमेशा ईमानदार होना हानिकारक होता है’(मैकियावेली प्रिन्स पुस्तक) ।
तकरीबन चालीस हजार रोहिंग्या मुसलमान भारत में शरणार्थी के रूप में जीने को बाध्य है, वहीं ६२५,००० से ज्यादा रोहिंग्या बंगलादेश में शरण के सहारे जी रहे हैं । वैसे रोहिंग्यों की बस्ती सउदी अरब में २००,०००, यूएई में १०,०००, पाकिस्तान में ३५०,०००, थाइल्याण्ड में ५,०००, मलेशिया में १५०,००० और इण्डोनेशिया में १,००० के संख्या में है । वे सब म्यानमार से ही पलायन होकर जी रहे हैं ।
इतिहास के पन्नों में जाकर देखें तो रोहिंग्या मुसलमानों की जीवन लीला यही बताती है कि शताब्दियों पहले इनका वास स्थान वर्तमान म्यानमार (बर्मा) के रखाइन क्षेत्रों में था । कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ये लोग ११वें सदी में ही उस समय के विशाल व आज के खण्डित भारत और बंगलादेश से भागकर वहाँ जा बसे थे जब भारत में राज कर रहे एक मुगल शासक सुजान शाह तथा उनके सपरिवार की सामूहिक हत्या हुई थी । बहुत से इतिहासकार एवं रोहिंग्या लोगों के अनुसार तत्कालीन भारत से उनका आगमन या माइग्रेशन आज के म्यानमार में १२वीं सदी के शूरुवाती दौर में हुई थी ।Arakan Rohingya National Organisation के अनुसार म्यानमार के रखाइन प्रान्त में उनका बसोबास अनगिनत शताब्दियों से है जिसके बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं है ।. Human Rights Watch (HRW_ ) के अनुसार ब्रिटीश द्वारा शासित भारत से मजदूर के रूप में ब्रिटिश द्वारा ही शासित रहे म्यानमार के रखाइन क्षेत्रों में रोहिंग्या लोगों को बसाया गया । उस समय म्यानमार को भारत का ही एक प्रान्त माना जाता था जिसके अनुसार उन लोगों को एक देश के ही किसी क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र या प्रान्त में काम विशेष के कारण अंग्रेजों ने बसाया था । उस हिसाब से रोहिंग्याओं की माइग्रेशन कोई बाह्य नहीं, आन्तरिक थी । जो भी हो, रोहिंग्या मुसलमान म्यानमार के पुराना बासिन्दा हैं । उन्हें उनका हर हक अधिकार मिलना चाहिए । उनका संरक्षण और उनके नागरिक हक का संरक्षण होना चाहिए ।
सन् १९६२ में म्यानमार में हुए सैनिक हस्तक्षेप के शासन ने पहली बार रोहिंग्या मुसलमानों के साथ अन्याय कर डाला । उस सैनिक सरकार ने वहाँ के नागरिकों के लिए राष्ट्रीय परिचयपत्र का कानून लाया । मगर रोहिंग्याओं को विदेशी होने का परिचयपत्र थमा दिया गया । रोहिंग्याओं ने उस समय कोई विरोध नहीं किया यह मानकर कि उनके लिए भी अवस्था समान्य हो जायेगी जब सैनिक शासन का अन्त होगा । लेकिन सन् १९८२ में लाये गये नागरिकता ऐन के अनुसार रोहिंग्याओं को म्यानमार के नागरिक बनने से मना कर दिया । उस ऐन के अनुसार म्यानमार के नागरिकों को तीन श्रेणियों में रखा गया ः
1) Citizens,
2) Associate Citizens
3) Naturalized Citizens
उन प्रावधानों के साथ म्यानमार की सरकार ने एक शर्त रखी कि वहाँ का नागरिक बनने के लिए एक व्यतिm को अपने परिवार का यह प्रमाण पेश करना होगा कि उसके पूर्खों का वास बर्मा में सन् १८२३ ऋ.भ. से पूर्व में था । साथ में बर्मा की राष्ट्र भाषा वे अच्छे तरीके से बोल पाते हाें । लेकिन अस्थायी जीवन और बर्मन सरकार के अत्याचार से परेशान भगौडेÞ स्वाभाव बना चुके रोहिंग्या समुदायों के लिए अपने पूर्खों के प्रमाण बचा पाना मुसीबत हो गया था । यही बात बर्मन सरकार चाहती थी कि वे प्रमाणविहीन हो जाये, और दुर्भाग्यवश हुआ भी वही ।
