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अवसरवादिता के दुष्परिणाम

कुमार सच्चिदानन्द

सविधानसभा के निर्वाचन के बाद चार वर्षों तक चली देश की राजनैतिक गतिविधियों के प्रति आम लोगों में निराशाका भाव तो पर्ूव से ही विद्यमान था, लेकिन परिणामविहीन संविधानसभा और इसके विघटन ने राजनैतिक अनिश्चिता और संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा की और एक तरह से जनमानस की निराशा के काले रंग को और अधिक गाढÞा कर दिया। इसके बावजूद दलों का टूटना बिखरना अब भी जारी है। राष्ट्रहित की चिन्ता से दूर दलगत हित और व्यक्तिगत हितों के कारण छोटी और बडÞी राजनैतिक शक्तियाँ लगातार बिखरती रही हैं और इसी प्रक्रिया के तहत देश की सबसे बडÞी राजनैतिक शक्ति और नवीन चेतना का बाहक एकीकृत नेकपा माओवादी का विभाजन हुआ। यह विभाजन एक तरह से एक दल या विचारधारा का विभाजन नहीं, उस नवीन चेतना का विखण्डन है, जिसका प्रव्ााह जनमानस में ०६२-०६३ के जनान्दोलन के बाद हुआ था। इसलिए एकीकृत नेकपा माओवादी के इस विभाजन ने एक तरह से आम लोगों को निराश नहीं बल्कि हतोत्साहित होने की स्थिति में पहुँचा दिया है।
कहा जाता है कि संर्घष्ा हमेशा सही और गलत में होता है। सच यह है कि संर्घष्ा सदा सही और सही में होता है। निश्चित ही आज इस पार्टर्ीीे कोई भी पक्ष स्वयं को गलत मानने के लिए तैयार नहीं होंगा। दोनों अपने-अपने दृष्टिकोण से सही ही दिशा में अग्रसर हो चुके हैं। इन दोनों में कौन सा पक्ष सही है, यह तो समय तय करेगा। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक मजबूत और संगठित पार्टर्ीीराष्ट्र को निश्चित दिशा दिए बिना विभाजित हर्ुइ है। नई चेतना का बाहक एक शक्ति कमजोर हर्ुइ है और एक तरह से इस विभाजन ने देश की राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादियों को प्रोत्साहित किया है। वैसे कोई भी दल टूटता है तो उसके राजनैतिक विरोधियों को सकून मिलता ही है। निश्चित ही इस विभाजन से इसके विरोधी दलों को थोडÞी राहत महसूस होती होगी लेकिन राष्ट्र के राजनैतिक हालात को देखते हुए इसे बहुत सकारात्मक नहीं माना जा सकता।
वि.सं. ०६२-६३ के जनआन्दोलन की यह उपलब्धि रही कि इसके बाद दलगत आधार पर हुए संविधानसभा के चुनाव में दो राजनीतिक शक्तियों ने सशक्त रुप में नेपाल के राजनीतिक क्षितिज में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। एक माओवादी और दूसरी मधेशवादी पार्टर्ीीे। मधेशवादी दल तो क्षुद्र स्वार्थ के कारण कितने खण्डों में विभाजित हो चुके हैं, कहना मुश्किल है, लेकिन अभेद्य सा समझा जाने वाला माओवादी दल भी आज विभाजित हो चुका। देश में लोकतन्त्र चाहिए, यह तो सबका काम्य था, लेकिन संघीयता और गणतन्त्र जैसे मुद्दे इनके मौलिक मुद्दे थे। आज इन दलों के कमजोर होने के कारण इन मुद्दों को अमली  जामा पहनाने के मसले पर वैचारिक संकट के बादल मँडराने लगे हैं। यह सच है कि राजतन्त्र या संवैधानिक राजतन्त्र की सम्भावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती