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हिमालिनी  अंक जुलाई २०१९ | विपदा बोल कर नही आती पर कुछ विपदाएँ ऐसी हैं जो लगभग तय होती हैं । ऐसी ही विपदा है बाढ़ की, कमोवेश हम सभी जानते हैं कि बारिश का मौसम और मौनसून का आना जहाँ सुखद होता है वहीं यह जानलेवा भी होता है । हर वर्ष देश के किसी ना किसी क्षेत्र में यह आपदा आती है और विनाश के चिह्न छोड़कर चली जाती है । प्रकृति पर किसी का वश नहीं चलता हम लाख दावा करें कि हमने प्राकृतिक विनाश से बचने के लिए साधन तैयार कर लिए हैं पर यह सभी उसके सामने खोखला सिद्ध हो जाता है । आखिर क्या वजह है जो प्रकृति सयंमित नहीं हो पा रही क्या इसके पीछे विकसित सभ्यता और विकास की अदम्य चाहत के नाम पर प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं है ? निरन्तर वनों का नाश, नदियों को बाँधना, पहाड़ों को काटना ये कौन कर रहा है ? सच तो यह है कि हम स्वयं अपने और आने वाली पीढ़ी के लिए विनाश की जमीं तैयार कर रहे हैं ।

बाढ़ के कुछ ऐसे कारक हैं जो हमने निर्माण किया है मसलन , अत्यधिक पशुचारण ,उद्योगों व घरेलू अपशिष्टों को नदियों में छोड़ना, निम्न भूमि क्षेत्रों को भरकर व पक्का बनाकर अनियोजित नगरों का निर्माण,अनुचित स्थानों पर मानव द्वारा निर्माण कार्य जैसे बांध, पुल, रेल व सड़क मार्ग, जलाशय आदि का निर्माण, वन नाश–मनुष्य द्वारा वन के नाश के कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों की भू–सतह नग्न हो जाती है । जिससे वर्षा जल का भूमि में अन्तस्स्पन्दन कम हो जाता है और धरातलीय वाही जल अधिक हो जाता है जो बिना किसी अवरोध के नदी में आकर जल मात्रा को बढ़कर बाढ़ की दशा उत्पन्न कर देता है ।

कुछ ऐसी वजहे हैं जो स्वयं प्रकृति निर्माण करती है जैसे, भूमिस्खलन अथवा ज्वालामुखी लावा से नदी मार्ग का अवरुद्ध होना,नदी मार्ग का अधिक घुमावदार होना, लम्बी अवधि तक घनघोर वर्षा का होना, अद्र्ध क्षेत्रों व शुष्क में वर्षा का अनिश्चित होना, नदी की सतह पर अवसादों के निक्षेप से नदी के पैंदे का उथला होना, विशद् जल धारण क्षेत्र का होना और जल निकास मार्ग का संकुचित होना, बर्फ का अधिक मात्रा में पिघलना, नदी जल धारा की प्रवणता में अचानक बदलाव का होना आदि । यहाँ हमारा वश नहीं चलता पर जो हमारे हाथ में है उस पर भी हम कार्य समय पर नहीं करते ।

नेपाल हर वर्ष की भाँति एक बार फिर बाढ़ की विपदा से त्रस्त है । तराई क्षेत्र ही नहीं काठमान्डौ भी अछूता नहीं रहा इस विभिषिका से । मौनसूनी बारिश ने काठमान्डौ को एक बारिश में अस्त व्यस्त कर दिया था । सतुंगल, बालकुमारी, थानकोट, कलंकी, पाटन, कुलेश्वर, बल्खु ये सभी क्षेत्र पानी में डूब गए थे ।

विशेष कर बागमती, विष्णुमती नदी, हनुमन्ते, मनहरा और अन्य नदियों के जल में अचानक आए वृद्धि ने इन क्षेत्रों में अपना भरपूर असर दिखाया  अन्य क्षेत्र भी अछूते नहीं थे ।