१. उनके सारे प्रमाण या तो नष्ट हो गये, या सरकार द्वारा साजिशपूर्ण तरीकों से जब्त कर लिए गये ।
२. बहुसंख्यक रोहिंग्या समुदाय के लोगों को अशिक्षित बनाकर रखा गया ताकि वे अपने प्रमाणों को अपने पास रख न पायें ।
३. दशकों तक रोहिंग्या लोग एक से दूसरे जगहों पर घूमते रहे । इधर उधर होने के क्रम में उनके प्रमाण खोते चले गये जो राज्य के योजना अनुसार होता गया । बचे खुचे प्रमाणों को ठोस सबूत न होने का व्यतmव्य देकर उन्हें नागरिक मानने से अस्वीकार कर दिया गया ।
नागरिक बनने के प्रमाणों के अभाव में उनपर राजनीति, मतदान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, भ्रमण, खुली शादी विवाह तथा धार्मिक गतिविधि करने में रोक लगा दी गयी । उनको अनेकानेक उत्पीड़न तथा कष्टकारी व्यवहारों का सामना करना पड़ा । आज भी उनके घरों में आगजनी की जाती है । उनके महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है । उनके साथ अत्याचार होता है और हिंसक रूप से उनकी हत्या की जाती है ।
अक्टूबर, २०१६ में रखाइन प्रान्त में सुरक्षा दस्तापर हुए आक्रमण में मारे गए ९ सुरक्षाकर्मियों की हत्या के प्रतिशोध में रोहिंग्या समुदाय के गाँवों तथा घरों में घुसकर बर्मा के सुरक्षाकर्मियों द्वारा सीधेसादे रोहिंग्या मुसलमानों के ऊर अत्याचार किए गए । उस घटना को संयुतm राष्ट्रसंघ ने म्यानमार सरकार के प्रति जातीय सफाया करने का आरोप लगाते हुए नवम्बर, २०१६ में भत्र्सना भी की थी । उससे पहले अप्रैल, २०१३ में ज्गmबल च्ष्नजतक ध्बतअज ने भी म्यानमार सरकार पर रोहिंग्या समुदाय का जातीय सफाया करने का आरोप लगाया था ।
श्रव्य, दृश्य एवं समाचार पत्रों के अनुसार ब्पबचबल च्यजष्लनथब क्बखिबतष्यल ब्चmथ द्वारा म्यानमार के प्रहरी चौकियों पर हुए आक्रमण का बदला लेने हेतु रोहिंग्या मुसमानों के प्रति सैनिक दमन तथा अत्याचार किया जा रहा है ।
संयुतm राष्ट्रसंघ के अनुसार म्यानमार के सरकारी अत्याचारों से बचने के लिए बंगलादेश भागने की कोशिश करने वाले सैकड़ों सामान्य रोहिंग्याओं को सीमा पर तैनात सुरक्षाकर्मियों उल्टा भगाकर म्यानमार भेज रही है, तो वहीं असंख्य रोहिंग्याओं को बन्धक बनाकर हवालात में भी रखा गया है ।
सन् १९७२ से करीब दस लाख रोहिंग्या बर्मा से पलायन हो चुके हैं । संयुतm राष्ट्रसंघ के तथ्याङ्क अनुसार सन् २०१२ से १६८,००० रोहिंग्या मुसलमान म्यानमार से पलायन हो चुके हैं । वैसे ही क्ष्लतभचलबतष्यलब िइचनबलष्शबतष्यल ायच ःष्नचबतष्यल के अनुसार अक्टूबर २०१६ से जुलाई २०१७ तक ८७,००० रोहिंग्या बंगलादेश में शरण ले चुके हैं ।
सेप्टेम्बर ५, २०१७ के दिन म्यानमार पहुँचे भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भारत में पनाह लेकर शरणार्थी के रूप में बसे ४०,००० रोहिंग्या समुदायों को लक्षित करते हुए उन लोगों को भारत छोडने को कहा है । म्यानमार सरकार द्वारा रोहिंग्याओं पर लगाये गये आतंककारी आरोप को मानते हुए प्रधानमन्त्री मोदी यह मन्तव्य देने को बाध्य दिख रहे हैं । क्यूँकि मोदी जी हर जगह और हर मन्तव्य में आतंक के खिलाफ बोलते हुए आतंक को दुनिया से खत्म करने की बात करते हैं । और यह हकीकत है कि आज संसार के बहुत सारे देश आतंक के सायों से त्रसित है जिसने इंसान को इंसान के तरह जीने का हक छीन लिया है ।
