मुरली मनोहर तिवारी (सीपू), वीरगंज | कांग्रेस के क़िला के रूप चिन्हित, पर्सा जिला में कांग्रेस की बुरी हार हुई। ४ संसदीय सीट पर चारों में हार हुई। ८ बिधायक क्षेत्र में ६ पर हार हुई। जो २ बिधायक़ी सीट कांग्रेस ने जीते, वो भी बहुत कम अंतराल से जीत पाए, जबकि सभी जगहों पर मुख्य प्रतिस्पर्धा कांग्रेस से रही। हालांकि इस बार के चुनाव में जनमानस मधेशमय था, इसलिए हार स्वाभाविक था। कांग्रेस का संगठन सबसे मज़बूत होने के कारण तमाम विपरीत माहौल के बावजूद कांग्रेस जितने के उम्मीद में था। कांग्रेस सब जगह कुछेक भोट से हारा, जिसका कारण अन्तर्घाट को मानते है, इसलिए चुनाव पश्चात गद्दार का पहचान करके, कार्यवाही करने के लिए समीक्षा शुरू हो गया है।
पर्सा के क्षेत्र नम्बर १ में कांग्रेस के उम्मेदवार एंव पूर्व सांसद अनिल रुंगटा अपने निकटतम प्रतिस्पर्धी फोरम नेपाल के उम्मेदवार प्रदीप यादव से चार हजार ६ सय ५१ मत अन्तर से पराजित हुए। क्षेत्र नम्बर २ में कांग्रेस के केन्द्रीय सदस्य एंव पूर्वमन्त्री अजयकुमार चौरसीया फोरम नेपाल के विमल श्रीवास्तव से एक हजार चार सय ६५ मत अन्तर से चुनाव हारे ।
पर्सा क्षेत्र नम्बर ३ में पूर्वमन्त्री एंव पूर्व केन्द्रीय सदस्य तथा पूर्व सांसद सुरेन्द्रप्रसाद चौधरी को फोरम नेपाल के हरिनारायण रौनीयार ने एक हजार तीन सय ६५ मत अन्तर से हराया। पर्सा क्षेत्र नम्बर ४ में भी कांग्रेस के केन्द्रीय सदस्य एंव पुर्व सभासद रमेश रिजाल को राजपा के लक्ष्मणलाल कर्ण ने ६ हजार ३६ मत अन्तर से पराजित किया। पर्सा के १४ स्थानीय सीट में, मात्र तीन जगह कांग्रेस जीत सका था। प्रदेश नम्बर २ के एकमात्र महानगरपालिका, वीरगन्ज में मेयर में फोरम नेपाल के विजयकुमार सरावगी निर्वाचित हुए।
अब पर्सा के चारो क्षेत्र में समीक्षा बैठक हो रहा है। जिसमे कांग्रेस जिला सभापति अजय द्विवेदी, पूर्व सांसद राजेंद्र बहादुर अमात्य, श्याम पटेल, किशोरी साह कानू, प्रेमचंद्र द्विवेदी, रामेश्वर रौनियार, नगर सभापति भोला साह, और क्षेत्रीय सभापति अरबिंद गुप्ता का नाम प्रमुख रूप से आ रहा है और कार्यवाही करने की मांग हो रही है। कांग्रेस के कार्यकर्ता पार्टी के केंद्रीय सदस्यद्वय अजय चौरसिया और रमेश रिजाल के हार को पचा नही पा रहे है।
समीक्षा में नेपाली काग्रेस पर्सा के अजय दूबेदी सहित नगर अध्यक्ष और क्षेत्रीय सभापति का इस्तीफा मांगा गया। आरोपों में तर्क आया कि अजय द्विवेदी ने मेयर के चुनाव में अन्तर्घाट का बदला लिया। आरोपों का सिलसिला इतना बढ़ गया है की कोई कहता है, जिला सभापति किसी नेता की दया से सभापति बने है, कोई कहता है, नेता लोग पैसा लेकर बिक गए, कोई कहता है, पर्सा में कोंग्रेस के ऐसे नेता भरे पड़े है, जिन्हें भाषण तक करना नही आता।
आरोप है कि कांग्रेस के मुख्य नेताओ के नेतृत्व में संगठित रुपमें चारो क्षेत्र हराने का मुहिम चलाया गया। जिन्हें टिकट नही मिला उन्होंने अन्तर्घाट किया। टिकट नही मिलने वाले तो हरेक पार्टी में है, वहां अन्तर्घाट क्यो नही होता ? वैसे भी जिसे टिकट मिलता है, वो अन्तर्घाट को स्वीकार करके ही चुनावी मैदान में उतरता है, फिर अन्तर्घाट पर रोना-धोना क्यो ?
