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ओली जी का राष्ट्रवादी चरित्र अब नहीं रहा : कमल प्रसाद कोइराला

कमल प्रसाद कोइराला
कमल प्रसाद कोइराला

हिमालिनी  अंक अगस्त , अगस्त 2019 |नेपाल की राजनीति में कोइराला खानदान (परिवार) का योगदान बहुत बड़ा है । जहानीय राणा शासन को खतम करने से लेकर प्रजातान्त्रिक और गणतान्त्रिक आन्दोलन में कोइराला परिवार का योगदान अतुलनीय है । विशेषतः यह कहानी शुरु होती है, कृष्णप्रसाद कोइराला से । कृष्ण प्रसाद कोइराला वही है, जो राणाओं के निरंकुश शासन के विरुद्ध क्रियाशील रहे । कृष्ण प्रसाद पाँच सुपुत्र (मातृका प्रसाद कोइराला, विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला, केशवप्रसाद कोइराला, तारिणी प्रसाद कोइराला और गिरिजा प्रसाद कोइराला) सभी राजनीति में ही क्रियाशील रहे । पाँच भाइयों में से तीन भाई स्व. मातृका, विश्वेश्वर और गिरिजा प्रसाद कोइराला नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री हैं । प्रथम नागरिक प्रधानमन्त्री एवं नेपाली कांग्रेस के प्रथम निर्वाचित (वि.सं. २००६) पार्टी सभापति मातृका प्रसाद कोइराला के ही सुपुत्र हैं– कमल प्रसाद कोइराला । आप की माता जी का नाम मञ्जु कोइराला है । यही आप की पारिवारिक विरासत तथा पहचान है ।

लेकिन आपकी पहचान सिर्फ आपके खानदान से जुड़ी हुई है, ऐसा बिल्कुल नहीं है । हां, आप कोइराला परिवार से जुड़े हुए हैं, लेकिन आप की एक अलग पहचान है, इतिहास है और नेपाली की राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान भी, विशेषतः नेपाल के कम्युनिष्ट आन्दोलन में । आप ऐसे व्यक्तित्व है, जिनके सारे पारिवारिक सदस्य, नेपाली कांग्रेस से जुड़े हुए हैं । लेकिन आप ही एक मात्र ऐसे पात्र हैं, जो कम्युनिष्ट राजनीति से आबद्ध हैं । आप पूर्व सांसद और राजदूत हैं, पत्रकार एवं लेखक भी हैं । आपका जन्म १९३८ अगस्त १५ में हुआ है । प्रस्तुत है राजनीतिक व्यक्तित्व कमल प्रसाद कोइराला जी का जीवन–सन्दर्भ–
प्रस्तुतिः लिलानाथ गौतम

