सत्ता और कुर्सि राजनीति
प्रो. नवीन मिश्रा
नेपाली राजनीति का सफर राजतन्त्र से शुरु होकर प्रजातन्त्र का पडÞाव पार करते हुए गणतन्त्र तक पहुँच गया। लेकिन मधेशियों की स्थिति पर्ूववत् ही बनी रही। परिणामस्वरुप मधेशियों का गुस्सा मधेश आन्दोलन के रुप में सामने आया। तत्कालीन सत्ताधारियों के हाथ-पाँव फूलने लगे, आन्दोलन की तीव्रता को देखकर उनका सिंहासन डोलने लगा। उनको जल्दबाजी थी मधेश आन्दोलन समाप्त कराने की। फलतः आनन-फानन में तत्कालीन मधेशी नेताओं के साथ उन्होंने संघीय व्यवस्था की स्थापना के नाम पर समझौता कर आन्दोलन को समाप्त कर दिया, लेकिन आज संविधान निर्माण में यही संघीय संरचना सबसे बडÞी बाधा साबित हर्ुइ। उसी समय अगर संघीय संरचना के बदले मधेशियों के लिए ५० प्रतिशत आरक्षण का समझौता हुआ होता तो आज देश और मधेश दोनों ही की परिस्थिति भिन्न होती। संघीयता वास्तव में शक्ति पृथकीकरण या विभाजन का ही दूसरा रुप है। लेकिन आज तक केन्द्र और राज्य के बीच शक्ति विभाजन या फिर राज्यों के सञ्चालन के लिए आर्थिक स्रोतों की सम्भावना जैसे प्रमुख मुद्दों पर कभी भी कोई चर्चा सुनने को नहीं मिली, बल्कि संघीयता का गलत अर्थ जनता के सामने परोसा गया कि सभी जातियों के लिए पृथक राज्य और सभी शहरों में राज्य की राजधानी। फिर क्या था, सभी जातियों ने अपने लिए अलग राज्य की माँग के नाम पर पूरे देश में लगभग एक महीने तक बन्द, हडÞताल और पर््रदर्शन का सिलसिला जारी रखा, जिससे देश की जनता का जीवन कष्टकर और दूभर हो गया।
चार वर्षो की अवधि और लगभग नौ करोडÞ रुपए खर्च कर भी संविधान सभा देश को संविधान नहीं दे पाई और आर्थिक रुप से जर्जर हो चुके देश को एक बार फिर आम चुनाव की आग में झोंक दिया गया। हर बार की तरह इस बार के चुनाव में भी पहले की गलतियाँ दुहर्राई जाएंगी। इन सब के बावजूद भी इस बात की क्या ग्यारन्टी है कि नई संविधान सभा देश को नयाँ संविधान दे पाएगी और वह भी कितने दिनों में – इतना होने के बावजूद अभी भी स्वार्थ, सत्ता और कर्ुर्सर्ीीी राजनीति जारी है। अब भट्टर्राई सरकार को हटा कर नई सरकार गठन की मुहिम जारी है। पिछले चार वर्षो में सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता सुख भोगा ओर सभी शर्ीष्ा नेता भी बारी बारी से प्रधानमन्त्री भी बने। नेपाली कांग्रेस भी अपना दामन यह कह कर नहीं बचा सकती कि वह सत्ता में शामिल नहीं हर्ुइ क्योंकि रामचन्द्र पौडेल, अठारह बार प्रधानमन्त्री पद के लिए चुनाव में पराजित हुए। और फिर अन्तिम समय में ही सही कृष्ण प्रसाद सिटौला ने उपप्रधानमन्त्री पद स्वीकार किया। फिर भी इन लोगों का सत्ता मोह अभी तक नहीं गया है। बाबुराम भट्टर्राई को प्रधानमन्त्री पद से त्याग पत्र देने के लिए इसलिए कहा जा रहा है कि यह सरकार असंवैधानिक है और इसे आम चुनाव की घोषणा करने का अधिकार नहीं है। सवाल है कि आम चुनाव की घोषणा के लिए संवैधानिक संशोधन की बात कही जा रही है, लेकिन संवैधानिक संशोधन करेगा कौन, जब संसद भंग हो चुकी है। अन्तरिम संविधान में आम चुनाव की बात का उल्लेख इसलिए नहीं किया गया क्योंकि उस समय तो यह कल्पना ही नही की गई थी कि अन्तरिम संविधान के तहत ही चुनाव होंगे। चुनाव तो नए संविधान के अर्न्तर्गत होना था। यदि परम्परा की बात करें तो संसदीय प्रणाली अर्न्तर्गत संसद भंग होने की स्थिति में प्रधानमन्त्री के सिफारिस पर राष्ट्रपति आम चुनाव की घोषणा करता है। परम्परा का भी अपना महत्व है। र्सवविदित है कि ब्रिटेन में संविधान नहीं है। वहाँ सत्ता सञ्चालन परम्परा के आधार पर ही होता है।
इन सब के पीछे सिर्फएक ही कारण है कि संविधान का जारी नहीं होना और निर्लज्जता देखिए कि सभी राजनीतिक दल फिर से संविधान सभा की अवधि बढÞाने के लिए जी जान से लगे हुए है। वह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने अंकुश लगाया नहीं तो पता नहीं यह सिलसिला कब जाकर रुकता क्योंकि और किसी बात पर सहमति हो या नहीं, इस बात पर तो १२ बजे रात में भी सहमति हो जानी थी। वास्तव में राज्य पर्ुनर्संरचना का मामला भी इसलिए पेंचीदा हो गया है क्योंकि सभी राजनीतिक दल वोट की राजनीति से प्रेरित हो अपने-अपने हिसाब से राज्य की संरचना चाहते हैं, जिससे अधिक से अधिक राज्यों पर काबीज हो सके। इन सभी नकारात्मक गतिविधियों के बीच सिर्फएक सकारात्मक बात देखने को मिली और वह था सभी राजनीतिक दलों के मधेशी सभासदों का गोलबन्द होना। यह कहना तो कठिन है कि जिस मुद्दे पर लामबन्द हुए थे, वह मधेश के लिए कितना हितकर होता लेकिन उन्होंने अपनी-अपनी पार्टर्ीीी परवाह किए बिना एकजूटता का जो नमूना पेश किया, वह वास्तव में काबीले तारिफ है और मधेशी के लिए एक शुभ संकेत भी। इतना अवश्य है कि पिछले प्रधानमन्त्रियों की तुलना में बाबुराम भट्टर्राई के कार्यकाल में संविधान निर्माण के कार्य में अवश्य तेजी देखने को मिली। यह तत्परता अगर शुरु से होती तो शायद समय पर संविधान आ जाता। मुझे तो लगता है कि अब देश के नेताओं को अपनी विफलता स्वीकार कर देश के संविधान विज्ञों को संविधान निर्माण की जिम्मेदारी सौंप देनी चाहिए। इससे देश को संविधान भी मिल जाएगा और देश अनावश्यक खर्च और परेशानी से भी बच जाएगा।