वो, और नहीं थी कोई; मेरी आशाएँ थीं; जो, हवा में विलीन हो रही थी : गंगेश मिश्र
स्मृति – उस सुबह;
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एक, भयानक हुआ सबेरा;
छाया, जब काला अँधेरा;
मैं, समझा रात हो चली;
मेरे घर की दीप जली;
एक, पवन का आया झोका;
उसने जैसे, मुझको रोका ।
मैं दौड़ रहा था, घर को अपने;
उसने मुझको, राह में टोका ।
तभी, जोर से बिजली कड़की;
मेरी बाईं भुजा, यों फड़की;
मैं समझ गया;
अब ! रूठ चला है;
मेरा भाग्य, विधाता;
निश्चय ही, टूटेगी;
मेरे मन की, अभिलाषा ।
तभी ! निकली एक कराह;
जो, मुझको ही बुला रही थी;
नन्दन, मेरे नन्दन;
मुझको, पुकार रही थी;
वो, और नहीं थी कोई;
मेरी आशाएँ थीं;
जो, हवा में विलीन हो रही थी ।।