शिक्षा, जन्म तिथि और भारत की आजादी

मेरा जन्म विराटनगर में हुआ है । वही से प्रारम्भिक शिक्षा हुई । जब मैं सात महीने का था तभी मुझे काठमान्डौ लाया गया था । उस वक्त मेरे पिता जी मातृका प्रसाद कोइराला वन विभाग में नौकरी करते थे । वो एक ब्रिटिश ऑफिसर के दोभाषिया (ट्रान्सलेटर) थे । वि.सं. १९९९ साल में राणा विरोधी गतिविधि में संलग्न होने के आरोप में मेरे दादा कृष्ण प्रसाद कोइराला गिरफ्तार हो गए, पिता जी की नौकरी चली गई । उसके बाद हम लोग स–परिवार पुनः विराटनगर चले गए । मैं विराटनगर स्थित श्री ३ जुद्ध हाईस्कूल में भर्ती होकर पढ़ने लगा । यहां मैंने कक्षा ६ तक पढ़ाई की । बाद में बनारस जाकर पढ़ा । इसके पीछे देश में जारी राणा शासन विरोधी आन्दोलन ही रहा । कांग्रेसजन राणा शासन विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने जा रहे थे, पिता जी को इसके बारे में सब पता था । इसीलिए हम लोगों को सुरक्षित रखने के लिए बनारस ले गए, पढ़ाई बहाना बन गई । पिता जी के कहने पर ही हमारा परिवार विराटनगर से बनारस की ओर चला गया । उस समय मैं ११–१२ साल का था ।
मेरी वास्तविक जन्म–तिथि पता नहीं है । लेकिन आफिसियल जन्म तिथि १९३८ अगस्त १५ (वि.सं. १९९५) है । इसमें एक छोटी–सी कहानी भी है । बनारस में थे– कृष्ण प्रसाद भट्टराई (नेपाल के पूर्व प्रधानमन्त्री) । वह बनारस में ही पैदा हुए थे और बनारस के बारे में बहुत कुछ जानते भी थे । इसीलिए पिता जी ने मेरे बड़े भाई विमल और मुझे स्कूल में भर्ती कराने के लिए कृष्ण प्रसाद जी को ही कहा । जब बनारस में हमारी एडमिसन करने की बात हुई तो जन्म–तिथि लिखना पड़ा । विराटनगर से हम लोग स्कूली प्रमाणपत्र नहीं ले गए थे । गुर्जर (गुजरातियों का) पाठशाला में भर्ती करने की बात हो गई । कृृष्ण प्रसाद भट्टराई के भाञ्जे भी उसी स्कूल में पढ़ते थे । भर्ती के लिए समय गुजरनेवाला ही था, हम लोग अंतिम समय में पहुँचे थे । भट्टराई जी फॉर्म भरते गए, अन्त में पूछे कि तुम्हारा ‘डेट ऑफ बर्थ’ क्या है ? लेकिन मुझे पता नहीं था । उस समय मोबाइल फोन नहीं थी, टेलिफोन की सहज पहुंच भी नहीं थी । किसी से फोन में पूछने का समय भी नहीं था । मैंने कहा कि मुझे सिर्फ साल पता है, वह ९५ साल है । उन्होंने कहां– ‘अच्छा ९५ साल का मतलब सन् १९३८ हो गया, तुम्हारा ‘डेट ऑफ बर्थ’ १९३८ अगस्त १५ रख देता हूँ । यह तिथि भारत में खूब चर्चित था । क्योंकि १५ अगस्त भारतीयों के लिए स्वतन्त्रता का दिन है । उसी से प्रभावित होकर कृष्ण प्रसाद भट्टराई जी ने मेरी जन्म–तिथि तयकर दी, वही जन्म मिति आज तक मैं प्रयोग कर रहा हूँ ।
शुरु में तो मैं डाक्टर बनना चाहता था । बनारस से एसएलसी पास होेने के बाद विज्ञान विषय लेकर मैं वही पढ़ने लगा था । विज्ञान में रुचि ना होेने के कारण बाद में मैं काठमांडू आया और त्रि–चन्द्र कॉलेज में भर्ती हो गए । बाद में फिर बनारस से ही बीए और एलएलबी किया ।

