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नेपाल में पुरातत्व–खोज की सम्भावना अधिक है : तारानन्द मिश्र, वरिष्ठ पुरातत्वविद्

तारानन्द मिश्र, वरिष्ठ पुरातत्वविद्

हिमालिनी अंक जुन २०१९ |तारानन्द मिश्र वरिष्ठ पुरातत्वविद् हैं, नेपाल की ऐतिहासिक वस्तुस्थिति, राजनीतिक इतिहास और संस्कृति में भी आप का उतना ही दखल है । नेपाल की प्राचीनतम अवशेषों के खोज–अनुसंधान में आपका महत्वपूर्ण योगदान है । विशेषतः कपिलवस्तु, लुम्बिनी, तिलौराकोट में स्थित बुद्धकालीन अवशेषों के खोज–अनुसंधान में आप ने उल्लेखनीय सहयोग किया है, जो पुरातत्व विभाग के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है । वीरगंज के स्थायी निवासी मिश्र जी अभी काठमांडू (चल्नाखेल) में रहते हैं । आपका जन्मः सन् १९३९ जुलाई १५ में हुआ है । आप के पिता जी का नाम जीवनेश्वर मिश्र और माता जी का नाम गोसवन दाई है । इतिहास, संस्कृति, पर्यटन आदि क्षेत्र से जुड़े हुए महत्वपूर्ण चार राष्ट्रीय सम्मानों से आप को सम्मानित किया गया है । नेपाल के ऐतिहासिक–स्थल और धर्म–संस्कृति के संबंध में आप के द्वारा लिखित ७ पुस्तकें प्रकाशित हैं । इन्हीं विषयों पर दर्जनों लेख भी विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित है । संक्षेप में कहें तो नेपाल के पुरातत्व के क्षेत्र में आप का नाम और योगदान अतुलनीय है । प्रस्तुत है ऐतिहासिक व्यक्तित्व तारानन्द मिश्र जी का जीवन–सन्दर्भ–

पारिवारिक पृष्ठभूमि
हम लोगों की आर्थिक पृष्ठभूमि सामान्य थी । हमारी कुछ जमीन तो थी, लेकिन पिता जी जमीन से हमेशा दूर भांगते थे, समाजसेवा में उनकी ज्यादा रुचि थी । हम लोग ५ भाई–बहन हैं । पैतृक सम्पत्ति के नाम में पिता जी ने हम लोगों को कुछ भी नहीं दिया । इसकी मुझे कोई शिकायत भी नहीं है । मेरे पिता जी पढ़ने के लिए कलकत्ता गए थे, नेपाल आते ही उन्होंने शिक्षक के रूप में काम करना शुरु किया था, वह शिक्षा प्रेमी थे ।

उन्होंने पहला मिडिल स्कूल मटिहानी (मधवापुर) में स्थापना की थी, जो भारत से सटा हुआ सीमा क्षेत्र है । मटिहानी में विशेषतः साह (तेली) जाति के लोग रहते हैं । उस वक्त उक्त समुदाय के लिए यह स्कूल वरदान साबित हुआ था । उक्त क्षेत्र (जनकपुर) में हिरण्य शमशेर राणा गभर्नर थे । उन्होने मेरे पिता को देखा था और प्रोत्साहित भी किया था । स्कूल स्थापना के दो साल के बाद ही स्थानीय डोनेसन से मीडिल स्कूल संचालन के लिए चार कमरे भी बन गए । लेकिन उसी समय भूकंप (वि.सं । १९९०) आया, जिसको हम लोग आज भी ९० साल का भूकंप के नाम से जानते है । भूकंप के कारण स्कूल का सारा भवन ध्वस्त हो गया । पिता जी निराश हो गए ।
उसके बाद पिता जी वीरगंज आ गए । वीरगंज में भी कोई स्कूल नहीं था । इण्डिया से कोई टेलिग्राफ मैसेज आता था तो पढ़नेवाला कोई नहीं था । सिर्फ दो ही व्यक्ति थे, एक मेरे पिता जी– जीवनेश्वर मिश्र और दूसरे भगवान द्विवेदी । द्विवेदी जी के साथ मिलकर मेरे पिता जी ने वीरगंज में एक हाईस्कूल स्थापना करने की योजना बनाई । साथ में संस्कृत के एक और पंडित जी भी थे । लेकिन उनका नाम अभी मुझे याद नहीं आ रहा है । इसके साथ–साथ स्थानीय लोगों ने भी मेरे पिता जी को स्कूल स्थापना के लिए प्रोत्साहित किया । विशेषतः नेवारी समुदाय (मानन्धर) के लोगों ने नैतिक और भौतिक सहयोग किया, उन लोगों का सम्बन्ध काठमांडू (श्री ३ जुद्ध शमशेर) से था । वीरगंज में व्यापार–व्यवसाय करते थे । मानन्धरों के बीच में ही जाकर मेरे पिता जी ने स्कूल स्थापना के खातिर चंदा मांगना शुरु किया ।