और अगर कोई ऐसी परिस्थिति बनती भी है, जिसकी फिलहाल कोई सम्भावना नहीं है तो जो पारम्परिक राजनैतिक दल हैं, उन्हें इनका भी स्वागत करने में कठिनाई नहीं क्योंकि ‘किंग और बेबी किंग’ की अवधारणा उनकी विचारधारा की परिधि में कही न कही थी। आज यह हालत अगर नहीं भी है तो इस में उनका योगदान नहीं बल्कि उस परिस्थिति का योगदान माना जा सकता है, जिस के तहत कहा जा सकता है कि नेपाल में कोई भी ऐसा शक्ति केन्द्र नहीं, जो इस संविधानहीनता की स्थिति का लाभ उठाकर कोई अतिवादी कदम उठाए।
आज ‘सहमति’ जैसा शब्द नेपाली राजनीति के लिए र्सवाधिक आवश्यक और नेपाली राजनैतिक क्षेत्र में र्सवाधिक प्रचारित शब्द है। लेकिन हर दल और दलों के अर्न्तर्गत अनेक गुट इस व्याधि से पीडिÞत है। इसलिए विभिन्न दल टूट रहे हैं, विखर रहे हैं और जो दल नहीं भी टूटे हैं, उनके अर्न्तर्गत विभिन्न धाराएँ, उपधाराएँ स्पष्ट नजर आती हैं। इसका कारण यह है कि संवैधानिक संकट से राष्ट्र को उबारना इनका लक्ष्य नहीं, सत्ता की साधना इनके लिए अधिक महत्त्वपर्ूण्ा है। अवसर इनके चिन्तन का केन्द्र है। इसी कारण पहले भी सहमति नहीं बन पाई और आज भी इस के आसार नजर नहीं आ रहे है। आज राजनैतिक और संवैधानिक रुप से राष्ट्र चक्रव्यूह में फँसा हुआ दिखई दे रहा है। प्रतिगामी शक्तियों के सिर उठाने की परिस्थितियां बनी हर्ुइ है, लेकिन सत्ता आधारित राजनीति के भँवर में आज भी यहाँ सक्रिय छोटे-बडेÞ सभी दल फँसे हुए हैं। सवाल है कि जो विपक्षी ध्रुवीकरण मौजूदा सरकार के विरोध में देखा जा रहा है, वह ध्रुवीकरण सत्ता के नए समीकरण बनने के बाद कायम रह सकता है – दूसरा, सहमति के नाम पर एक सरकार को हटाकर अगर दूसरी सरकार का गठन होता है तो पहली सरकार और इसके र्समर्थक दलों से सहमति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है –
पिछले कुछ दिनों से माओवादियों के नेतृत्व पंक्ति में वैचारिक और नीतिगत स्तर पर जो टकराव देखा जा रहा था, उससे उसके विभाजन की सम्भावना आँकी जा रही थी, जो होकर रही। बस्तुतः उग्रवामपंथ की विचारधारा लेकर इस दल ने जनयुद्ध का संचालन किया था और अपने र्समर्थकों तथा कार्यकर्ताओं की संख्या में आशातीत बढÞोत्तरी के लिए अनेक लोकप्रियतावादी नीति निर्धारित किए। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति की मूलधारा में आने के बाद, लोकतान्त्रिक अभ्यासों से गुजरते हुए उसने अनुभव किया कि कुछ विन्दुओं पर उन्हें उदारवादी बनने होंगे। उदारपंथ की उस नीति पर चलते हुए माओवादियों के नेतृत्व में दूसरी बार सरकार बनी। लेकिन इस दल के भीतर एक समूह ऐसा भी है, जिन्हें उदारपन्थी चिन्तन स्वीकार्य नहीं। परिणामतः माओवादियों का अर्न्तर्कलह सतह पर आया और एक तरह से यह पार्टर्ीीवभाजन के मार्ग पर अग्रसर होती गई। इस विभाजन के मूल में वे तत्त्व हैं, जिसे कभी र्समर्थकों की संख्या बढÞाने के उद्देश्य से प्रचारित किया गया था- जैसे, जातीय राज्य, भूमि या सम्पत्ति कब्जा, सैन्य समायोजन आदि। ये बातें सिद्ध करती हैं कि गलत नीतियाँ अल्पकालीन सन्दर्भों में तो अपना औचित्य सिद्ध करती नजर आती हैं मगर दर्ीघकालीन रुप मे इसके परिणाम बेहतर नहीं होते।
