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पितृपक्ष क्यो मातृपक्ष या पूर्वज पक्ष क्यों नही ?

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

पितृ-पक्ष क्यों मनाते है ? पितृ दोष से मुक्ति पाने और उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृ-पक्ष मनाते हैं।  इस दौरान किए गए श्राद्ध कर्म और दान-तर्पण से पित्राें को तृप्ति मिलती है। वे खुश होकर अपने वंशजों को सुखी और संपन्न जीवन का आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करने की परंपरा हमारी सांस्कृतिक विरासत है। परंतु यह पखवारा ‘पितृ-पक्ष’ क्यों कहलाता है ? क्या दिवंगत महिलाएं हमारे पूर्वज नहीं ? क्या दिवंगत महिलाओ को अपने पूर्वजों के रूप में सम्मान करना और धन्यवाद देना उचित नहीं ?

आज से दस हजार साल पहले आर्य या कहें कि वैदिक काल में महिला की स्थिति क्या थी यह सभी के लिए विचारणीय हो सकता है। यदि महिला को धर्म, समाज और पुरुष के नियमों में बांधकर रखा गया है तो उसकी स्थिति बदतर ही मानी जा सकती है। किंतु जिन्होंने वेद-गीता पढ़े हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि दस हजार वर्ष पूर्व जबकि मानव जंगली था, आर्य पूर्णत: एक सभ्य समाज में बदल चुके थे। तभी तो वेदों में जो महिला की स्थिति का वर्णन है उससे पता चलता है कि उनकी स्थिति आज के समाज से कहीं अधिक आदरणीय और स्वतंत्रतापूर्ण थी।

हिन्दू धर्म सनातन धर्म है और विश्व का सबसे पुराना धर्म भी है। अफसोस की बात है कि इसकी बेहद खुली एवं उदारवादी नीतियाँ जो कि उन्नति का द्योतक बन सकती थीं वे ही उसके विरुद्ध इस्तेमाल की जा रही हैं। महिलाएं किसी भी समाज में संवेदनशील विषय रही हैं और आज इसी को मुद्दा बनाकर हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं। यह हम सब जानते हैं कि हमारे सबसे पुराने ग्रंथ मनुस्मृति में कहा गया है –“जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है” यह हमारे धर्म में नारी की स्थिति बताने के लिए काफी है।

जिस समय पश्चिमी सभ्यता पुरुष और नारी में समानता के अधिकार की बातें करता था उससे कहीं पहले भारतीय ग्रंथों में नारी को पुरुष के समान नहीं उससे ऊँचा दर्जा प्राप्त था। जहाँ पश्चिमी सभ्यता में स्त्री की पहचान एक माँ,बहन, बेटी तक ही सीमित थी,भारतीय संस्कृति में उसे देवी का स्थान प्राप्त था। मानव सभ्यता के तीन आधार स्तंभ –बुद्धि, शक्ति और धन तीनों की अधिष्ठात्री देवियाँ हैं । यह गौर करने योग्य विषय है कि —
बुद्धि की देवी            सरस्वती
धन की देवी               लक्ष्मी
शक्ति की देवी           दुर्गा,काली समेत नौ रूप
वेदों की देवी              गायित्री
धरती के रूप में सम्पूर्ण विश्व का पालन करने वाली धरती भी माँ स्वरूपा हैं। जल के रूप में प्राणीमात्र का तर्पण करने वाली गंगा,जमुना,सरस्वती तीनों माँ स्वरूप हैं और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इन सभी रूपों को पुरुषों द्वारा पूजा जाता है। हिन्दू वैदिक संस्कृति में स्त्री को पुरुष की  अर्धांगिनी एवं सहधर्मिणी कहा जाता है अर्थात जिसके बिना पुरुष अधूरा हो तथा सहधर्मिणी अर्थात जो धर्म के मार्ग पर साथ चले। हिन्दू संस्कृति में पति पत्नी का मिलन दैहिक न होकर आध्यात्मिक होता है और शायद इसी कारण इसमें तलाक या डाइवोर्स नामक किसी स्थिति की कल्पना तक नहीं की गई और न ही ऐसी किसी स्थिति का आस्तित्व स्वीकार्य है अपितु विवाह के बन्धन को तो सात जन्मों का बन्धन माना जाता है। स्त्री के धरती पर जन्म लेते ही उसके कन्या रूप को पूजा जाता है और नवदुर्गा महोत्सव में बेटियों को दुर्गा स्वरूपिनी मानकर उनके पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लिया जाता है किन्तु बेटों को कहीं भी राम अथवा कृष्ण स्वरूप मानने का उल्लेख नहीं मिलता है। यही कन्या जब विवाह पश्चात् किसी घर में वधु बनकर जाती है तो उसे लक्ष्मी कहा जाता है। इस संदर्भ में हमारे वेदों से कुछ उद्धरण प्रस्तुत है —
यजुर्वेद 20.9