पूरा अन्तर्वार्ता सुनिए

चन्दा मांगते हुए मेरे पिता जी रघुवीरराम और महावीर प्रसाद दो भाईयों के बीच भी पहुँच गए । वे लोग कलवार जाति के हैं । बड़े भाई महावीर प्रसाद करोडी मल के रक्सौल स्थित व्यापारिक फर्म के मैनेजर थे, उनका व्यापार नेपाल में ही था । चन्दा संबंधी बात करोड़ी जी के समक्ष में भी पहुँच गयी । उन्होंने कहा– ‘मैंने नेपाल से बहुत कमाया है । हमारे ‘दानफण्ड’ में बहुत पैसा भी है । आप वीरगंज में स्कूल बनाए या धर्मशाला, हमारे दानफण्ड से आपको सहायता मिलेगी ।’ उसके बाद मेरे पिता जी ने चन्दा मांगना बंद कर दिया । स्कूल के लिए नक्सा बन गया, कुल अनुमानित खर्च १० हजार रुपैयां निकला । उसके बाद रघुवीरराम और महावीर प्रसाद ने कहा– ‘अगर १० हजार में ही स्कूल बन सकता है तो हम लोग मालिक (करोडी मल) से पैसा नहीं लेंगे, हम ही दे सकते हैं ।’ उन लोगों ने ऐसा ही किया । उस समय १० हजार में निर्मित त्रिजुद्ध हाईस्कूल भवन आज भी सेवारत है ।
मेरे पिता जी जनकपुर से वीरगंज आने के बाद गर्भनर हिरण्य शमशेर भी ट्रान्सफर होकर वीरगंज ही आए थे । पिता जी उनसे भी मिलने के लिए गए और कहा कि वीरंगज में एक स्कूल स्थापना होनी चाहिए । हिरण्य शमशेर राणा, नेपाली कांग्रेस के सम्मानित नेता सुवर्ण शमशेर राणा जी के पिता जी थे । नेपाल के प्रजातान्त्रिक आन्दोलन में सुवर्ण जी का बहुत बड़ा योगदान है, उस वक्त आन्दोलन के लिए जो भी खर्च होता था, सुवर्ण जी और महावीर शमशेर ही देते थे । हिरण्य शमशेर जी ने भी मेरे पिता जी को स्कूल स्थापना के लिए प्रोत्साहित किया और कहा– ‘आप आगे बढि़ए, स्कूल को मान्यता देने के लिए मैं प्रयास करुंगा । उस वक्त जुद्ध शमशेर प्रधानमन्त्री थे । राजा से ज्यादा शक्तिशाली प्रधानमन्त्री ही होते थे । अर्थात् जुद्ध शमशेर को भी लोग राजा ही समझते थे । हिरण्य जी ने स्कूल को मान्यता दिलाने के लिए प्रयास भी किया और ५ कमरे का एक भवन भी बनाया । स्कूल स्थापना होने के बाद उसको आगे बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रध्यानाध्यापक अमृतप्रसाद प्रधान, मदनमणि दीक्षित कृष्णबहादुर मानन्धर का योगदान अतुलनीय है । दीक्षित जी के ही योगदन के कारण उक्त हाईस्कूल का नाम राष्ट्रीय स्तर में बारबार चर्चा में आया है । इस विद्यालय ने कई बार एसएलसी परीक्षा में प्रथम तथा द्वितीय स्थान हासिल की है । इसतरह स्थापित हो गया त्रिजुद्ध हाईस्कुल ।

मेरी औपचारिक पढ़ाई वही से शुरु हुई थी । वही से मैंने एसएलसी पास किया । यह वि.सं । २००९ साल की बात है । उस समय पढ़ने–लिखनेवालों के लिए वीरगंज में आज की तरह नेपाली भाषा प्रयोग में नहीं आया था । एक विषय नेपाली भी था । लेकिन एसएलसी देते वक्त हम लोग हिन्दी में लिखते थे । सिर्फ एसएलसी ही नहीं, क, ख, ग से ही हम लोग हिन्दी में पढ़ा करते थे ।
मेरे पिता जी ने वीरगंज (श्रीपुर) में भी एक और हाईस्कूल बनाया । उन्होंने ही ‘नेपाल राष्ट्रीय विद्यापीठ’ नामक तीसरी शैक्षिक संस्था भी शुरु की । उक्त विद्यापीठ की मान्यता एसएलसी की तरह थी । तत्कालीन शिक्षा मन्त्री विश्वबन्धु थापा ने यह मान्यता दिलाई थी । यहां सभी भाषा (नेपाली, नेवारी, मैथिली, अवधि, थारु) में पढ़ाई होती थी । उन्होने ही नेपाल के सभी भाषाओं को महत्व देने के लिए संघर्ष किया था । आज वीरगंज में जो ठाकुरराम कैंपस है, वह भी मेरे पिता जी के ही पहल में शुरु हुआ था । श्री रघुवीरराम और महावीर प्रसाद के पिता जी का नाम है– ठाकुरराम । उनके नाम से ही कैंपस स्थापना किया गया । कैंपस स्थापना के लिए आवश्यक जमीन और आर्थिक सहयोग रघुवीरराम, महावीर प्रसाद और पशुपति घोष जैसे व्यक्तित्व ने किया ।
त्रिजुद्ध हाईस्कुल के हेडमास्टर थे– कृष्णबहादुर मानन्धर । वह गौर के निवासी थे । उनको ही ठाकुराम कैंपस में प्रिन्सिपल बनाया गया । ठाकुरराम कैंपस का मैं दूसरे बैच का विद्यार्थी हूँ । मैंने यही से आईए पास किया है । उस वक्त त्रिभुवन विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं हुई थी । आईए की परीक्षा पटना युनिवर्सिटी (भारत) से संचालित होती थी । आईए की परीक्षा देने के लिए मैं और मेरे कुछ साथी (११–१२ की संख्या में) लोग पैदल चलकर काठमांडू आए थे । वीरगंज, अमलेखगंज, भीमफेदी होते हुए हम लोग काठमांडू आते थे । हमारे साथ हमारे ही बैच (वि.सं । २००९ के एसएलसी) के बोर्डफस्ट विद्यार्थी बाबुलाल अग्रवाल भी थे । यह मेरी प्रथम काठमांडू यात्रा थी । लेकिन काठमांडू आते ही राजा त्रिभुवन का निधन (वि.सं । २०११) हो गया । उनकी दाहसंस्कार में हम लोग भी दर्शक के रुप में सहभागी थे । परीक्षा एक महीना के लिए स्थगित हो गया । उसके बाद हम लोग वापस हो गए और फिर एक महीने के बाद आकर परीक्षा दी । एक महीना के बाद मुझे लगा कि काठमांडू का वातावरण तो अच्छा है । ठंडी हवा–पानी, हिमाल–पहाड़ की प्राकृतिक सौन्र्दय मुझे भा गई थी । उसके बाद मैंने पिता जी को कहा– मैं तो काठमांडू में ही पढूंगा । पिता जी भी खुशी–खुशी राजी हो गए ।
काठमांडू में भी रघुवीरराम जी का बिजनेज था, जिसके चलते यहां रहने में मुझे आसानी हो गई । उनके ही गद्दी में आकर कुछ दिन रहा भी । आईए पास होने के बाद त्रिचन्द्र कॉलेज में एडमिशन लिया । विषय चयन के लिए गोविन्दबहादुर मानन्धर (धुस्वाँ सायमी, प्रख्यात उपन्यासकार) से विचार–विमर्श करने के लिए पिता जी ने कहा था । उनके पिता जी त्रिचन्द्र में गणित के प्रोफेसर थे । मेरे पिता जी और उनके पिता जी के बीच दोस्ती भी थी । उस वक्त डा. गोकुलचन्द्र मल्होत्रा, गोविन्दबहादुर मानन्धर, हितनारायण झा जैसे व्यक्तित्व थे । उन लोगों ने ही त्रिचन्द्र कॉलेज में ‘प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति’ विषय के अध्यापन की शुरुआत करवायी थी । उन लोगों की सलाह से ही मैंने प्राचीन इतिहास तथा संस्कृत विषय को लेकर पढ़ने का निर्णय लिया । इस नवीनतम विषय के त्रिचन्द्र कॉलेज में हम लोग प्रथम बैच के विद्यार्थी थे । वहीं से मैंने बीए पास किया । उसके बाद पटना युनिवर्सिटी (भारत) से एम ए (सन् १९६०) किया । प्रो. गोकुलचन्द्र का आदेश था कि आप संस्कृति में ही एम ए करना । मेरी चाहत पॉल्टिकल साइन्स की ओर भी थी, लेकिन मैंने इतिहास, संस्कृत और पुरातत्व ही पढ़ा ।
नेपाल वापस होने के बाद भक्तपुर कॉलेज में इतिहास विषय को लेकर पढ़ाना शुरु किया । तीन महीना तक ही पढ़ाया था, भारत सरकार कोलम्बो प्लान के अन्तर्गत छात्रवृत्ति के लिए सूचना निकल गई । मैंने दो विषय के लिए एप्लाई किया– एक लखनउ युनिवर्सिटी से पीएचडी (पुरातत्व में) करने के लिए और दूसरा पुरातत्व में ही पोस्ट ग्रेजुएड डिप्लोमा (दो साल की) के लिए । दोनों में सेलेक्सन हो गया, लेकिन मैंने सोचा कि मैं पीएचडी तो कभी भी कर सकता हूँ । इसीलिए पोस्ट ग्रेजुएट कोर्ष के लिए मैं दिल्ली चला गया । सन् १९६४ में कोर्ष पूरा कर मैं नेपाल वापस हो गया । पुरातत्व विभाग में नौकरी करते वक्त मुझे अमेरिका के रॉक फाउण्डेशन थर्ड द्वारा प्रयोजित युनेस्को रोम सेन्टर में प्रचीन वास्तु तथा उत्खनन् वास्तु संरक्षण संबंधी विषय का प्रशिक्षण लेने का अवसर भी प्राप्त हुआ है ।
धुँस्वा सायमी, प्रो. गोकुलचन्द्र जी का आदेश मैंने मान लिया था । अगर प्राचीन इतिहास, संस्कृति तथा पुरातत्व अध्ययन नहीं किया होता तो में पोल्टिकल साइन्स पढ़ता । पोल्टिकल साइन्स के प्रति मेरी बहुत ही रुचि थी । अगर इस विषय को छोड़कर पोल्टिकल साइन्स ही पढ़ता तो मैं आज इसी विषय का प्रोफेसर होता, नहीं तो राजनीति में होता । क्योंकि पोल्टिकल साइन्स में आज भी मेरी बहुत ही रुचि है । नेपाल सहित विश्व–राजनीति के बारे में ज्ञान रखता हूँ ।

