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भट्टराई से उम्मीद , आलोक कुमार (AMAR_UJJALA)

लोकतंत्र बहाली के बाद से नेपाल में नेतृत्व की कमी निरंतर झलक रही है। ऐसे में कॉमरेड बाबूराम भट्टराई एक उम्मीद बनकर सामने आए हैं। भट्टराई का भारत से बेहतर रिश्ता है। इसलिए खुशी दिल्ली में भी है। नेपाल की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह चीन और भारत के बीच मौजूद है। दिल्ली हमेशा से महसूस करती रही है कि उत्तरी सीमा की सुरक्षा के लिए रोटी-बेटी के रिश्ते से जुड़े नेपाल का भारत उन्मुख रहना जरूरी है। नेपाल और चीन के बीच सीमा के तौर पर हिमालय के दुर्गम पर्वत हैं। इसलिए भी नेपाल के लिए भारत का महत्व है। फिर भी नेपाल में चीन की सक्रियता पिछले कुछ वर्षों से भारत के लिए चिंता का विषय है।

फिलहाल तीन महीने के लिए ही सही, भट्टराई का प्रधानमंत्री बनना थका देने वाली प्रक्रिया के उम्मीद भरे मुकाम पर पहुंचने की दिलचस्प कहानी है। भट्टराई घोर महत्वाकांक्षी कॉमरेड प्रचंड की पार्टी में रहकर अपने लिए कारगर समर्थन जुटाने की अथक मेहनत करते रहे। हालात से थक-हारकर प्रचंड तैयार हुए, तो मधेशी दलों के बिखरे नेताओं को भट्टराई के समर्थन में गोलबंद कर लिया गया। अब मुश्किल का हल निकालने के लिए भट्टराई ने नेपाल में राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनाने के लिए पहल करने की बात कही है। इससे नेपाल के नवनिर्माण में सभी दलों के नेताओं के शामिल होने की महत्वाकांक्षा जगी है।

राजशाही खत्म होने के बाद से नेपाल अस्थिर है। गणतंत्र बने तीन साल बीत गए, पर लोकतंत्र कायम करने का काम अधूरा है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया अधूरी है। संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन दो साल में नया संविधान बनाने के लिए हुआ था। लेकिन साल भर की देरी के बाद भी संविधान नहीं बना है। दो साल के लिए चुने गए प्रतिनिधि संविधान सभा के विस्तार के लिए फिर से जनता के बीच जाने के बजाय आपस में ही मिल-बैठकर सभा के कार्यकाल का विस्तार कर ले रहे हैं। निराश आम जनता ठगी-सी महसूस कर रही है और संविधान सभा के कार्यकाल विस्तारित करने का काम अनंत काल तक चलनेवाली प्रक्रिया में तबदील हो गया है। गणतांत्रिक संविधान के मुताबिक नेपाल में नया चुनाव होना था। नई विधायिका बननी थी। लेकिन तीन साल के विलंब के बाद भी यह काम निष्ठापूर्वक शुरू नहीं हो पाया है। सभासद संविधान बनाने में लगने के बजाय सरकार चला रहे हैं।

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नेपाल की राजनीति में अविश्वास का माहौल है। इसी कारण नित नए प्रधानमंत्री चुने जा रहे हैं। तीन साल की उम्रवाली संविधान सभा ने गिरिजा प्रसाद कोइराला से प्रधानमंत्री बदलने का जो काम शुरू किया, वह प्रचंड, माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खनाल से होता हुआ अब पांचवें प्रधानमंत्री के तौर पर बाबूराम भट्टराई पर आकर ठहरा है। कूटनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि प्रचंड का मन और मिजाज साफ होता, तो माओवादियों में अंदरूनी कलह हावी नहीं होती। भट्टराई ढाई साल पहले ही प्रधानमंत्री बन गए होते।

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राजनीतिक विश्वास की कमी की वजह से भट्टराई की चुनौती विकराल है। प्रधानमंत्री के तौर पर भट्टराई को महज नब्बे दिन का सीमित वक्त मिला है। संविधान सभा का विस्तारित मौजूदा कार्यकाल 30 नवंबर को पूरा हो रहा है। इस दौरान भट्टराई को संविधान बनाने के काम को सहजता से अंजाम तक पहुंचाना है।

प्रधानमंत्री बनाने और गिराने की जटिल राजनीतिक प्रक्रिया के बीच आम नेपालियों को हजार दिनों के बाद भी पता नहीं चल पाया है कि राजशाही से गणतंत्र कैसे अच्छा है। उनकी नजर में राजनीति एक चोखा धंधा बन गया है। लगातार प्रधानमंत्री चुनने में व्यस्त राजनेता चमचमाती गाड़ियों में घूम रहे हैं, जबकि आम जनता गरीबी का सामना कर रही है। नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे भारतीय राज्य बिहार में सड़कें चमचमा रही हैं। किसानों की आर्थिक स्थिति में बदलाव आ रहा है। दूसरी ओर, नेपाल की तसवीर बदरंग है। वहां प्रति व्यक्ति आय घटकर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। भूटान में हुए जरूरी सुधार के बाद नेपाल दक्षिण एशिया का सबसे पिछड़ा मुल्क करार दिया गया है।

नए प्रधानमंत्री को गणतांत्रिक सरकार के गठन का आभास देने के साथ संविधान बनाने का काम तो पूरा करना ही है, स्थायी शांति बहाली के लिए माओवादियों के समायोजन की व्यवस्था भी करनी है। भट्टराई से उम्मीद इसलिए भी बड़ी है कि वह आम सहमति की राजनीति के पक्षकार हैं। उनका सफल होना पार्टी की अंदरूनी राजनीति के लिए भी जरूरी है। इसके अलावा उन्हें ताक में बैठे नेपाली कांग्रेस के घाघ नेताओं और यूएमएल के राजनीतिज्ञ कम्युनिस्टों से भी पार पाना है। यह पहली बार है कि गणतांत्रिक राजनीति में नेपाली कांग्रेस और यूएमएल के बिना कोई सरकार बनी है।

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भट्टराई से आम नेपालियों को भी माओवादियों की शिकायत से न्याय मिलने का इंतजार है। आम आदमी की शिकायत है कि माओवादी लड़ाकों ने जनयुद्ध के नाम पर लोगों की संपदा और जमीनें हड़प रखी हैं। जनवादी लड़ाकों और आम जनता को साधे बगैर नेपाल में स्थायी शांति बहाली की उम्मीद धुंधली है। व्यवस्था में समावेशित होने के लिए तैयार पूर्व लड़ाकों की संख्या 19,000 बताई जा रही है। ये लोग सरकार द्वारा संचालित शिविरों से रह रहे हैं और पेंशन-भत्ता पा रहे हैं। फिर भी तीन वर्षों में इनकी विस्तृत पहचान का काम नहीं हो पाया है। अगर सशस्त्र लड़ाकों को स्वतंत्रता सेनानी बनाकर व्यवस्था में समावेशित करने की बात हो रही है, तो गांव-देहात और शहरों में रहकर राजशाही के खिलाफ लड़ने वाले अन्य राजनीतिक दलों के शहीद सदस्यों के परिजनों की भी सुध ली जानी चाहिए।

लेखक नेपाल के एक टीवी चैनल में मैनेजिंग एडिटर रहे हैं। FROM- AMARUJJAL (EDITORIAL)

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