सरस्वती पूजा ‘संस्कृति’ है या कु–संस्कृति ?
मनोज बनैता
आजकल संस्कृति के नाम में जो ‘सरस्वती पूजा’ की कार्यक्रम रखी जाती है, वो सच में संस्कृति है या कुसंस्कृति ? इस तरह का प्रश्न स्वाभाविक बन रहा है । जहां कोई संस्कार, सभ्यता, मौलिकता, सृजनात्मक नहीं, व कैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम ? हां कार्यक्रम करने में बहुत लोग को मजा आता होगा, मनोरंजन कर रहे होंगे मगर ये अंततः उछृङ्खल क्रियाकलापों का एक हिंसा जैजा दिखाई देता है । संस्कृति के नाम में कुछ भी करते हैं तो वह कोई संस्कृति कार्यक्रम नहीं बल्कि कु–संस्कृतिको बढवा देनेवाला ‘फिल्मि कार्यक्रम’ जैसा बन जाता है ।
संस्कृति क्या है ?
संस्कृति कोई भी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने–पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है । संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घकाल तक अपनायी गई पद्धतियों का परिणाम होता है ।
‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है । इस धातु से तीन शब्द बनते हैं– ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति) । जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है । अंग्रेजी में संस्कृति के लिये ‘कल्चर’ शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना । विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना । संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके । यह ठीक उसी तरह है, जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’ ।
संस्कृति का शब्दार्थ है– उत्तम या सुधरी हुई स्थिति । मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है । यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है । ऐसी प्रत्येक जीवन–पद्धति, रीति–रिवाज रहन–सहन आचार–विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है । सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है । मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता । वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है । भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं । इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं । मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं । सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है । सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है । इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है । इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान–विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है ।
लेकिन आज हम लोग संस्कृति के नाम में जो कुछ करते हैं, उसमें सिर्फ उछृंखलता दिखाई देता है । संस्कृति के नाम में हम लोग जो कुछ करते हैं, उससे हमारी समाज और युवा पीढियों के बीच सकारात्मक नहीं, नकारात्मक सन्देश प्रवाह होता है ।