उनका जीवन वृत इस भिडियो में देखिये

राजनीतिक यात्रा
वैसे तो मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि प्रत्यक्ष राजनीति से जुड़ी हुई है । देश की राजनीतिक परिस्थिति और आन्दोलन को मैंने करीब से देखा है । लेकिन मेरी स्पष्ट राजनीतिक पहचान १६ वर्ष तक नहीं थी । जब मेरे पिता जी मातृका प्रसाद कोइराला प्रधानमन्त्री (वि.सं. २०११) बन गए, उसी समय मैं पकड़ा गया । उसके बाद ही मैं चर्चा में आया ।
इसके पीछे निर्मल लामा का भी हाथ है । लामा लगायत अन्य नेताओं से पहले से ही जान–पहचान थी । लामा पहले कांग्रेस में ही थे, बाद में कम्युनिष्ट बन गए । एक दिन उन्होंने कहा– ‘आज हम लोगों का जुलुस है । जुलुस का नेतृत्व आप कर पाएँगे ?’ निर्मल लामा का प्रस्ताव होने के कारण मैं अस्वीकार नहीं कर पाया । बिना पूर्व योजना ही मैं जुलुस का नेतृत्व करने निकल गया । ‘जनअधिकार सुरक्षा समिति’ के नाम से एक राजनीतिक सभा हो रही थी । इन्द्रचौक (काठमांडू) पहुँचते ही मैं और मेरे ३०–४० साथी लोग पकड़े गए । वह दिन था– सन् १९५५ जनवरी १७ । मेरे ऊपर आरोप था कि मैं प्रतिबंधित गतिविधि में संलग्न हूं । उस समय मेरी उम्र १५–१६ साल की थी । रातभर मुझे हनुमानढोका में रखा गया । छुड़ाने के लिए तत्कालीन मन्त्री डिल्लीरमण रेग्मी के बेटे मदन रेग्मी गए थे । लेकिन पुलिस ने उनसे मिलने ही नहीं दिया । उसके बाद मदन वहीं पर पुलिस के विरुद्ध नारे लगाने शुरु किए । उसके बाद मदन को भी हिरासत में मेरे साथ रख दिया गया । हम दोनों करीबी दोस्त थे । अगले दिन ही मुझे नख्खु करागार चलान किया गया । ९ दिनों के बाद छोड़ा गया ।
पिता जी देश के प्रधानमन्त्री ! इसीलिए यह एक बहुत बड़ा समाचार बन गया । समाचारों में आया कि प्रधानमन्त्री के पुत्र पुलिस हिरासत में । यह भी कहा गया कि मैं कम्युनिष्ट सभा में सहभागी होने के लिए गया था । लेकिन इससे पहले ही इस तरह के कई सभाओं में मैं सहभागी हो चुका था । वि.सं. २००९ साल में जनकपुर में आयोजित नेपाली कांग्रेस की महाधिवेशन में भी मैं सहभागी था, दर्शक के रूप में । उस समय पिता जी पार्टी के सभापति थे ।

लेकिन १७ जनवरी १९५५ मेरे लिए एक टर्निङ प्वाइट बन गया । पिता जी प्रधानमन्त्री ! उनका ही बेटा पुलिस हिरासत में ! यह दुनिया वालों के लिए भी आश्चर्य का विषय बन गया । बाद में मुझे लगने लगा कि अगर मुझे कम्युनिष्ट के आरोप में ही गिरफ्तार किया गया है तो मैं कम्युनिष्ट ही क्यों ना बनूं । इसतरह मैं कम्युनिष्ट बन गया ।

प्रधानमन्त्री निवास से कम्युनिष्६ गतिविधि
उस समय कम्युनिष्ट गतिविधि में सक्रिय रहना एक बहुत बड़ी चुनौती थी । मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी उसके विरुद्ध था । लेकिन मैंने प्रधानमन्त्री निवास में ही रहकर कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता के लिए आवेदन दिया । पिता जी हो या अन्य भाई लोग, मुझे कम्युनिष्ट बनने से किसी ने भी नहीं रोका । एक ही परिवार में रहते थे, लेकिन हमारे बीच राजनीतिक विचार और विषयों को लेकर कभी भी मतभेद नहीं हुआ । पारिवारिक विषयों में राजनीति कभी भी नहीं आई, इसीलिए आज भी हमारे संबंध अच्छे हैं । मुझे लगता है कि हर आदमी का अपना–अपना व्यक्तित्व होता है, जब व्यक्तित्व बन जाता है, तब उसके लिए वही प्रिय लगता है । मुझे भी ऐसा ही हुआ ।

विराटनगर एक ऐतिहासिक जगह
हमारा परिवार विराटनगर में था । प्रजातन्त्र की प्राप्ति एवं राणा शासन अन्त के लिए हुए प्रथम आन्दोलन विराटनगर से शुरु हुआ है । इसीलिए राजनीतिक दृष्टिकोण से यह जगह ऐतिहासिक है । क्योंकि मजदूरों की पहला मिल हड़ताल विराटनगर में हुआ है, उसी आन्दोलन का नेतृत्व करनेवाले नेता लोग प्रधानमन्त्री बने हैं । १९४७ मार्च ९ से २४ मार्च तक मिल हडताल हो गया था । नेपाल के इतिहास में पहला हडताल भी है, जो मैंने प्रत्यक्ष रूप में देखा । हजारों लोग जुलुस में आते थे । उसको देखकर मैं आश्चर्यचकित हो जाता था । उसका नेतृत्व वीपी कोइराला, मनमोहन अधिकारी, तारिणी प्रसाद कोइराला, गिरिजा प्रसाद कोइराला युवराज अधिकारी, गहेन्द्रहरि शर्मा जैसे व्यक्तित्व कर रहे थे । १९४७ मार्च १० में विराटनगर स्थित तत्कालीन श्री ३ जुद्ध इङ्गलिस हाईस्कूल (आज का आदर्श स्कूल) में एक बहुत बड़ी आम सभा होने जा रही थी । उस वक्त मैं ८ साल का था, उसी स्कूल में मैं कक्षा ३ में पढ़ता था । मैं भी आन्दोलन में सहभागी हो गया । यूं कहें तो मनोरंजन की दृष्टिकोण से मैं उसमें सहभागी था ।