लेकिन यह भी सत्य है कि आतंक को कभी कभी कुछ सरकार पनपने का जगह दे डालते हैं जिससे वह खुद तो परेशान होते ही हंै, उसका विरोध करने बाले अन्य राष्ट्र व समुदाय समेत शिकार हो जाते हैं ।
हम चाहे बुद्ध की प्रेम शिक्षा की बात कर लें, या गाँधी के अहिंसात्मक विद्रोह का । कन्फ्यूसियस की सौम्य सभ्यता की चर्चा करेंं, या मण्डेला के आत्मज्ञान का । मगर ऐसे शिक्षा प्रणाली का विकास करने वाले ही अगर किसी का मानव हक का अपमान करे तो फिर वहाँ न चाहते हुए भी पीडि़त वर्ग व समुदाय के लोग प्रतिवाद करने को बाध्य हो जाते हैं और वह प्रतिवाद कभी कभी हिंसक भी होता रहा है जिसे शासक लोग बड़े ठाट से आतंक का रेडिमेड जामा पहना देते हैं । यह सर्वथा गलत है । क्योंकि कोई भी व्यतिm या समुदाय आतंककारी बनने या कहलाने के लिए पैदा नहीं होता । वे जीवन जीने के लिए जन्म लेता है । पैदा करने बाले मातापिता नहीं चाहते कि उनकी औलाद आतंककारी बने या कहलायें । अभावग्रस्त, तिरष्कृत और शोषित लोग ही प्रायः विद्रोह करते हैं । शान्तिपूर्ण विद्रोह को भी कोई शासक जब अवहेलना करता है तो वह विद्रोह बाध्यतावश हथियारबन्द हो जाता है जिसे दुनिया की सारी शासन मिलकर आतंक का बना बनाया नाम दे देती है । इससे यह साबित होता है कि विद्रोहियों के विद्रोहों को शासक लोग या तो समझते ही नहीं, या अपने शासन के नशें में चूर होकर पीडि़तों की भाषा, समस्या और कठिनाइयों को भगवान् का श्राप समझते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि सरकारों की दमन, विरोधियों का अत्याचार तथा समग्र रूप में मानवता तथा मानवीय करुणा एवं संवेदनाओं का तिरष्कार, बलात्कार तथा फजीहत होती है । हाँ, ऐसा जरुर है कि सीमाओं का विस्तार, शतिm का अहंकार और दौलत की दीवार से ओतप्रोत होकर कोई किसी को हैरान परेशान करे तो वह आतंक ही होना चाहिए । उसके विरुद्ध हर हाल में संसार को एक जुट होना चाहिए ।
रोहिंग्या समुदाय म्यान्मार सरकार के आरोप अनुसार ही अगर सशस्त्र आन्दोलन को ही अपना लक्ष्य मानता है तो फिर वह गलत सोच है । शान्तिपूर्ण रूप से ही वह समुदाय भी अपना अधिकार का दावा कर सकता है । शान्तिपूर्ण आन्दोलन को म्यान्मार सरकार तो क्या, दुनिया की कोई भी ताकत हरा नहीं सकती । जितने समर्थन रोहिंग्या समुदायों को पड़ोसी तथा अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों से मिल रही है, उससे कहीं ज्यादा उनका भरोसा उनके आन्दोलन में तब बढ़ जायेगा जब वे निःशस्त्र व शान्तिपूर्ण मार्ग से आन्दोलन को आगे बढ़ायेंगे । उसमें सिर्फ थोड़ी परेशानी है, मगर अन्त में जीत पक्की है ।
कुछ वर्षों में मधेशियों की अवस्था भी रोहिंग्या से बहुत अलग नहीं होगी यह संकेत मिल रह हैं । नेपाली राज्य और उसकी राजनीति जिस तरह से मधेश को लपेट रही है, कुछ ही दशकों के भीतर मधेश में जातीय द्वन्द, राजनीतिक हत्तप्रभ और साम्प्रदायिक दंगे होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है और इसका खामियाजा देश, मधेश और भारत सभी को भुगतना होगा ।