पिछले वर्ष भी हनुमन्ते नदी नें भक्तपुर में तबाही मचाई थी ।  भक्तपुर की हालत ऐसी है कि पिछले पाँच वर्षों में यह तीन बार डूब चुका है । त्रिभुवन विमानस्थल स्थित जल तथा मौसम पूर्वानुमान महाशाखा मापन केन्द्र के अनुसार २४ घन्टे में काठमाडौं में औसत ११५ मिलिमिटर पानी पड़ा था । यह मात्रा इतनी नहीं थी कि बाढ़ की स्थिति आ जाय । पर ऐसा हुआ, सामान्य पानी में भी काठमान्डू में बाढ़ की स्थिति बनी ।  कारण साफ है व्यवस्थापन की कमी । पानी निकास की सही व्यवस्था नहीं होने के कारण जमल पुतली सडक जैसी जगहों पर पानी जाम होता आया है । और यह तो अब आम बाती सी हो गई है क्योंकि यह घटना बढती जा रही है । मौसम का बदलना एक कारण हो सकता है किन्तु सिर्फ यही कारण नही है । विभिन्न आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक कारण से काठमान्डौ में अव्यवस्थित शहरीकरण बढ़ रहा है । घर और अपार्टमेन्ट बनाने के लिए पेड़ काटे जा रहे हैं । जिसकी वजह से धरती पानी को सुखा नही पा रही और आज की हालत इसका उदाहरण है । आश्चर्य तो इस बात है कि विनाशकारी भूकम्प के बाद यह कहा गया कि अब ढाई तल्ले से अधिक के भवन निर्माण नहीं होंगे परन्तु आलम यह है कि छोटे आयत के जगहों में भी धड़ल्ले से छ सात तल्ले का भवन बनाया जा रहा है । जबकि भूकम्प का डर बना हुआ है । विभिन्न देशों में भी लगातार भूकम्प और बाढ़ की घटनाएँ रोजाना सुनने में आती हैं । यानि यह तो मानना ही होगा कि धरती और प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है बावजूद इसके न तो हमारी सरकार और न ही जनता इससे परहेज कर रही है ।
दूसरी ओर हमारा तराई क्षेत्र जो हर साल इस आपदा का शिकार होता है खासकर प्रदेश नम्बर दो । इस बार तो प्रदेश नम्बर दो पिछले कई महीनों से विभिन्न प्राकृतिक आपदा का शिकार हो रहा है । किन्तु न तो इससे निपटने की कोई पूर्व तैयारी होती है न ही जनचेतनामूलक कार्य किया जाता है । देखा जाय तो प्रदेश नम्बर दो को विशेष प्रदेश का दर्जा मिलना चाहिए क्योंकि यह प्रदेश हर दृष्टिकोण से सबल होते हुए भी लगातार पिछड़ रहा है ।
सप्तरी हमेशा से बाढ़ सम्भावित क्षेत्र है । हर वर्ष यहाँ बाढ़ आती है और मौत का ताण्डव दिखा कर जाती है और हम लाचार होते हैं । जब भी बाढ़ आती है तो सारा रोष कोशी बैरेज पर उतरता है । क्या कोशी बैरेज सिर्फ भारत की सुरक्षा जलप्लावन से करता है या हमारा भी इसमें हित है ? क्या बैरेज का बावन गेट खोल देना ही बाढ़ का समाधान है ? क्या इससे सिर्फ बिहार को नुकसान होगा क्या हमारी क्षति नहीं होगी ? पानी का बहाव हमेशा उपर से नीचे की ओर ही जाता है इसे रोका नही जा सकता । तबाही हमारे यहाँ है तो इससे कहीं अधिक उत्तरी बिहार में है । पर क्या उस तबाही को देखकर जश्न मनाया जाय ? मौत और बरवादी जहाँ की भी हो तकलीफ ही देती है । इसलिए किसी को भी दोष देने से पहले हम यह क्यों नहीं देखते कि इस हालात के आने से पहले हम क्या कर रहे हैं, हमारी सरकार कितनी प्रयत्नशील है ? किसी भी देश की सरकार अपनी जनता की सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील रहती है । जहाँ तक बैरेज का सवाल है यह अपनी उम्र पूरी कर चुका है । किस दिन भयंकर तबाही दस्तक दे जाय यह कहा नहीं जा सकता पर इस दिशा में क्या किया जा रहा है ? क्या उस क्षेत्र की जनता को इसके लिए दवाब नही दिया जाना चाहिए ? बात दोनों देशों की सरकार की है और जनता की भी । जितनी जल्द हो इस समस्या का निराकरण करना होगा । मौसम का मिजाज हर साल बदल रहा है कभी भी कुछ भी हो सकता है और जो होगा उसके लिए यह सवाल नही है कि किसका कम और किसका ज्यादा, वह दोनों देशों के लिए अहितकर ही होगा ।