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स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का अधिकार है।
यजुर्वेद 17.45

स्त्रियों की सेना हो और उन्हें  युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें।
अथर्ववेद 11.5.18

बह्मचर्य सूक्त -इसमें कन्याओं को बह्मचर्य और विद्याग्रहण  के पश्चात् ही विवाह के लिए कहा गया है।
अथर्ववेद    7.48.2

हे वधु ऐश्वर्य की अटूट नाव पर चढ़ कर अपने पति को सफलता के तट पर  ले चलो।
अथर्ववेद 14.1.50

हे पत्नी अपने सौभाग्य के लिए मैं तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ।
ॠग्वेद 3.31.1

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।-अथर्ववेद

जिस कुल में नारियों कि पूजा, अर्थात सत्कार होता हैं, उस कुल में दिव्यगुण, दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों कि पूजा नहीं होती, वहां जानो उनकी सब क्रिया निष्फल हैं।

वैदिक काल में कोई भी धार्मिक कार्य नारी की उपस्थिति के बगैर शुरू नहीं होता था। उक्त काल में यज्ञ और धार्मिक प्रार्थना में यज्ञकर्ता या प्रार्थनाकर्ता की पत्नी का होना आवश्यक माना जाता था। नारियों को धर्म और राजनीति में भी पुरुष के समान ही समानता हासिल थी। वे वेद पढ़ती थीं और पढ़ाती भी थीं। मैत्रेयी, गार्गी जैसी नारियां इसका उदाहरण है। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। यही नहीं नारियां युद्ध कला में भी पारंगत होकर राजपाट भी संभालती थी।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। नारी के बिना नर का जीवन अधूरा है इस अधूरेपन को दूर करने और संसार को आगे चलाने के लिए नारी का होना जरूरी है। नारी को वैदिक युग में देवी का दर्जा प्राप्त था। ऋग्वेद में वैदिक काल में नारियां बहुत विदुषी और नियम पूर्वक अपने पति के साथ मिलकर कार्य करने वाली और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली होती थी। पति भी पत्नी की इच्छा और स्वतंत्रता का सम्मान करता था।

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वैदिक काल में वर तलाश करने के लिए वधु की इच्छा सर्वोपरि होती थी। फिर भी कन्या पिता की इच्छा को भी महत्व देती थी। यदि पिता को कन्या के योग्यवर नहीं लगता था तो वह पिता की मर्जी को भी स्वीकार करती थीं। बहुत-सी नारियां यदि अविवाहित रहना चाहती थीं तो अपने पिता के घर में सम्मान पूर्वक रहती थी। वह घर परिवार के हर कार्य में साथ देती थी। पिता की संम्पति में उनका भी हिस्सा होता था।

सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में जहां पुरुष के रूप में देवता और भगवानों की पूजा-प्रार्थना होती थी वहीं देवी के रूप में मां सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का वर्णन मिलता है। वैदिक काल में नारियां मां, देवी, साध्वी, गृहिणी, पत्नी और बेटी के रूप में ससम्मान पूजनीय मानी जाती थीं। बाल विवाह की प्रथा तब नहीं थी। नारी को पूर्ण रूप से शिक्षित किया जाता था। उसे हर वह विद्या सिखाई जाती थी जो पुरुष सीखता था- जैसे वेद ज्ञान, धनुर्विद्या, नृत्य, संगीत शास्त्र आदि। नारी को सभी कलाओं में दक्ष किया जाता था उसके बाद ही उसके विवाह के संबंध में सोचा जाता था।

विभिन्न राजवाड़े के युद्ध के बाद नारी का पतन होना शुरू हुआ। युद्ध के बाद समाज बिखरता गया, राष्ट्र राजनीतिक शून्य हो गया था और धर्म का पतन भी हो चला था। युद्ध में मारे गए पुरुषों की स्त्रीयां विधवा होकर बुरे दौर में फंस गई थी। राजनीतिक शून्यता के चलते राज्य असुरक्षित होने लगे। असुरक्षित राज्य में अराजकता और मनमानी बढ़ गई। इसके चलते नारियां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण की शिकार होने लगी। फिर भी यह दौर नारियों के लिए उतना बुरा नहीं था जितना की मध्य काल रहा।