आन्दोलन में सहभागी ना होने के लिए हमारे हेडमास्टर श्याम झा ने मेरे चाचा जी (वीपी कोइराला) से आग्रह किया । उन्होंने चाचा जी को रोकने की बहुत कोशिश की । बड़ा हाकिम राम शमशेर पड़ोसी थे, हेडमास्टर को लगा कि अगर मैं वीपी को नहीं रोकूं तो बड़ा हाकिम मुझे क्या कहेंगे ! यही सोचकर उन्होंने आन्दोलन रोकने के लिए कहा था । लेकिन चाचा जी नहीं माने । उन्होंने हेडमास्टर से कहा– ‘आप बड़ा हाकिम को बोल दीजिए कि मैंने तो रोकने की कोशिश की है, लेकिन वीपी नहीं मान रहा है ।’ चाचा जी माननेवाले भी नहीं थे, क्योंकि हजारों मजदूर उनके साथ में थे । उन लोगों का विश्वास वह नहीं तोड़ सकते थे । इसतरह मैंने उस आन्दोलन को करीब से देखा है, महसूस किया है ।
उस वक्त विराटनगर में सुवेदार के मातहत सिर्फ ६ पुलिस कार्यरत थे । हजारों की संख्या में उतर आए मजदूरों को नियन्त्रण में लेना उन लोगों की बस की बात नहीं थी । यहां तक कि उन लोगों के पास हथियार (बंदूक–पिस्तोल) कुछ भी नहीं था, लाठी लेकर ड्यूटी करते थे । बंदूक लेकर रहनेवाले पुलिस सिर्फ माल–अड्डा (भंसार) में दिखने को मिलते थे । लेकिन उन लोगों की जिम्मेदारी आन्दोलन एवं हड़ताल को नियन्त्रण करना नहीं था । आन्दोलन नियन्त्रण के लिए काठमांडू से हथियारधारी सैनिक ले जाना पड़ा ।
उस वक्त काठमांडू से ढ़ाई सौ सैनिक को आन्दोलन नियन्त्रण के लिए विराटनगर भेजा गया । आन्दोलन नियन्त्रण के लिए कौन–कौन जाएगा ? किस को नेतृत्व में भेजना है ? यह सब निर्णय करने के लिए राणाओं ने देर कर दी । आज की तरह यातायात की सुविधा नहीं थी । वीरगंज (रक्सौल) तक पांव–पैदल चलकर तत्कालीन शाही नेपाली सेना भारतीय ट्रेन से २५ मार्च को विराटनगर पहुँच गए । २५ मार्च को ही वीपी कोइराला, मनमोहन अधिकारी, गिरिजाप्रसाद कोइराला जैसे नेता गिरफ्तार हो गए, उसके बाद आन्दोलन रुक गया । गिरफ्तार सभी नेताओं को एक खुला ट्रक में रखकर बड़ा हाकिम के सामने ले गया । काठमांडू से प्राप्त आदेश अनुसार गिरफ्तार बंदियों को विभिन्न जगहों में भेजने के लिए चलान तैयार किया गया । प्रमुख मजदूर नेताओं को २०–२२ दिन पांव–पैदल चल कर काठमांडू लाया गया ।