कर्म क्षेत्र में प्रवेश
पुरातत्व में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने लोकसेवा आयोग की तैयारी की । लोकसेवा पास कर वि.सं । २०२१ साल भाद्र १६ गते से मैंने पुरातत्व विभाग में प्राविधिक अधिकृत के रूप में ज्वाइन किया । उस वक्त पुरातत्व विभाग में रमेशजंग थापा डाइरेक्टर थे । बनारस युनिवर्सिटी से उन्होंने एम.ए. पास किया था । विभाग में विभिन्न प्राविधिक विषयों का संगठन निर्माण तथा पदाधिकारी नियुक्ति का श्रेय थापा जी को ही जाता है । प्राविधिक और प्रशिक्षित व्यक्ति के रूप में मैं विभाग के लिए पहला व्यक्ति हूँ । पुरातत्व संबंधी विषय में पोस्ट ग्रेजुएट करनेवालों में से नेपाल के लिए मैं दूसरा व्यक्ति हूँ । प्रथम व्यक्ति थे– पश्चिम नेपाल (भैरहवा आसपास) के प्रो. रामनिवास पाण्डे ।
व्यक्तिगत रूप में मेरा और डाइरेक्टर थापा जी का संबंध बहुत मधुर रहा । उन्हीं के निर्देशन में मैंने काम शुरु किया था । प्रथम उत्खनन् मैंने हाँडीगांव (काठमांडू) स्थित मनमानेश्वर मन्दिर के सामने किया था । उत्खनन् में मैंने ही महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की । लेकिन उसमें मेरा नाम सिर्फ सहभागी के रूप में ही सीमित कर दिया गया । आज भी मैं इस बात से असन्तुष्ट हूँ ।
उसी समय प्रो. बी. देव ने लाजिम्पाट में उत्खनन् किया था, वहां से उनको महत्वपूर्ण कुछ भी दस्तावेज नहीं मिला । देव ने ही इससे पहले लुम्बिनी के पास रहे बंजरही और पैसिया में उत्खनन् किया था । वे त्रिभुवन विश्वविद्यालय में भारतीय सहयोग नियोग की तरफ से संस्कृति तथा पुरातत्व के लिए विभागीय प्रमुख भी थे ।

थापा जी से पहले सत्यमोहन जोशी जी डाइरेक्टर के रूप में थे । जोशी जी ही ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने विभाग को संगठित और व्यवस्थित बनाया था, वह ग्रेजुएट थे । उनसे पहले सरदार रुद्रराज पाण्डे और सूर्यविक्रम ज्ञावली डाइरेक्टर के रूप में कार्य कर चुके थे । जोशी जी ने ही पहली बार काठमांडू स्थित भारतीय सहयोग नियोग के पदाधिकारी से आग्रह किया था कि आप लोग भारतीय पुरातत्व विभाग के डाइरेक्टर जनरल ‘ए घोष’ को सात दिनों के लिए काठमांडू बुला दीजिए । उनकी बात मान ली गई । श्री ए घोष काठमांडू आ गए । उनसे आग्रह किया गया– ‘यहां के पुरातत्व विभाग के लिए एक संगठन–तालिका और कार्यविधि बना दीजिए । कर्मचारियों की योग्यता के बारे में भी विचार–विमर्श किया गया । डाइरेक्टर जनरल ए घोष ने सात दिनों में लिखित रूप में अपनी राय दी । उन्होंने अपने सुझाव में लिखा था कि पुरातत्व विभाग का डाइरेक्टर ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में कम से कम एम.ए. हो । और उन्होंने यह भी कहा कि हर साल नेपाल से एक व्यक्ति भेजिए, जिसको हम लोग पुरातत्व में पोस्ट ग्रेजुएशन का प्रशिक्षण दे सकें । उन्होंने ही नेपाल को कुछ और प्रोजेक्ट भी दिया । प्रथमतः उन्होंने प्रश्नोत्तरकाल के सर्वेक्षण के लिए भारत से एक बहुत बडा विशेषज्ञ आर.बी. जोशी जी को नेपाल भेज दिया ।
इसीतरह प्रो. कृष्णदेव को भी उन्होंने नेपाल भेजा । नेपाल के मूर्तिकला और स्थापत्यकला संबंधी विषयों में पुस्तक लिखने के लिए कृष्णदेव जी नेपाल आए थे । भारत सरकार की सहयोग से उन्होंने जो पुस्तक प्रकाशित किया, वह नेपाल के मूर्तिकला और स्थापत्यकला संबंधी विषयों को समेटकर लिखी गई पहली पुस्तक है ।