पुराने समय में पुरुष के साथ चलने वाली नारी मध्य काल में पुरुष की सम्पति की तरह समझी जाने लगी। इसी सोच के चलते नारियों की स्वतंत्रता खत्म हो गई। मध्य काल में नए नए जन्मे तथाकथित धर्मों ने नारी को धार्मिक तौर पर दबाना और शोषण करना शुरू किया। धर्म और समाज के जंगली कानून ने नारी को पुरुष से नीचा और निम्न घोषित कर उसे उपभोग की वस्तु बनाकर रख दिया। वैदिक युग की नारी धीरे-धीरे अपने देवीय पद से नीचे खिसकर मध्यकाल के सामन्तवादी युग में दुर्बल होकर शोषण का शिकार होने लगी।

तथाकथित मध्यकालीन धर्म ने नारी को पुरुर्षों पर निर्भर बनाने के लिए उसे सामूहिक रूप से पतित अनाधिकारी बताया गया। उसके मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर पुरुष को हर जगह बेहतर बताकर नारी के अवचेन में शक्तिहीन होने का अहसास जगाया गया जिसके चलते उसे आसानी से विद्याहीन, साहसहीन कर दिया जाए। समाज, देश और धर्म के ‍नारी को अनुपयोगी बनाया गया ताकि वह अपने जीवन यापन, इज्जत और आत्मरक्षा के लिए पूर्णत: पुरुष पर निर्भर हो जाए। इस सभी तरह के भय और दहशत के माहौल के चलते हिन्दुओं में भी पर्दाप्रथा, बाल विवाह प्रथा और नारियों को शिक्षा से दूर रखने का चलन बढ़ गया।

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सबसे ज्यादा ग्यारहवीं शताब्दी  में मुग़लों के आक्रमण के बाद धर्म ग्रंथों से छेड़छाड़ हुई और नारी की स्थिति खराब होती गई। वो मुग़लों का शासन काल ही था जब युद्ध में हिन्दू राजाओं और सैनिकों को बन्दी बनाकर अथवा उनकी मृत्यु के पश्चात  नारियों ने मुगलों के हाथ अपना दुराचार कराने से पहले अपने पति की चिता के साथ ही मृत्यु का वरण कर अपने स्वाभिमान की रक्षा करना उचित समझा। यह हमारी स्त्रियों का साहस ही था जो उन्हें जलती अग्नि में स्वयं को समर्पित करने की शक्ति प्रदान करता था। यही प्रथा कालांतर में सती प्रथा के रूप में विकसित हुई यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं थी।

अब प्रश्न उठता है कि जब हमारे पूर्वजों ने पुरूष और महिला को एक ही संस्कार दिया तो वह इसका निर्वाह करते हुएं ‘श्राद्ध’ क्यों नहीं कर सकती ? हमारे पूर्वज महिलाओ ने हमें बहुत कुछ सिखाया जैसे माँ, मौसी, चाची, नानी, दादी ? तो उनको भी तो ‘तर्पण’ देना होगा ? पानी चढाने का काम तो लड़कियां और महिलाएं भी कर सकती हैं ? सिर्फ पितृ-दोष ही क्यूँ, मात्रु-दोष भी क्यूँ नहीं ?

समय आ गया है की हम इस पखवारे को ‘पूर्वज-पक्ष’ का नाम दें। हर महिला, पुरूष को अपने दिवंगत महिला/पुरुष पूर्वजों को धन्यवाद देने और स्मरण करने के लिए आमंत्रित करें। लेकिन,हम इस पखवाड़े को मात्र ‘पितृ-पक्ष’ के रूप में जानता है – पिता का पखवाड़ा, माताओं नहीं।

हमारे पूर्वजों का सम्मान, याद रखने और धन्यवाद करने की परंपरा पूरे पखवाड़े चलता है। हमारे पूर्वजों के प्रति हमारा सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करना लड़कों / पुरुषों, साथ ही साथ लड़कियों / महिलाओं द्वारा किया जाना चाहिए। आखिरकार, वे दोनों हमारे पूर्वजों हैं। तो महिलाएं अपने पूर्वजों को पानी क्यो नहीं दे सकतीं ?

इसके अलावा, परंपरा से पता चलता है कि ‘पितृ-दोष’ उन लोगों से जूझता है जो अपने पूर्वजों के लिए ‘श्रद्धा’ समारोह नहीं करते हैं। अगर महिला पूर्वजों को ‘श्रद्धा’ की पेशकश नहीं की जाती है, तो यह ‘मातृ-दोष’ भी हो सकता है?

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