उन्माद का यह दौर:
अशोक कुमार पाण्डेय
इस पूंजीवादी व्यवस्था का नियामक इस देश का पूंजीपति वर्ग है। सत्ता उसकी सेवा करती है। इस सेवा के दौरान उस पर दाग लग गए हैं। जनता नाराज है। वह जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ सडÞकों पर आ रही है। लड रही है। जनता की नाराजगी इस पूंजीपति वर्ग के लिए हमेशा से डर का सबब रही है। इसीलिए उसे अपनी व्यवस्था की सुरक्षा के लिए इंतजाम करने हैं। उसे जनता की नजर में अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखनी है। इसीलिए उसे ऐसा संत चाहिए जिसे वह आदर्श बनाकर जनता के सामने पेश कर सके और जो उसके खिलाफ कतई न हो। जिसके नशे में जनता का गुस्सा आसानी से निकल जाए और हद से हद सत्ता में एक पार्टी जगह पूंजीपति वर्ग की दूसरी प्रतिनिधि पार्टी जाए सेफ्टी वाल्वकी तरह ।
और किसी पागलपन में शामिल न होने का मतलब यह नहीं होता कि हम निष्त्रिय हैं। कलम से लेकर सडÞक तक हम और हमारे जैसे तमाम लोग अनेकों बार उतरे हैं। हाँ उन मुद्दों पर सुबह गिरफ्तारी के बाद शाम की रिहाई तय नहीं होती, मीडिया की चकाचौंध नहीं होती। हम इरोम के र्समर्थन में आते हैं, हम बिनायक सेन के र्समर्थन में आते हैं, हम जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ, सेज के खिलाफ, किसानों की आत्महत्या के खिलाफ, फैक्टि्रयों में तालाबंदी और मजदूरों के अमानवीय शोषण के खिलाफ, साम्प्रदायिक हिंसा और जातीय अत्याचार के खिलाफ लिखते हैं और सडÞक पर उतरते हैं। तब यह मध्यवर्गीय मानसिकता वाला आपका नागरिक समाज सेठों के पक्ष में चुप्पी बनाए रखता है। जब गरीब और मजदूर अपने हक के लिए सडÞक पर आता है तो खबर होती है ‘शहर का जनजीवन अस्तव्यस्त’ सवाल पूछे जाते हैं कि ुक्या कुछ लोगों को हडÞताल के नाम पर अराजकता फैलाने का अधिकार है -‘ और आज – आज यह सवाल क्यूँ नहीं किया जा रहा है।
मैं उस गुस्से को सलाम करता हूँ जो इस भीडÞ में शामिल लोगों के एक हिस्से के मन में दहक रहा है। लेकिन मैं इस गुस्से के गलत चैनल में डाले जाने की साजिश को भी समझ रहा हूँ। निराशा और पस्ती के माहौल में तमाम जेनुइन लोग कुछ तो हो रहा है के संतोष के लिए इसमें शामिल हो रहे हैं। लेकिन वे नहीं देख पा रहे कि वे उसी वर्ग की साजिश का शिकार हो रहे हैं जो उनकी मुश्किलात की असली वजूहात पैदा करता है। इस ‘पीले बीमार चेहरों’ की फौज का हिटलर से लेकर उसके प्रशंसक आर एस एस के लोगों ने समय-समय पर इस्तेमाल किया है ! आज फिर कर रहे हैं।
एक लेखक या एक सजग नागरिक के लिए उन्माद के इस दौर में धर्ैय बनाए रखना बेहद जरूरी है और साथ में सच को सच कहते रहना भी। विकल्प के निर्माण के मुश्किल काम की रिपोर्टिंग टीवी पर नहीं आती ! वह नींव कर्ीर् इंट की तरह अलक्षित रह जाता है। लेकिन बिना उसके कोई नवनिर्माण नहीं होता।
अगर मीडिआ, एन.जी.ओ. और काँर्पोरेट के अंदर भ्रष्टाचार खत्म हो जाए तो बाकी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इन तीनों के लिए अलग से एक लोकपाल की जरूरत है। फिर भाजपा और अन्ना इनमें से किसी के खिलाफ नहीं बोलते। फिर उनकी नियत के बारे में क्या समझना चाहिए –
२जी घोटाला सिर्फएराजा से तो नहीं जुÞा है। नीरा राडिया, मीडिया और काँर्पोरेट के आपसी संबंध पूरी तरह उजागर हो गए हैं। मीडिया के महापुरुष टाटा राडिया को लाँबिंग के लिए ६० करोड सालाना देते थे ९ज्ञठ।ज्ञद्द।ज्ञण् ज्ष्लजगकतबल त्imभक० फिर अन्ना उच्च न्यायपालिका व ए।ः को लोकपाल में लाने के लिए जैसे अडे हैं वैसे काँर्पोरेट,मीडिया व एनजीओ के बारे में एक शब्द भी क्यों नहीं बोल रहे –