कपिलवस्तु और लुम्बिनी में वृहत उत्खनन्
हम लोगों ने वि.सं । २०२३ सालों से कपिलवस्तु में उत्खनन् शुरु किया था । लुम्बिनी में प्राविधिक उत्खनन् करनेवालों में पहला व्यक्ति मैं ही हूँ । आज कपिलवस्तु में आप लोग जो कुछ (इस्टर्न गेट–वे, वेस्टर्न गेट–वे, धमबहवा स्तुप) भी देखते हैं, उसका सफल उत्खनन् और जीर्णोद्वार मैंने ही किया । वहां मैंने १०–१२ साल काम किया है । बाद में लोकदर्शन बज्राचार्य की अध्यक्षता में लुम्बिनी विकास समिति बनाया गया । उन्होंने मुझसे कहा– ‘कपिलवस्तु में बहुत काम हो गया है, अब आप लुम्बिनी आईए ।’ उस समय मेरे ही एसिस्टेन्ट बाबुकृष्ण रिजाल लुम्बनी में काम कर रहे थे । रिजाल धीरे–धीरे काम करते थे । मुझे पता था कि उनके साथ वहां बहुत दुव्र्यहार होता था । इसीलिए मैं वहां नहीं जाना चाहता था । लेकिन लोकदर्शन जी ने ही रिजाल को हटाकर वहां मुझे पदस्थापन किया । इसतरह वहां काम करने के लिए मैं बाध्य हो गया । ४ साल तक मैंने लुम्बिनी में रहकर काम किया । यहां के लगभग ८० प्रतिशत वास्तुकला का उत्खनन् और जीर्णोद्वार मैंने ही किया है ।

श्रीमती देवाला मित्रा का उत्खनन् और विवाद
सन् १९६२ की बात है, भारतीय सहयोग अन्तर्गत तिलौराकोट (कपिलवस्तु) उत्खनन् के लिए भारत से श्रीमती देवाला मित्रा आई थीं । अपने उत्खनन् के बाद उन्होंने जो रिपोर्ट दिया, वह विवादित बन गया । श्रीमती मित्रा ने अपने रिपोर्ट में कहा है कि प्राचीन कपिलवस्तु, तिलौराकोट नहीं है । जनकलाल शर्मा ने उक्त उत्खनन् टीम में नेपाल से प्रतिनिधित्व किया था । श्रीमती मित्रा का कहना था कि तीसरी शताब्दी ईसापूर्व से पहले का कोई भी अवशेष तिलौराकोट में नहीं है । उनके द्वारा इस तरह का प्रोफेशनल रिपोर्ट आने के कारण विभाग में बहस शुरु हो गयी थी ।
उससे पहले ही प्रो. बी देव ने लुम्बिनी के पास रहे बंजरही गांव में उत्खनन् किया था । डाइरेक्टर रमेशजंग थापा जी ने मुझसे कहा कि बंजरही और तिलौराकोट की पुरातात्विक वस्तु आप स्टोर में देखिए और तुलना कीजिए । उनका प्रश्न था कि श्रीमती मित्रा ठीक है या गलत ? विभागीय विचार–विमर्श के बाद मैंने अध्ययन शुरु किया । अध्ययन के बाद मेरा निष्कर्ष रहा– कपिलवस्तु से प्राप्त पुरातात्विक वस्तु ६०० इसापूर्व से भी प्राचीन है, जो श्रीमती मित्रा जी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को गलत साबित कर रहा था । उसके बाद विभाग ने निर्णय किया कि मिसेज मित्रा अगर अपनी गलती को स्वीकार कर अपने रिपोर्ट में उल्लेखित मिति को इसापूर्व ६०० बनाती है, तब ही हम लोग उक्त रिपोर्ट को छापेंगे, नहीं तो नहीं छापेंगे ।
उसके बाद विभाग ने यह भी निर्णय किया कि अब भारतीय पुरातत्वविद् का लुम्बिनी और कपिलवस्तु के बारे में सहयोग न लें । क्योंकि हम लोगों को महसूस हो रहा था कि वे लोग पूर्वाग्रही होते जा रहे हैं । कहने लगे थे कि कपिलवस्तु नेपाल में नहीं, भारत में है । खैर ! यह विवाद आज का नहीं है । यह तो डा. भीनसेन्ट स्मिथ (अंग्रेज शासक) का ही मत है । भीनसेन्ट स्मिथ भारतीय सरकार के आईसीएस अफिसर भी थे, भारतीय इतिहास पर उनकी बहुत सारी किताबें हैं । स्मित ने ही अपने स्टेटमेन्ट में कहा है कि युवान–स्याङ्ग (७वीं शताब्दी के चीनी यात्री)का देखा हुआ तिलौराकोट ही कपिलबस्तु है और उन्होंने ने यह भी कहा है कि फासियान (५वीं शताब्दी के चीनी यात्री) ने कपिलबस्तु के रूप में जिस जगह का भ्रमण किया, वह क्षेत्र पिपरहवा है ।
दो कपिलवस्तु के संबंध में उन्होंने ही विवाद शुरु किया था । इसतरह तिलौराकोट विवाद के घेरे में पड़ गया । उसके बाद कई लोग पिपरहवा को ही कपिलवस्तु मानने लगे । लेकिन उससे पहले ही सन् १९८८ में प्रथम सर्वेयरश्री पूर्णचन्द्र मुखर्जी (भारतीय पूरातत्वविद्) ने कहा था कि प्राचीन कपिलवस्तु तिलौराकोट ही है । उससे दो वर्ष पहले डा. फुरर (जर्मन के नागरिक) भी आए थे । डा. फुरर और खडगविक्रम शाह (पाल्पा के गभर्नर) ने मिलकर लुम्बिनी स्तम्भ को खोजा था । उन लोगों ने भी स्पष्ट कहा है कि तिलौराकोट ही असली कपिलवस्तु है । आज कपिलवस्तु के संबंध में जो भी विवाद है, वह दो अंग्रेजों (डा. भीनसेन्ट स्मिथ और फ्लिट) से सार्वजनिक स्टेटमेन्ट से सिर्जित विवाद है । इसमें मिसेज मित्रा भी दिंगभ्रमित हो गई । फासियान और युवान स्याङ्ग ने अपने भ्रमण के दौरान जो कुछ भी वर्णन किया है, वह सभी लुम्बिनी तथा कपिलवस्तु में वर्तमान में है । उन लोगों के वर्णन अनुसार लुम्बिनी के किनारे में तेलार नदी है, जन्मस्थल में अनेक–काल (चौथी शताब्दी इसापूर्व, तीसरी शताब्दी इसापूर्व और ७वीं शताब्दी इस्वी तक) के ईंट द्वारा निर्मित मन्दिर है । इतना ही नहीं, शाक्य स्नानागर (पोखर) और स्तुप तथा बौद्ध बिहार का अवशेष भी वही से मिला है ।
प्रचीन लुम्बिनी का सबसे बड़ा प्रमाण तीसरी शताब्दी इसापूर्व में राजा अशोक द्वारा स्थापित अभिलेख सहित का स्तम्भ है । उस अखिलेख में स्पष्ट लिखा है कि यही लुम्बिनी ग्राम है, जहां भगवान शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ है । दूसरा प्रमाण है– गुप्तकालीन मुर्ति, जो मथुरा के लाल पत्थर से बना हुआ है । इसके अलावा उक्त मुर्ति स्थापना के लिए बना हुआ गुप्तकालीन ईटों से निर्मित मन्दिर भी है । तीसरा प्रमाण है, लुम्बिनी से प्राप्त कुशानकालीन बुद्ध मुर्ति । इन सारे तथ्यों से प्रमाणित होता है कि प्राचीन लुम्बिनी वही है । हाल ही के उत्खनन् से पता चला है कि अशोक स्तम्भ में उल्लेखित लुम्बिनी ग्राम का अवशेष बुद्धजन्मस्थल के अवशेष के दक्षिण में है ।