दल आधारित राजनीति में दलों का टूटना बिखरना एक सामान्य प्रक्रिया है लेकिन नेपाली राजनीति में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत अधिक तीव्र है। हर छोटे-बडेÞ दल प्रायः इस दंश से प्रभावित है, लेकिन यह भी सच है कि अलग होकर भी किसी दल ने सम्यक सफलता नहीं प्राप्त की है और कांग्रेस, नेकपा एमाले जैसी पार्टियों का पुनर्मिलन भी हुआ है। इसलिए कहा जा सकता है कि विभाजित होकर भी व्रि्रोही दल बहुत बडÞा लक्ष्य प्राप्त कर लेगा, कहना मुश्किल है क्योंकि एक तो यहाँ उग्र वामपन्थ के पल्लवित होने के लिए उपयुक्त उर्वरा भूमि नहीं है। दूसरी महत्वपर्ूण्ा बात यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था बहुत कुछ विदेशी सहयोग पर आधारित है, इसलिए किसी भी राजनैतिक अतिवाद की ओर अग्रसर होने पर इनके चिन्तन की दिशा भी बदल सकती है, जो राष्ट्र के लिए उपयुक्त नहीं होगा। तीसरी महत्वपर्ूण्ा बात यह है कि सिद्धान्तों और सपनों की चासनी मुँह में रखकर बैठे-बैठे स्वाद लेना जितना आसान है, व्यावहारिक जमीन पर उसे शतशः उतार पाना उतना ही कठिन है। यही कारण है कि एकीकृत नेकपा माओवादी का संस्थापन पक्ष थोडÞा लचीला रुख अख्तियार कर रहा है और जो पक्ष आज अलग हुए है, उन्हें भी निकट भविष्य में इस जमीन पर आना ही होगा।
आज देश में संसद या संविधानसभा जैसी लोकतान्त्रिक संस्था नहीं है। संविधान निर्माण जैसा गुरु दायित्व प्रत्येक राजनैतिक दल के कन्धे पर है। मगर आज भी इनके राजनैतिक चिन्तन के मूल में संविधान नहीं बल्कि सत्ता है। बिडम्बना यह है कि हर दल भीतर ही भीतर विभाजित है और यह अन्तर्रर्विरोध सतह पर है मगर सभी राष्ट्रिय सहिमति की बात कर रहे हैं, सवाल है कि सहमति कोई भौतिक चीज नहीं जिसे रस्सी से बाँधकर या खीच कर किसी विन्दु पर स्थिर किया जा सके। इसके लिए हर दल को लचीला और दलगत स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। सहमति सरकार के लिए नहीं, संविधान के लिए बननी चाहिए। सरकार के लिए सहमति के नाम पर हम जितना अभ्यास करेंगे, असहमति की दिशा में उतने ही कदम आगे बढेंÞगें। क्योंकि सत्ता का समीकरण साफ नहीं है, और नयाँ कोई भी अभ्यास अवसरवाद के मनोविज्ञान से ग्रसित माना जाएगा।
बहरहाल जो राजनैतिक और संवैधानिक परिस्थितियाँ हैं, उस में आम लोग ‘होइहें वही जो राम रचि राखा’ की मनस्थिति में हैं। हर दल आशाभरी निगाह से राष्ट्रपति की ओ देख रहे हैं, लेकिन मौजूदा हालत में देश को दिशा देना उनके लिए भी सहज नहीं है। इसलिए ‘सहमति’ के ब्रहृमवाक्य का वे अक्सर प्रयोग करते नजर आते हैं। दलों का टूटना-बिखरना स्थिति को और अधिक जटिल बना रहा है। सवाल है कि चार वर्षों की लम्बी असहमति इतनी जल्दी ‘सहमति’ में बदल जाएगी – निश्चिय ही इस परिस्थिति में देश में सक्रिय राजनीतिक दलों के नेतृत्व वर्ग से दायित्व बोध की अपेक्षा है।

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