मैं और यादें, यादें और सिर्फ यादें
आषाढ़ का पहला दिन

मधु प्रधान
आज फिर
काली घटा छाई है
घने काले पहाड़ जैसे
बादलों से
नीचे उतरते
उमड़ते छोटे-छोटे
बादल के टुकड़ों ने
घेर लिया सारा आकाश
मुझे याद आ रहा है
अपना घर
छत का वह बारामदा
जहाँ खड़ी हो कर
मैं देखा करती थी
दूर -दूर तक खुला आकाश आकाश को छूती धरती
उमड़ती घटायें
धीमे-धीमे / तेज होती बौछारें
और स्नेह आप्लावित
धरती की गोद मे कुनमुनाते
हरे -हरे अंखुए
मेरी आँखों में कौंध रहा है
मेरा बचपन /अनवरत झरती
बौछारों को पकड़ने के लिये
उद्धत /दो छोटे-छोटे हाथ
मेरे कानों में गूँज रही है
बैलों को ओसारे में बांधते
तेजा चाचा की खनकती आवाज
” मोड़ी “भीग मत
बीमार पड़ जाएगी
और सहम कर उनके जाने का
इन्तजार करती
दो नटखट आँखें
अब मैं शहर में हूँ
बादल बरस कर जा चुके हैं
शेष हैं /पानी से धुले
नाचते -थिरकते
हरे -हरे पीपल के पत्ते
बिजली के तारों पर ठहरी
टपकती कुछ बूंदें
सर से पाँव तक भीगी हुई
सड़क पर भरे /पिंडलियों तक
पानी को मंझाती मैं और यादें
यादें और सिर्फ यादें
;