पिपरहवा विवाद क्या है ?
पिपरहवा और तिलौराकोट दोनों प्राचीन शाक्य गणराज्य का ही हिस्सा है । बुद्ध के परिनिर्माण के बाद शाक्यों ने अपने हिस्से के अस्थि–कलश पर पिपरहवा में भी एक निर्वाण चैत्य (स्तुप) बनाया था । पिपरहवा स्तुप से तीसरी शताब्दी ईसापूर्व का अभिलेख मिला है । उक्त अभिलेख में स्पष्ट रूप में उल्लेख है– ‘यह चैत्य भगवान बुद्ध के शाक्य भाई–बहन और पत्नी मिलकर निर्माण किया है ।’ लेकिन यहां नगर का कोई भी अवशेष नहीं है । पिपरहवा के बगल में गनवरिया गांव है, वहां से ताम्र–प्रस्तरकालीन और आर्यकालीन अवशेष मिला है । यही से अभिलेखित मिट्टी की मुद्रा और कुशानकालीन मुद्रा भी मिली है । उसमें उल्लेख है– ‘कपिलवस्तु भिक्षु संघस्य ।’ अर्थात् इस जगह में कपिलवस्तु भिक्षु संघ का वास था । उसी ‘कपिलवस्तु भिक्षु संघ’ को ही कुछ भारतीय पुरातत्वविदों ने ‘कपिलवस्तु नगर’ बना दिया, जिसके चलते ही यह विवाद आया है ।

राजाओं द्वारा प्रोत्साहन
मेरे हर उत्खनन् के बाद तत्कालीन राजा वीरेन्द्र शाह देखने के लिए आते थे । वह कहते थे– ‘आप अपना काम कीजिए, दूसरे व्यक्ति किस तरह का हल्ला करते हैं, उसके पीछे मत पडि़ए ।’ लुम्बिनी और कपिलवस्तु उत्खनन् में उन्होंने मुझे नैतिक सहयोग दिया । जिस वक्त पिपरहवा भर्सेज तिलौराकोट का मुद्दा बहस में आया था, उस वक्त श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवद्र्धन तिलौराकोट भ्रमण करना चाहते थे । राजा वीरेन्द्र से बात कर वह नेपाल आए । राष्ट्रपति जयवद्र्धन ने राजा वीरेन्द्र के सामने मेरे समक्ष कई सवाल किए, जो लुम्बिनी, कपिलबस्तु तथा पिपरहवा के संबंध में था । मेरे जवाब से जयवद्र्धने जी पूर्ण सन्तुष्ट हो गए थे । राजा महेन्द्र के शासनकाल में भारतीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी नेपाल भ्रमण में आई थी । उस वक्त गांधी जी ने ऐतिहासिक शहर भक्तपुर घूमने के लिए इच्छा व्यक्त की । गांधी जी को मैंने ही भक्तपुर की ऐतिहासिक वस्तुस्थिति के बारे में वर्णन किया था । इसीतरह युएन के सेक्रेटरी जनरलवल्र्ड ह्याम भी लुम्बिनी भ्रमण में गए थे और उन को भी मैंने ही लुम्बिनी की ऐतिहासिकता के संबंध में वर्णन किया था ।