बार बार भारत सरकार पर यह आरोप लगता आया है कि सीमा क्षेत्र में उसके द्वारा अनाधिकृत रूप में बाँध बनाया जा रहा है, जिसकी वजह से नेपाल के सीमा क्षेत्र में बाढ़ आती है । अन्तर्राष्ट्रीय नियम जिसमें यह तय है कि सीमा क्षेत्र से ८ किलोमीटर के भीतर कोई भी राष्ट्र दूसरे देश को क्षति पहुँचाने वाली संरचना नहीं बना सकता । अगर भारत के द्वारा इस नियम का उल्लंघन किया जाता है तो नेपाल सरकार क्यों खामोश है ? भारत सरकार अगर अपनी जनता की सुरक्षा का खयाल रख रही है, तो हमारी सरकार क्या कर रही है ? वह इस अनाधिकृत संरचना का विरोध क्यों नहीं कर रही ? हाय तौबा उस वक्त मचाया जाता है जब पानी सर से ऊपर जाने लगता है, वक्त गुजरा और बात गई ठंडे बस्ते में । पर एक और सवाल है अगर भारत पर यह आरोप है कि उसने सीमा से चार किलोमीटर की दूरी पर बाँध बनाए हुए है जिसके कारण रौतहट की यह हालत हुई है, तो अगर भारत चार की बजाय आठ किलोमीटर पर बाँध बनाए तो क्या यह आफत नहीं आएगी ? स्वाभाविक सी बात है कि जल का बहाव क्या चार, क्या आठ किसी को सुनने वाला नहीं है । तो ऐसे में क्या दोनों देशों की सरकारों को मिलकर इस आपदा की समस्या का समाधान नही करना चाहिए ? नेपाल और भारत दो ऐसे राष्ट्र हैं जिनकी भौगालिक संरचना एक दूसरे पर निर्भर है, ऐसे में तनाव किसी भी बात का निराकरण नही हो सकता । बाढ़ आने का कारण सिर्फ भारत द्वारा बनाया गया बाँध नहीं है, बल्कि कई आंतरिक वजह भी है । जिसकी ओर सरकार का ध्यान जाना आवश्यक है । और साथ ही भारत सरकार से भी यह अपेक्षा है कि वो इस ओर ध्यान दे क्योंकि बाढ़ का मसला दोनों देशों की सीमा क्षेत्रों में एक सी है । नेपाल में हो रही भारी बारिश का असर उत्तरी बिहार में देखने को मिल रहा है । इसलिए यह भीषण समस्या दोनों देशों की है, इस ओर पहल जल्द से जल्द होनी चाहिए । बात सिर्फ बाढ़ जैसी समस्या की नहीं है उसके अतिरिक्त भी सरकार कई मुद्दे पर असफल रही है । फिलहाल तो बाढ़ग्रस्त क्षेत्र सहायता की राह देख रहा है, जिसके लिए जल्द से जल्द सरकार को कदम उठाना चाहिए । किन्तु सरकार की कार्यशैली ही धीमी है । पहले यह अरोप लगता था कि सरकार स्थिर नहीं है इसीलिए कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता है किन्तु आज बहुमत की सरकार है बावजूद इसके स्थिति जस की तस है ।
अब अगर बात करुँ सरकार के पिछले निर्णय की तो, इस बीच नेपाल सरकार ने जो भी निर्णय किए हैं, चाहे वो देश के अन्दर की बात हो या वैदेशिक स्तर पर किया गया निर्णय हो, उसकी आलोचना ही हुई है । निर्णय गुठी विधेयक का हो, आइफा का हो, लोकसेवा आयोग के विज्ञापन का हो या फिर हाल फिलहाल चर्चित विषादी परीक्षण का हो । हर जगह सरकार की जमकर आलोचना हुई है और विरोध झेलना पड़ रहा है ।  