मेरी राजनीतिक सक्रियता
वि.सं. २०१७ साल पौष १ गते जननिर्वाचित सरकार को अपदस्थ कर तत्कालीन राजा महेन्द्र ने सम्पूर्ण राज्य शक्ति अपने हाथ में लिया । उससे पहले वि.सं. २०१७ साल कार्तिक में मुम्बई में एक कन्फ्रेन्स हुई थी । ‘अखिल भारत नेपाली विद्यार्थी फेडरेशन’ नामक संगठन द्वारा कन्फ्रेन्स आयोजित था । संगठन में आबद्ध होनेवाले कौन कांग्रेस है, या कौन कम्युनिष्ट? या कौन गोरखा परिषद् है ? इसमें खास मतलब नहीं था । भारत में रहनेवाले सभी विद्यार्थियों के लिए यह साझा संस्था थी । मुम्बई, कलकत्ता, पटना जहां के भी विद्यार्थी हो, फेडरेशन में सहभागी हो सकते थे । उस कन्फ्रेन्स में मोहमद मोहसिन (स्व. पूर्व मन्त्री) अध्यक्ष थे । उससमय मेरे चाचा जी (वीपी कोइराला) प्रधानमन्त्री थे । भारत में रहे नेपाली विद्यार्थियों का संगठन होने के कारण प्रधानमन्त्री जी ने ही उस कन्फ्रेन्स का उद्घाटन किया । हुमायु कबीर भारत के शिक्षा मन्त्री थे, वह भी हमारे कार्यक्रम में अतिथि के रूप में आए थे । उसी कन्फ्रेन्स से मैं संगठन के लिए महासचिव चयन हो गया ।
उस समय तक मेरा नाम ‘वामपन्थी’ नेता के रूप में चारों ओर फैल चुका था । चुनाव में दो पैनल बना था । एक पैनल विष्णु प्रसाद परिमल के नेतृत्व में और दूसरा मोहम्मद मोहसिन के नेतृत्व । मैं मोहम्मद मोहसिन के पैनल से महासचिव चयनित हो गया । मेरे प्रतिस्पर्धी के रूप में विराटनगर के ही ठाकुरनाथ शर्मा खड़े हुए थे । उन्होंने कहा कि मैं आप के विरुद्ध चुनाव नहीं लड़ सकता । इसीलिए चुनाव में वह निष्क्रिय बन गए । वाद में शर्मा जी चार्टड एकाउन्टेन्ट बने, मैं राजनीति में ही रह गया ।

उसी कॉन्फ्रेन्स में जाते वक्त वीपी कोइराला को आभास हो गया था कि देश की राजनीति में कुछ गड़बड़ होनेवाला है । उन को लग रहा था कि राजा हम लोगों को हटाना चाहते हैं । क्योंकि उसी समय में योगी नरहरिनाथ लगायत कुछ काण्ड भी हो रहा था । कॉन्फ्रेन्स में चाचा (वीपी) जी ने सांकेतिक रूप में इसके बारे में कुछ सन्देश भी दिया था । हमारी कॉन्फ्रेन्स समाप्त होने की कुछ ही दिनों के बाद राजा महेन्द्र ने जननिर्वाचित सरकार को बर्खास्त किया, वीपी कोइराला गिरफ्तार हो गए

पौष १ गते (वि.सं.२०१७)काण्ड के कारण से ही कम्युनिष्ट नेता नेपाल में ही थे, भारत गए हुए थे । जब वीपी कोइराला गिरफ्तार हो गए, चारों ओर हल्ला फैल गई । पूस १ गते के दिन ही पिता जी मातृका प्रसाद कोइराला, भरत शमेशर, टंक प्रसाद आचार्य जैसे नेताओं को गिरफ्तार किया गया था । पुष्पलाल, तुलसीलाल, जैसे जितने भी कम्युनिष्ट नेता थे, वे सब भूमिगत हो गए । हां, विराटनगर से मनमोहन अधिकारी जी को गिरफ्तार किया गया था । लेकिन केशरजंग रायमाझी, हिकमत सिंह जैसे नेता कम्युनिष्ट सम्मेलन (८१ देशों की) में सहभागिता हेतु मास्को गए थे । जब वीपी कोइराला गिरफ्तार हो गए, वे सब भारत (दरभंगा) में इकठ्ठा हो गए, जिसको हम लोग नेपाली राजनीतिक इतिहास में ‘दरभंगा प्लेनम’ के नाम से जानते हैं । इधर राजा महेन्द्र, दामोदर शमशेर को प्रयोग कर कम्युनिष्ट नेताओं को दरबार में बुला रहे थे । राजा का कहना था कि एक बार बात करने के लिए आ जाइएगा, अगर बात नहीं बनी तो आप लोग लौट जाना । उसी क्रम में केशरजंग रायमाझी दरबार पहुँच गए और दरबारिया बन गए, अपने सहकर्मियों को धोका दे दिए ।