पि५ले पुरातात्विक अन्वेष०ा
नेपाल के मुस्ताङ जिला में अभी तक विदेशियों (जर्मन, अमेरिकन) के द्वारा जितना भी उत्खनन् हुआ है, उसको पूर्व–ऐतिहासिक काल कहा गया है । लेकिन मेरे अध्ययन से वह ताम्रप्रस्तर युग (चाल्कोलेथिक पिरियड) है । मुस्ताङ, मनाङ, डोल्पा आदि जिलों के उत्खनन् से हड़प्पा युग से मिलता–जुलता बहुत अवशेष मिला है । अर्थात् यह महाजनपद से पहले का अवशेष है । जनपद से आगे का काल अर्थात् ताम्रप्रस्तर युग का अवशेष लुम्बिनी, पिपरहवा और गोटिहवा में भी मिला है । भारत के बिहार तथा उत्तर प्रदेश एवं गोटिहवा से प्राप्त अवशेष तथा नेपाल के मनाङ–मुस्ताङ की अवशेष आपस में मिलता–जुलता और तुलनायोग्य भी है, जो समान कालखण्ड (ईसापूर्व १५००–७००) का है ।
गण्डकी पूर्व में पहले हम लोगों ने आर्यकालीन (६ सौ से ३ सौ इसापूर्व) अवशेष नहीं पाया था । आर्यकालीन स्थल सिर्फ गण्डकी तक ही मिला था । लेकिन हालसाल के ही उत्खनन् से पता चला है कि गण्डकी से पूर्व में भी आर्यकालीन अवशेष है । इसीतरह नवलपरासी के रामग्राम नगर का भी हम लोगों को दो शहरी क्षेत्र मिला है, एकः सामान्य शहर और दूसराः प्रशासनिक शहर । जो कोली गणराज्य की राजधानी है । यहां भी तिलौराकोट की तरह ही पुराने मिट्टी और काठ से निर्मित (५०० ईसापूर्व) के दीवार प्राप्त है । नवलपरासी स्थित स्तूप से ८ किलोमीटर पश्चिम–उत्तर में यह गांव पंडितपुर अवस्थित है । इसका उत्खनन् भी मेरे ही नेतृत्व में हुआ है । शाक्य गणराज्य और कोली गणराज्य के बीच ब्याह–शादी की परम्परा थी । भगवान गौतम बुद्ध की माँ मायादेवी रामग्राम की ही बेटी थी । उनकी पत्नी यशोधरा भी रामग्राम निवासी ही थी ।
पूर्वी नेपाल में भी कुछ नये पुरातात्विक स्थल मिले हैं । मोरङ जिला स्थित बेलबारी (सिमसार) क्षेत्र में आर्य सभ्यता के कुछ अवशेष हम लोगों को प्राप्त हुआ है । इस क्षेत्र में हम लोगों ने दो साल तक उत्खनन् किया है । सिरहा जिला स्थित गोविन्दपुर गांव के उत्तरी दिशा में रहे ‘खप्टेडांडा’ से भी आर्यकालीन अवशेष प्राप्त है, जो पूर्वप्रस्तर काल तथा नव प्रस्तर काल (का पूरा अवशेष है ।
चुरे पर्वत के गई जगहों में मैंने अध्ययन किया है । यहां भी बहुत सारे प्रि–हिस्टोरिकल (प्रस्तरकालीन) अवशेष प्राप्त है । प्रस्तरकाल का तीन चरण है । प्रथम चरण को हम लोग प्राचीन प्रस्तरकाल (प्यालियोलिथ) कहते है, जो १ लाख ५० हजार से ४० हजार वर्ष पुराना समय है । दूसराः मध्य प्रस्तरकाल (मेसोलेथि माइक्रोलिथ) है, जो ४० हजार से २० हजार वर्ष पुराना समय है । और तीसरा नवपाषणकाल (नियोलिथ) है, जो ८ हजार से २ हजार वर्ष पुराना है । इन तीनों काल के अवशेष दाङ (देउखुरी) से लेकर झापा तक पाया गया है ।

जनकपुर प्राचीन मिथिला नहीं है
सबसे बड़ा तथ्य तो यह भी है कि आज का जनकपुर शहर प्राचीन मिथिला नगरी नहीं है । कर्नाटककाल से पहले का कोई भी अवशेष यहां से प्राप्त नहीं हुआ है । पुरातत्व विभाग को धनुषा में ही ‘मुसहरनिया’ नामक गांव में एक नयां पुरातात्विक स्थल मिला है, जो जनकपुर और मटिहानी के बीच में है, यहां आर्यकालीन सभ्यता पाया गया है । यही स्थल जनकपुर होने की सम्भावना है । मध्यकालीन मिथिला राजधानी सिम्रौनगढ (बारा) है । जनकपुर में सिर्फ कर्नाटक कालखण्ड और कुशान कालखण्ड के अवशेष है, जो ६००–८०० इसापूर्व का माना जा सकता है । मुसहरिनिया में प्राप्त अवशेष के बारे में पुन परीक्षण होना बांकी है, जिसमे पुरातत्व विभाग लगा है ।

नेपाल के मूल निवासी
नेपाल के मूलबासी यहां के आदिवासी–जनजाति हैं । लेकिन किरात और नेवार आदिवासी जनजातियों में से नहीं है । अर्थात् नेपाल में आज तक जो भी शासक वर्ग के रूप में रहे हैं, असल में वह यहां के मूलबासी नहीं है । हां, आर्य और किरातों का प्रवेश नेपाल में ऐतिहासिक काल में ही हुआ है । खोज–अनुसंधान से पता चला है कि इस देश में आर्यों का प्रवेश पांचाल प्रदेश, राजस्थान, पंजाब आदि क्षेत्र से हुआ है । किरातों का प्रवेश थाईदेश, बर्मा, आसाम से हुआ है । नेपाल में आर्यों का प्रवेश सर्वप्रथम मिथिला में हुआ था, उसके बाद क्रमशः वे लोग कर्णाली प्रदेश और नेपाल मण्डल तक आ गए । इसतरह देखते हैं तो नेपाल के जातियों का ३ वर्गीकरण किया जा सकता है । प्रथमः यहां के सारे आदिवासी–जनजाति, दूसराः पूर्व (आसाम) से प्रवेश करनेवाले किराती समूह और तीसरा आर्य जाति, जिसने पश्चिम से प्रवेश किया था ।
आर्य सांस्कृतिक समूह नेपाल के पुराने सांस्कृतिक समूह में से हैं । गण्डकी से लेकर कोशी तक और चुरे–पहाड से लेकर गंगा तक के क्षेत्र में मिथिला संस्कृति का अवशेष प्राप्त है । जनककालीन मिथिला राज्य भी यही है । नेपाल–भारत के बीच आज जो सीमा है, वह विस्तारवादी शक्ति अंग्रेजों ने बनाया है । भारतीय साम्राज्य में मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए और गोरखाली सेना के उपयोग के लिए उन लोगों ने आज की सीमा का निर्धारण किया था । उस वक्त राणा प्रधानमन्त्री जंगबहादुर राणा अंग्रेजों के पक्ष में थे । कोतपर्व, भण्डारखाल पर्व जैसे जो भी हत्याकाण्ड दरबार में हुए हैं, उसमें जंगबहादुर ने दरबार में रहे सभी ब्रिटिस–विरोधी शक्ति का सफाया किया । क्योंकि अंग्रेजों की ओर से जंगबहादुर को आश्वासन मिला था कि आप को ही राजा बनाया जाएगा । इसके संबंध में लखनउ में गोप्य सम्झौता भी की गई थी । जब जंगबहादुर अपने मिशन में सफल हो गए तो उन्होंने अग्रेजों से कहा– ‘अब मुझे राजा बनाइए ।’ लेकिन भारत में रहे अंग्रेज शासक इसके लिए तैयार नहीं थे । जंगबहादुर आवेश में आकर ३० हजार सैनिक लेकर शिकार के लिए निकले । उसके बाद अंग्रेज शासक डरने लगा । क्योंकि बुटवल, सिन्धुली जैसे कई जगहों में नेपाली सेना (गोरखाली) से अग्रेजों को बुरी तरह पराजित होना पड़ा था । इसीलिए वह पुनः नेपाल के साथ युद्ध करने के पक्ष में नहीं थे । जिसके चलते नेपाली सेना की सुविधा के लिए मध्य–तराई के कुछ भू–भागों को उन लोगों ने नेपाल के लिए छोड़ दिया ।
पूर्वी और पश्चिमी तराई को सेन वंशीय (मुगल) राजाओं ने नियन्त्रण में लिया था । लेकिन तराई के जंगलों में मुगलों का कोई भी रुचि नहीं था । मिथिला के राजा और सेन राजाओं के बीच बारबार लड़ाई भी होती रही है । उस वक्त सिम्रौनगढ (बारा) बेतिया के राजा के अन्तर्गत पड़ता था, जिसकी सीमारेखा बागमती नदी तक थी । बाद में जब मिथिला खतम हो गया, तब मैथिली और भोजपुरी भाषा के बीच समिश्रण हो गया । समिश्रण से जो भाषा बनी, उसको ‘बज्जिका’ भाषा के नाम से गलत ‘उपमा’ दिया जा रहा है ।