बिना किसी तैयारी या अध्ययन के सरकार नियम बनाती है या निर्णय करती है और बाद में उससे पीछे हट जाती है । ऐसा ही हुआ विषादी परीक्षण के मामले में । सीमा पर गाडि़यों के काफिले को रोक कर अगर परीक्षण किया जाने लगे तो सीमा की क्या हालत होगी वो भी उस हाल में जबकि आपके पास समुचित संयंत्र नहीं है । जितने दिनों में परीक्षण किया जाएगा उतने दिनों में सब्जियाँ सड़ जाएँगी । निर्णय सराहनीय था किन्तु व्यवस्था समुचित नहीं थी इस हाल में सरकार को अपने निर्णय से पीछे हटना पड़ा । आयातित सब्जियों पर कीटनाशक परीक्षणों को नियंत्रित करने और संचालित करने का निर्णय वास्तव में सही दिशा में एक कदम था, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पड़ सकता है, लेकिन सरकार को इसे आवश्यक बुनियादी ढांचे और नियंत्रणों के लागू होने के बाद ही लागू करना चाहिए था ।
लगभग ४४ प्रतिशत आयातित सब्जियां और फल भारत से आते हैं । चौकियों पर कीटनाशक परीक्षण करने का निर्णय सबसे पहले यह सुनिश्चित करने के लिए लिया गया था कि स्वस्थ सब्जियां और फल उपभोक्ताओं की रसोई में प्रवेश करें और दूसरा, इसका उद्देश्य घरेलू कृषि उपज को बढ़ावा देने के लिए इन उत्पादों के आयात पर देश की निर्भरता को कम करना भी था । लेकिन हमेशा की तरह, निर्णय लेने से पहले उचित योजना के अभाव में, सीमा अस्तव्यस्त हो गई, सब्जियों और फलों की बड़ी खेप भारतीय सीमा में कतारबद्ध हो गई थी क्योंकि परीक्षण के संचालन के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के पास आवश्यक संसाधनों और जनशक्ति की कमी थी ।  स्वाभाविक रूप से, बाजार में मूल्य विघटन, भी मारा गया है ।
भारत से आयात होने वाली कृषि उपज के लिए कीटनाशक अवशेषों के परीक्षण के लिए सरकार अपने निर्णय पर अड़ी हुई थी परन्तु कीटनाशक अवशेषों का परीक्षण करने में सक्षम नहीं हो पाई, क्योंकि नेपाली पक्ष के अधिकारियों के पास प्रयोगशाला उपकरणों और कृषि का परीक्षण करने के लिए एक बड़ी तकनीकी टीम का अभाव है । इस निर्णय को लागू करने के लिए सरकार को अधिक प्रयोगशालाओं के निर्माण में निवेश करना चाहिए और उन्हें आवश्यक उपकरणों की आपूर्ति करनी चाहिए ।
सार्वजनिक स्वास्थ्य एक गंभीर मुद्दा है, और सरकार किसी भी बहाने का हवाला देते हुए इस पर समझौता नहीं कर सकती है । इसके अलावा, सरकार को जल्दबाजी में फैसले लेने की अपनी प्रवृत्ति को सुधारना चाहिए ताकि बाद में पछताना नहीं पड़े ।
इससे पहले, जनता के विरोध का सामना करने के बाद, सरकार को गुठी बिल को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा और नेपाल में अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फिल्म अकादमी – पुरस्कार समारोह आयोजित करने की घोषणा हुई और फिर उससे भी सरकार को पीछे हटना पड़ा जबकि यह वह निर्णय था जिससे देश की शाख विदेशों में बढ़ती और देश को पर्यटक मिलते पर यहाँ भी सरकार असफल रही । जिस तरह से सरकार निर्णय लेने में लिप्त है, उससे यह लग रहा है कि सरकार जल्दबाजी में निर्णय ले रही है । इस तरह सही निर्णय मजाक बन जा रहा है । इस प्रवृति में सुधान की अपेक्षा है ताकि देश हित में लिया गया निर्णय कार्यान्वयन किया जा सके ।



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