जब दरभंगा में प्लेनम बुलाया गया, विद्यार्थी नेता की हैसियत से मुझे भी वहां जाना पड़ा । नेपाल में भी नेपाली विद्यार्थियों का एक संगठन था– अखिल नेपाल विद्यार्थी फेडरेशन । उसके महासचिव थे– भरतराज जोशी । वह भी वहां पहुँचे थे । प्लेनम में केन्द्रीय कमिटी के सदस्य (५२–५४ संख्या में) सहभागी थे । उसी समय में दामोदर शमशेर वहां पहुँचे थे और केशरजंग रायमाझी से खुसुर–फुसुर कर रहे थे । उसी क्रम में हम लोगों को शंका होने लागी थी कि केशरजंग जी कुछ गड़बड़ करने जा रहे हैं । बाद में हम लोगों की आशंका सच हो गई ।
उसी प्लेनम में मोहन विक्रम सिंह जी ने संविधानसभा संबंधी मांग को आगे लाया । वैसे तो दूसरे पार्टी महाधिवेशन में पुष्पलाल जी ने ‘गणतन्त्र हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ कहते हुए संविधानसभा की मांग की थी । दरभंगा प्लेनम में मोहन विक्रम सिंह जी ने भी इस नारे को आगे लाया, सहभागी अधिकांश लोग इसमें राजी हो गए थे ।

नेपाल में जितने भी कम्युनिष्ट पार्टी है, वह तीसरी पार्टी महाधिवेशन को मानती है । वही तीसरी महाधिवेशन से मैं कम्युनिष्ट पार्टी में केन्द्रीय कमिटी में निर्वाचित हो गया । पुष्पलाल, तुलसीलाल, हिक्कमत सिंह, मोहन विक्रम, मैं (कमल कोइराला), भरतमोहन, सिद्धिलाल सिंह जैसे नेताओं ने ही तीसरी पार्टी महाधिवेशन आयोजन किया था । केशरजंग रायमाझी दरबारीय बन जाने के कारण उस समय हम लोगों ने कहा कि जब तक संशोधनवादी चरित्रवाले (अर्थात् राजावादी) है, तब तक हम लोगों की पार्टी का कोई भविष्य नहीं है ।

