विकास के नाम पर हो रहे विनास से इस पृथ्वी को बचावें : श्वेता दीप्ति
आगे बढ़ने की होड़ में मानवता, नैतिकता और कृतज्ञता जैसे भाव आज लगभग समाप्त हो चुके हैं । सचमुच हम उस युग की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ सब कुछ यांत्रिक है, भावनाशून्य ।
हिमालिनी (सम्पादकीय) अंक जुलाई २०१९ |कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।
अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं । इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच की फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं, ।।४७।। इस श्लोक में चार तत्व हैं – १. कर्म करना तेरे हाथ में है २. कर्म का फल किसी और के हाथ में है ३. कर्म करते समय फल की इच्छा मत कर ४. फल की इच्छा छोड़ने का यह अर्थ नहीं है की तू कर्म करना भी छोड़ दे । इसका यह अर्थ तो बिल्कुल नही है कि हम कोई भी अनुचित कर्म करें । कर्म वो हो जो जगहित में हो ।
यह सिद्धांत जितना उपयुक्त महाभारत काल में अर्थात अर्जुन के लिए था, उससे भी अधिक यह आज के युग में हैं क्योंकि, जो व्यक्ति कर्म करते समय उस के फल पर अपना ध्यान लगाते हैं वे प्रायः तनाव में रहते हैं, यही आज की स्थिति है । जो व्यक्ति कर्म को अपना कर्तव्य समझ कर करते हैं वे तनाव–मुक्त रहते हैं, ऐसे व्यक्ति फल न मिलने पंर निराश नहीं होते, तटस्थ भाव से कर्म करने करने वाले अपने कर्म को ही पुरस्कार समझते हैं, उन्हें उसी में शान्ति मिलती हैं । किन्तु क्या हम सबमें इतना धैर्य है कि हम कर्म करें और उसकी फल प्राप्ति पर ध्यान नही दें ? क्या सुकर्म की ओर हमारा ध्यान है ? क्या हम समाज, देश और इस जगत जननी के प्रति अपनी जिम्मेदारी को महसूस कर पा रहे हैं ? वास्तविकता तो यह है कि आज प्रत्यके व्यक्ति दूसरे के काँधे को सीढ़ी बनाता है, उस पर चढ़ता है और आगे निकल जाना चाहता है । यह आज का मानवोचित गुण बन गया है । जो कमोवेश हर एक जगह दिखाई देता है ।
आगे बढ़ने की होड़ में मानवता, नैतिकता और कृतज्ञता जैसे भाव आज लगभग समाप्त हो चुके हैं । सचमुच हम उस युग की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ सब कुछ यांत्रिक है, भावनाशून्य ।
हम कहते हैं अपनों से प्यार करो, स्नेह करो, मदद करो पर यह सब स्वार्थ पर ही टिका रह गया है । जब आपसी रिश्ते में यह सद्भावना नही बची है, तो हम कैसे उम्मीद करें कि हम प्रकृति से प्यार कर सकते हैं, ईश्वर पर आस्था रख सकते हैं, सृष्टि को आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखने का बीड़ा उठा सकते हैं ? नहीं यह कदापि सम्भव नहीं है । हम आज में जी रहे हैं जहाँ सिर्फ भौतिक सुख सुविधा मायने रखती है और जिसके कारण हम प्रकृति का दोहन कर रहे हैं । यही कारण है कि आज खुलकर प्रकृति हमें चुनौती दे रही है, अपने हर उस रूप को दिखा कर, जो हमें यह बताता है कि हम उसके आगे असक्षम हैं । आखिर कब हमारे अंदर यह चेतना जगेगी कि स्वर्ग से सुन्दर इस धरा को सुरक्षित रखें । कंकरीट के जंगल नहीं, हरे भरे पौधों से इस धरा का श्रृंगार करें । विकास के नाम पर हो रहे विनाश से इस धरती को बचाना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए । सरकार या प्रशासन क्या कर रहा है, उससे अधिक हमें यह आत्मावलोकन करना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं ? आइए यह प्रण लें कि हम प्रकृति का संरक्षण करें ताकि अपनी आने वाली संतति को एक सुखद कल और सुरक्षित धरा दे सकें ।