पर्सा कांग्रेस के सभापति, अजय द्विवेदी, हार का कारण मधेसी सेन्टिमेन्ट को मानते है, दूसरा फोरम और राजपा के मिलकर लड़ने को मानते है, तीसरा कारण अन्तर्घाट को मानते है, चौथा कारण विपक्षी दल के तर्फ से पैसा के व्यापक दुरुपयोग को मानते है। समग्र में कहा जाए तो ये समीक्षा नही आरोप-प्रत्यारोप है।
कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ता दुखी है। उनके भीतर गंभीर सन्नाटा छाया हुआ है। उनका तर्क है, काम नही करने वाले को सस्पेंड नही किया जाता, उल्टे काम करने वाले को सस्पेंड कर दिया जाता है। जिला का अवस्था इतना बुरा है कि चुनाव से पहले और बाद में भी जिला कार्यसमिति का बैठक रखना सम्भव नही है। स्थानीय चुनाव के समय ही कांग्रेस के ख़स्ता हाल का पता चल गया था, लेकिन कोई सुधार नही किया गया। जिस मतांतर से मेयर हारे, उससे ज्यादा मतांतर से सांसद भी हारे। ब्यक्तिगत अहम के कारण तालमेल नही होने से जिला समन्वय समिति के सभापति में भी हारे। चुनाव में लगभग सभी पुराने उम्मीदवार होने के कारण भोट आकर्षित नही हो पाया।
कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या है, इसमें नए लोगो को जोड़ने के लिए ना ही जगह है, ना ही अवसर, जबकि दूसरी पार्टियों में जगह और अवसर दोनों मिलता है। जो पुराने लोग है, वे इतने बटे हुए है, की कांग्रेस को खुद कांग्रेस ही हराता है। जन्नत अंसारी, मंजूर अंसारी, सिंघासन साह कलवार, हरिनारायण रौनियार जैसे नए चेहरे राजनीति में आए और जीत गए, जबकि ऐसे लोग कांग्रेस में आते तो कई सालों तक इन्हें गांव कमिटी में रहना पड़ता। पार्टी प्रवेश का कार्यक्रम कांग्रेस में भी हो सकता है, अवसर यहा भी मिल सकता है, ये साबित करने की जरूरत है।
सबसे बड़ी बात संबिधान जारी करने, नाका बंदी, आंदोलन में दमन करने और संशोधन के समय कांग्रेस का रवैया जनविरोधी रहा। संविधान में साइन करने के लिए सुरेंद्र चौधरी का नौटंकी, अजय चौरसिया का नाका पर जाना, मगरमच्छ के आशु जैसा लगा। केंद्र की अपनी नीति होती है, जिला की अपनी मज़बूरी भी होती है, कम से कम जिला नेता आम जनभावना के साथ खड़े होते, उनके लिए लड़ते तो ये हालत नही होती। बाढ़ के समय कांग्रेसी नेताओं की बेरुख़ी का लाभ मधेशी दल ने लिया। पार्टी प्रवेश का लाभ मधेशी दल ने लिया। चुनाव से पूर्व, चुनाव के समय मे भी पार्टी के वफ़ादार-शुभचिंतक सोशल मीडिया में लिखकर आगाह करते रहे, लेकिन कोई ध्यान नही दिया गया।
आज चुनाव के बाद भी समीक्षा महज़ खानापूर्ति और दोषारोपण के लिए हो रहा है। पुराने परिपाटी को दोहराने के लिए बीरगंज को राजधानी बनाने के लिए संघर्ष के लिए नौटंकी हो रही है, जबकि सबको मालूम है, तत्काल राजधानी चयन का अधिकार कांग्रेसी सरकार के पास है, अगर पर्सा कांग्रेस वाक़ई अपना खोया जनाधार वापस पाना चाहता है, तो राजधानी के लिए ख़ुद के पार्टी में संघर्ष करना होगा, बिमलेंद्र निधि से संघर्ष करना होगा, वरना ऐसे ही जनाधार खिसकते जाएगा।