जनमत–संग्रह में मेरी सक्रियता
वि.सं. २०३६ साल में पंचायती सरकार की ओर से जनमतसंग्रह कराने की घोषणा हो गई । हम लोग बहुदलीय प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के लिए लड़ रहे थे । इसीलिए उक्त जनमत संग्रह बहुदलीय व्यवस्था के पक्ष में लाना था, जनता को सुचित करना था । मेरा कार्य क्षेत्र तथा जिम्मेदारी इलाम से लेकर हैटौडा और पोखरा तक था । इस क्षेत्र में हफ्ता में २–३ आमसभा होती थी, वक्ताओं की कमी थी । इसीलिए प्रायः हर आमसभा में मुझे जाना पड़ता था । कई जगहों में मैं और मनमोहन जी साथ–साथ जाते थे, जनता और कार्यकर्ताओं के बीच में प्रशिक्षण देते थे । उस वक्त ‘माले’ के सब नेता भूमिगत थे, वि.सं. २०४७ साल के बाद ही मदन भण्डारी लगायत के नेता खुली राजनीति में आए हैं । यूं कहें तो उस वक्त प्रखर वक्ता के रूप में मनमोहन अधिकारी, कमल कोइराला, भारतमोहन अधिकारी ही थे । वैसे तो बद्री खतिवडा, सुशील प्याकुरेल, प्रकाश काफ्ले जैसे नेता भी थे । लेकिन नाम तो हम लोगों का ही था । इसीलिए उस वक्त पूर्वी नेपाल में जितने भी राजनीतिक कार्यक्रम एवं आमसभा होती थी, हम लोगों को ही जाना पड़ता था । कांग्रेस–कम्युनिष्ट कह–कर खास भेद नहीं था, क्योंकि जनमतसंग्रह को बहुदल के पक्ष में बनाना था, लेकिन बाद में बहुदल पक्षधर को पराजित होना पड़ा । ४ लाख वोटों के अन्तर से निर्दलीय को जिता दिया गया ।
वि.सं. २०३६ साल के जनमत संग्रह के बाद मेरा वामपन्थी व्यक्तित्व और भी ऊँचाई में पहुँच गया, वही व्यक्तित्व मेरे लिए प्रिय लगने लगा । इसीतरह मैं पूरा जीवन कम्युनिष्ट राजनीति में ही सक्रिय रहा । निर्दलीय व्यवस्था को जीत मिलने के बाद हम जैसे लोगों को दिक्कत होने लगी । लेकिन विद्यार्थियों के लिए सभा–सम्मेलन करने की छूट थी । विद्यार्थी लोग कैंपस के अन्दर युनियन बना सकते थे, सभा कर सकते थे । क्योंकि राजा विद्यार्थी आन्दोलन से डर गए थे, उनको लग रहा था कि अगर विद्यार्थी को सभा–सम्मेलन करने से रोका जाएगा तो वे लोग भटक सकते हैं । उस वक्त कांग्रेस, कम्युनिष्ट या अन्य पार्टी के नाम से अलग–अलग विद्यार्थी संगठन तो रहता था, लेकिन मूलभूत रूप में सिर्फ दो समूह रहते थे जो या तो राजावादी होते थे या बहुदलवादी ।

मन्त्री बनने का अवसर ७ुकराया
राजनीति करनेवाले प्रायः हर लोगों में व्यक्तिगत स्वार्थ भी अधिक होती है । कई लोग अपनी महत्वाकांक्षा पुर्ति के लिए राजनीति करते हैं, दूसरों के लिए नहीं । माधव नेपाल जी ने एक बार मुझे मन्त्री बनने के लिए ऑफर किया था । उस वक्त नेपाली कांग्रेस दो टुकड़ो में विभाजित थी, शेरबहादुर देउवा प्रधानमन्त्री थे,लेकिन सत्ता की चाभी राजा ज्ञानेन्द्र के हाथ में थी । पार्टी केन्द्रीय कमिटी बैठक में मैंने कहा कि ऐसी अवस्था में हमारी पार्टी को सरकार में नहीं जाना चाहिए । इसीलिए मैं मन्त्री नहीं बना ।