मेरी दुखद अनुभूति
मैंने वि.सं । २०२१ साल में पुरातत्व विभाग में प्रवेश किया था । उसके ५–६ साल के बाद वहां सेकण्ड क्लास अफिसर के लिए एक और पोस्ट बनाया गया । उस समय डाइरेक्टर जनरल भी सकेण्ड क्लास के ही होते थे । रमेशजंग थापा डाइरेक्टर जनरल के रूप में थे । उस समय शैक्षिक योग्यता, दक्षता और अनुभव में सबसे सिनियर मैं ही था । मैं उस संस्था में प्रवेश करने के दो साल बाद साफल्य आमात्य जी ने प्रवेश किया था । साफल्य जी वही थे, जिनके मामा–सब दरबार के ‘माथेमा’ खानदान से जुड़े हुए थे । राजा त्रिभुवन के प्राइभेट सेक्रेटरी भी माथेमा ही थे । आमात्य जी ने इतिहास में एम.ए. किया था । वि.सं । २००७ साल की जनक्रान्ति संबंधी विषय में दिल्ली युनिवर्सिटी से उन्होंने पी.एच.डी. किया था । लेकिन पुरातत्व से उनका कोई भी लेना–देना नहीं था । ऐसी अवस्था में नयां बनाया गया पद और नेतृत्व के लिए मेरा दावेदारी होना स्वाभाविक था । लोकसेवा आयोग ने भी मुझे ही प्रमोशन दिया, जो गोरखापत्र में भी प्रकिाशत हो चुका था । ऐसी पृष्ठभूमि में एक महीना के बाद आमात्य जी लोकसेवा के सारे फाइल मंगवा के दरबार ले गए । पाल्पा के नारायण प्रसाद श्रेष्ठ राजा वीरेन्द्र के निजी सचिव थे । साफल्य जी की शादी भी पाल्पा में ही हुई थी । क्या–क्या किया गया, पता नहीं । लेकिन एक महीने के बाद आमात्य जी को प्रमोशन मिल गया । मुझे थर्डक्लास में ही रहना पड़ा । यह मेरे जीवन की सबसे दुःखद अनुभूति है । उसके बाद १९ साल के बाद ही मुझे उप–सचिव स्तर में  बढ़ोत्तरी मिली ।
मुझे लगा कि फस्टक्लास आफिसर देने के लिए फिर विलम्ब हो जाएगा । इसीलिए मंैने पुल्चोक स्थित युएन सर्भिस (युएन अन्तर्गत रहकर बहराइन में पुरातत्वविद् के रूप में काम करने के लिए) एप्लाई किया । नाम निकल गया, पोस्टिङ भी हो गई । उसके बाद आकस्मिक रूप में शिक्षा सचिव, गृह सचिव और सामान्य प्रशासन सचिवों का बैठक आयोजन किया गया । मुझे लगा कि मैं क्यों इस्तिफा दूं ? इसीलिए मैंने दो साल के लिए बिना पारिश्रमिक की छुट्टी मांग की । उस समय पुरातत्व विभाग में मुझे मासिक ८–९ हजार पारिश्रमिक मिलता था । उधर युएन में मासिक ४ हजार डालर था, गाडी और आवास की सुविधा भी थी । लेकिन सचिवों ने मुझे नहीं जाने दिया, तुरंत (एक हफ्ता के भीतर) फस्टक्लास में बढ़ोत्तरी कर दी गई । लेकिन विभाग में डाइरेक्टर नहीं बन पाया । मैंने जीवन में किसी से घूस नहीं लिया हैं और नहीं किसी को दिया हैं । इसीलिए मेरे पास अनावश्यक चीजों में खर्च करने के लिए पैसा नहीं था । मुझे लगता है कि मेरे पास पैसा न होने के कारण ही मुझे डाइरेक्टर पद से वंचित होना पड़ा । वि.सं । २०५२ साल में मैं पुरातत्व विभाग से सेवानिवृत्त हो गया । लेकिन उसके बाद भी मैं इसी क्षेत्र में आज तक क्रियाशील हूँ ।

दिल्ली का अवसर ठुकरा दिया
नेपाल स्थित पुरातत्व विभाग में ३ साल काम करने के बाद मुझे दिल्ली स्थित पुरातत्व विभाग ने बुलाया था । कहा गया था– ‘यहां ५ डाइरेक्टर जनरल हैं, कुछ समय के बाद उस में से एक आपका होना निश्चित है ।’  नेपाल में मैं सेक्सन अफिसर था, दिल्ली में सकेण्ड क्लास अफिसर तुरंत मिल रहा था । दो साल की ट्रेनिङ के दौरान मैंने भारत के बहुत प्राचीनतम क्षेत्र में उत्खनन् किया था । विशेषतः वैशाली और कालिबंगा में मैंने काम किया, जो सबसे बड़ा ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थलों में से है । वहां मैंने जो काम किया, उसी को देखकर मुझे यह आफर आया था । लेकिन मैंने अस्वीकार किया और कहा– ‘आप लोगों की सहानुुभूति मैं  चाहता हूँ, और पुरातत्व में नेपाल और भारत के बीच अच्छा संबंध चाहता हूं । मुझे आप लोगों की मदद चाहिए, मैं नेपाल में ही रहना चाहता हूँ ।’ उन लोगों ने कोई भी जोर–जबरदस्ती नहीं की । मैंने जो कहां, उसमें सहयोग प्राप्त होता रहा । ऐसी पृष्ठभूमि में जिस वक्त मुझे प्रमोशन नहीं मिला, उस वक्त लगा था– ‘काश ! दिल्ली चला गया होता ।

