चाहत रखने बाला बुद्ध नहीं हो सकता ! जगने का नाम ही बुद्धत्व है : कैलाश महतो
कैलाश महतो, नवलपरासी | एक बार सिकन्दर यूनान के डायोब्निज नामक एक नामूद फकीर सन्यासी से मिलने समूद्री रेत पर जाता है जहाँ वह फकीर नंङ्गे पडे सूरज के घाम से नहाते हुए आनन्द ले रहा होता है । उस समयतक सिकन्दर ने संसार के बहुत सारे भूभागों को जितकर अपने कब्जे में कर लिया होता है । शान से भरा हुआ अहंकार में डुबा सिकन्दर अपने महँगे वस्त्रों में सजधज कर अपने अंग रक्षकों के साथ जब उस फकीर से कहता है कि डायोब्निज नामक उस फकीर को गर्व होना चाहिए कि उतने बडे विश्व विजेता रहे महान् सम्राट सिकन्दर उससे मिलने उसके पास समुद्री तट पर आया है । सिकन्दर की बात सुनकर उस फकीर ने बडे सहज ढंङ्ग से जबाव देता है कि जो इंसान अपने दरिद्रता को छुपाने के लिए सुन्दर महँगे लिवास पहनता हो, उससे ज्यादा कंगाल इस सारे संसार में और कौन हो सकता ? और पाने की चाह रखने बाला एक सख्स महान् कैसे हो सकता ? जो सारी उम्र चाहत और अहंकार में ही सोता रहा, उससे बडा भिखारी यहाँ कौन हो सकता ?
बुद्ध एक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक भी है । विज्ञान का स्वाभाव ही सन्देह से जुडा होता है । जहाँ सन्देह न हो, वहाँ विज्ञान होने की कोई गुंजाइस और संभावना ही नहीं बन सकता ।
बुद्ध किसी को किसी विचार या वाद से आशक्त होने को नहीं कहते । वे किसी चीज, वाद या विचार को आँखे बन्द करके मान लेने को भी नहीं कहते । यहाँतक कि ईश्वर को भी आँखे बन्द करके मानने से वे सहमत नहीं हैं । वे अपने शिष्यों को वे अपने विचारों को मान लेने को भी नहीं कहते । उनका कहना है कि जो वे कहते हैं, जरुरी नहीं कि वह उनके श्रोता या शिष्यों के लिए भी सत्य ही होगा । मानने से पहले उस बात को जान लें । उसे वे अपने ढंग से भी खोज लें । और जब कोई जान लेगा, खोज लेगा, तो मानना स्वाभाविक हो जाता है । बुद्ध व्यतिm को स्वतन्त्र देखना चाहते हैं । उनके अनुसार भी स्वतन्त्र व्यतिm ही कुछ जान पाता है । स्वतन्त्र व्यतिm ही कुछ खोज पायेगा । स्वतन्त्रता व्यक्ति का पहला अधिकार है ।
डायोग्निज सिकन्दर से यही कहता है कि चाहत रखने बाले शख्स बुद्ध नहीं हो सकता । चाहत तो बन्धन है । स्वतन्त्र होने के लिए बुद्ध बनना होगा । बुद्धत्व ही स्वतन्त्रता है । बुद्ध की बातें सुनकर डायोग्निज को बडा आश्चर्य होता है और वह कहता है कि अगले जन्म में वे डायोग्निज बनेगा । इस जन्म में अपने राज्य की सीमा थोडा और बढा लें । जबाव में डायोग्निज कहता है कि उस जैसे व्यतिm, जो चाहत में जी रहा है और चाहत में ही मरना चाहता है कि अगले जन्म में वो डायोग्निज या बुद्ध बनेगा तो यह संभव ही नहीं कि वह कोई डायोग्निज या बुद्ध बनेगा । संयोग से डायोग्निज और सिकन्दर एक ही दिन मरते हैं । फर्क सिर्फ इतना कि सिकन्दर युद्ध से लौटते हुए रास्ते में ही दम तोडता है भूमि की चाहत से लबालब होकर और डायोग्निज उसके बाद बिना किसी चाहत संसार से हँसते हँसते अपने शिष्यों को शिक्षा देते देते विदा लेते हैं ।
बुद्ध कहते हैं, “जन्म और मृत्यु देह का होता है, आत्मा का नहीं । जगने का नाम ही बुद्धत्व है ।” बुद्ध दार्शनिक नहीं, दृष्टा होता है । दार्शनिक सोचता है । समझता है । हिसाब किताब करता है, और दृष्टा देखता है । ध्यान से आँखे खुलती हैं ।
बुद्ध कहते हैं, “मैं चिकित्सक हूँ ।” चिकित्सक स्वयं दवा नहीं खाता । वह रोगियों को मूक रोग में मूक दवा खाने का सलाह देता है । वह उसपर अपना रोब नहीं चढाता । केवल रास्ता दिखाता है । दवा खाने या न खाने, दिखाये गये रास्ते पर चलही करेगा । यह बात बिल्कुल सही है कि जिसका कोई दृष्टि नहीं, जो किसी वाद के जंजीर में नहीं, वही सत्य को देख सकता है, उसे जान पायेगा और जब जान लेता है तो मानना उसका स्वाभाव बन जाता है । और सत्य को जानने से पहले उसे खोजना अनिवार्य है । बिना खोजे उसे कोई देख ही नहीं सकता ।
बुद्ध ने जिसे धर्म कहा है, वह एक कडी है जो बिखडों को जोडें । बुद्ध ने धर्म को वैज्ञानिकता दी है । धर्म को पहले धर्मान्धों ने अन्धविश्वास बनाकर रखा था । बुद्ध के अनुसार धर्म सनातन है जो मानवीय भावना से जुडा होता है, जो मानव का दिन चर्या होता है । धर्म तो मानव का स्वाभाव है, उसके आत्मा का आवाज है, मानव और समस्त जीवों का आवश्यकता है, आत्मा है, न कि कोई हिन्दु, कोई मुस्लिम व इसाई, आदि, इत्यादि…। ये तो कुछ धर्मान्धों के ठेक्केपट्टे है जिससे उनकी रोजी रोटी चलती है ।
बुद्ध एक वैज्ञानिक इसलिए भी है कि जो उन्होंने कही, वह बिल्कुल अलग बात है । उन्होंने न तो किसी वेद की बात कही और न किसी ईश्वर कहलाने बालों की बातों को दोहरायी । उन्होंने सबसे अलग और वैज्ञानिक लहजों में वैज्ञानिक सत्य को दर्शाया है । उनके पास न तो शंकर और दुर्वशा श्रृषि के जैसे कोई रोष और अहंकार है, न राम और कृष्ण के तरह हाथों में कोई बाण है । उनके पास केवल उनका शान्त स्वाभाव है और समाज व मानव जाति का अलौकिक सार है । गौर से देखें तो कृष्ण ने वही बात कही जो वेदों में, उपनिशदों में और गीता में कही गयी है । बाँकी के विचारकों ने भी वही कही है जो राम और कृष्ण ने कही और की है । मगर बुद्ध ने बिना कोई चाहत, बिना कोई दंगा, बिना कोई शस्त्र और बिना कोई आड लिए जो प्रकाश फैलायी, उससे वे स्वयं भी प्रकाशपुञ्जित और बुद्ध हुए और मानव जगत को सत्य खोज के लिए एक नवीन राह उपलब्ध करा गये । बुद्ध को कोटी कोटी नमन और श्रद्धापूर्ण श्रद्धाञ्जली ।