देश के प्रति वफादार नेता का अभाव
हमारे देश का विकसित न होने के पीछे एक ही महत्वपूर्ण कारण है । वह है– देश के प्रति वफादार नेता का ना होना । हां, हमारे यहां देश के प्रति वफादार नेता कोई भी नहीं है । पहाड के हो या तराई–मधेश के, देश और जनता के प्रति वे लोग ईमानदार नहीं है । सत्ता, शक्ति और पैसा के लिए जो कुछ भी करने के लिए हमारे नेता तैयार होते हैं । आप बंगलादेश को देखिए, जापान को देखिए, वहां के नेता अपने देश के प्रति वफादार दिखाई देते हैं । हां, भ्रष्टाचार तो होता है, लेकिन देश के अहित में गद्दारी नहीं करते हैं ।
देश के उत्थान के लिए काम करने का अवसर गिरिजाबाबू को मिला था, लेकिन वह भी असफल हो गए । उसके बाद ऐसे कोई भी नेता नहीं है, जो देश और जनता को केन्द्र में रखकर काम करें । इन लोगों की तुलना में तो राजा महेन्द्र और वीरेन्द्र ही ठीक थे । कम से कम राजा महेन्द्र और वीरेन्द्र ने देश के उत्थान के खातिर बहुत कुछ किया है । सुशासन और विकास के लिए राजा महेन्द्र ने जो कुछ भी किया, वह आज तक किसी ने भी नहीं किया । राजा महेन्द्र और वीरेन्द्र देशभक्त थे, देश के प्रति पूर्ण वफादार थे । नेपाल को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है, इसमें उनकी चिन्तन रहती थी । आज नेपाल में सांस्कृतिक रूपान्तरण, शैक्षिक उत्थान और भौतिक विकास की जो पृष्ठभूमि है, उसमें राजा महेन्द्र का ही योगदान है । कुछ हद तक राजा वीरेन्द्र की भी है ।
राजाओं के शासनकाल के बाद स्व. गिरिजाप्रसाद कोइराला शक्ति में आ गए, अगर वह चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे । अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति उनके ही पक्ष में थी । विशेषतः भारत का पूरा समर्थन था और उनके प्रति मनोवैज्ञानिक झुकाव था । लेकिन कोइराला जी परिवारवाद में फंस गए । नेपाल में आज एक भी ऐसे नेता नहीं है, जो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए विश्वासयोग्य हो । वीपी कोइराला, गणेशमान सिंह, सुवर्ण शमशेर राणा जैसे नेताओं में भी देश बनाने की चाहत थी, लेकिन उन लोगों को अवसर नहीं मिला । आज के नेताआेंं में देश और जनता बनाने की चाहत से ज्यादा खुद बनने की और परिवार बनाने की चाहत है ।

आज—कल
मेरी उम्र ७९ साल की हो चुकी है । आज भी सक्रिय जीवन जी रहा हूँ । पुरातत्व संबंधी विषय में ही अध्ययन–अनुसंधान में दिन बीत जाता है, कभी–कभार सेमिनार में भाग लेना पड़ता है । फिल्ड–अध्ययन के लिए जाता हूं । अकेले ही रहता हूँ । व्यक्तिगत सफाई, अपनी देखभाल से लेकर किचन का सभी काम खुद करता हूँ । हिन्दू वर्णाश्रम व्यवस्था और मेरी उम्र के अनुसार अभी मैं चौथे चरण में हूं, चौथे चरण में अकेले ही रहना अच्छा है । लगभग उसी दर्शन के अनुसार ही मेरा जीवन गुजर रहा है । ७० साल की उम्र तक मैं हर दिन (जहां भी हो) अनिवार्य शारीरिक व्यायाम एवं योग करता था, लेकिन ७० साल के बाद छोड़ दिया । आज कभी–कभार सामान्य श्वास क्रिया (अनुलोम–विलोम) करता हूँ । वैसे तो मेरी ३ बेटी है । प्रथम बेटी उषा मिश्र लिटिल एञ्जल स्कूल में टीचर हैं, दूसरी बेटी निशा मिश्र ने मेरे ही विषय (पुरातत्व) में अध्ययन किया है । लेकिन वह घरेलु उद्योग चलाती है । और तीसरी बेटी रश्मि मिश्र चांदबांग हाईस्कूल में कंप्युटर टीचर है । कभी–कभार मैं उन लोगों के घर में भी जाता हूं, कभी–कभार वे लोग यहां भी आती रहती है ।
तनाव मुक्त होकर पारिवारिक जीवन से थोड़ा–सा बाहर निकल कर रहते हैं अथवा अध्यात्मिक जीवन जीते हैं तो हर व्यक्ति के स्वस्थ एवं तन्दुरुस्त रहने की सम्भावना ज्यादा रहती है । नौकरी से सेवानिवृत्त (वि.सं । २०५२) होने के बाद मैंने सम्पूर्ण रूप में मांसाहार छोड़ दिया है, सादा जीवन जीता हूँ, कोई भी नशाजन्य पदार्थ का सेवन नहीं करता हूँ । मैं अध्यात्म को मानता हूँ, पूजापाठ में उतनी रुचि नहीं है । लेकिन पूजापाठ की महत्ता को मैं समझता हूँ ।
मेरे पिता जी गांधीवादी थे, उन्होंने पैतृक सम्पत्ति के रूप में कुछ भी नहीं दिया । आज मेरे पास जो भी है, वह खुद का अर्जित किया हुआ है । किराये के घर में रहता हूँ । घर के लिए थोड़ी सी जमीन है, अब जल्द ही अपना घर बनाने जा रहा हूँ । लेकिन यह सब तो भौतिक चीजें हैं । जीने के लिए भौतिक चीजों की भी जरुरत पड़ती है । लेकिन खुशी और सुखी जीवन के लिए भौतिक चीजों की ज्यादा जरुरत नहीं है । अगर आप के साथ थोड़ा–सा आध्यात्मिक चिन्तन है तो खुशी मिलती है । अर्थात् भौतिक चीजों के प्रति कोई अधिक लोभ–लालच नहीं हो तो हर व्यक्ति खुश रह सकता है । जानबूझ कर मैंने किसी को भी दुःख नहीं दिया है ।जीवन के प्रति कोई भी पश्चाताप भी नहीं है ।

प्रस्तुतिः लिलानाथ गौतम



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