कोरिया के पा७्यक्रम में परिवर्तन
आज भी विश्व में ऐसे कई देश हैं, जो गौतम बुद्ध के जन्मस्थल लुम्बिनी के संबंध में अपने विद्यार्थी को झूठा शिक्षा दे रहे है । उसी में से एक दक्षिण कोरिया ऐसा देश है, जिन्होंने पहली बार अपने पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया और लिखा कि गौतम बुद्ध का जन्म लुम्बिनी नेपाल में है । जब मैं दक्षिण कोरिया के लिए राजदूत (सन् २००७–०११) रहा, उस वक्त मैंने ही वहां के राष्ट्रपति ली ममबक को एक पत्र लिखकर पाठ्यक्रम में करेक्सन के लिए अनुरोध किया । मैंने लिखा था कि लुम्बनि भ्रमण में संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव वान की मुन भी गए है, जो भारतीय सीमा क्षेत्र से २० किलोमिटर उत्तरी दिशा में है । मेरी बात सुन ली गई, सामान्य खोज–अनुसंधान से ही दक्षिण कोरिया को महसूस हुआ कि हम लोग विद्यार्थी को गलत शिक्षा दे रहे हैं । इसीलिए तत्काल स्कूली पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया गया । यह मेरी राजदूत कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है । कूटनीति में ऐसी घटना कभी–कभार होती है, जो मुझे मौका मिली । दुःख की बात तो यह है कि आज भी संसार के कई टेस्टबुक में लिखा है कि गौतम बुद्ध का जन्मस्थल लुम्बिनी उत्तरी भारत में अवस्थित है । इसके विरुद्ध नेपाल सरकार भी कोई एक्सन नहीं ले रही है । यहां तक कि हमारे दूसरे पड़ोसी देश चीन की पाठ्यपुस्तक में भी यही गलती है ।
टेस्टबुक में इसतरह की गलती होने के पीछे एक कारण है । उस समय लुम्बिनी घने जंगलों के बीच में था । जब भारत में अंग्रेजों का शासन शुरु हो गया तो बुद्ध जन्मस्थल के बारे में खोज शुरु हुई । बुद्ध से जुड़े हुए कई महत्वपूर्ण शहर सारनाथ, गया, कुशिनगर सब भारत में ही है । इसीलिए अंग्रेजों ने लिख दिया कि उनकी जन्मस्थल लुम्बिनी भी भारत में ही है । जबकि वह गलत था । वास्तविकता तो यह है कि जब नेपाल के राणा प्रधानमन्त्रियों की रोलक्रम में खड्ग शमशेर आए, तब उनको प्रधानमन्त्री बनने से रोकने के लिए बड़ा हाकिम बनाकर पाल्पा भेज दिया गया । बड़ा हाकिम के रूप में पाल्पा में रहते वक्त खड्ग शमशेर लुम्बिनी भ्रमण में गए, जहां जंगलों के बीच में उनको एक मानव निर्मित पीलर देखने को मिला । उन्होंने कहा– जंगलों के बीच में यह क्या हैं ? इसको खोदकर निकालो । खड्ग शमशेर पढ़े–लिखे नहीं थे । इसीलिए लखनउ से एक अंग्रेज पुरातत्वविद् को लाया गया । उसने कहा कि यह तो राजा अशोक का स्तम्भ है, जहां स्पष्ट लिखा है कि यहां बुद्ध का जन्म हुआ था । इसतरह गौतम बुद्ध का असली जन्मस्थल पता लगा है । लेकिन उस समय आज की तरह पत्र–पत्रिका एवं मीडिया नहीं थी, इसीलिए प्रचार–प्रसार नहीं हो पाया । फिर प्रथम विश्व–युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध हुआ, जिसके चलते अंग्रेजों ने भी इसके बारे में ध्यान नहीं दिया । जब बाद में जापान और कोरिया से आए लोगों ने अनुसंधान किया, तब औपचारिक रूप में प्रमाणित हो गया कि गौतम बुद्ध की जन्मस्थल लुम्बिनी नेपाल में है ।

‘दृष्६ि’ के प्रधान सम्पादक के रूप में
राजनीति में क्रियाशील रहते वक्त ही मैंने पत्रकारिता भी किया है । मैं तत्कालीन नेकपा एमाले के मुखपत्र ‘दृष्टि’ साप्ताहिक में प्रधान–सम्पादक रह चुका हूँ । आज तो प्रायः सभी पत्रिका और पत्रकार स्वतन्त्र हो गए हैं, व्यवसायिक बन गए हैं । उस समय तो मिसन पत्रकारिता होती थी, आज व्यवसायिक बन गया । समय परिस्थिति अनुसार यह जरुरी भी है । क्योंकि अब पार्टीगत पत्रकारिता में लोगों की रुचि नहीं है, इसीलिए स्वतन्त्र होना जरुरी भी है ।
मेरे जमाने में सबसे अधिक बिकनेवाली पत्रिका ही साप्ताहिक पत्र–पत्रिका है । आज की तरह बहुत सारे पब्लिकेशन, एफएम, टीभी एवं ऑनलाईन कुछ नहीं था । पार्टी को भी अपनी बात को जनता तक पहुँचाने के लिए अखबार की जरुरत पड़ती थी, इसीलिए प्रायः सभी पार्टियों की अपनी–अपनी पत्रिका होती थी । प्रजातन्त्र आने के बाद ही कान्तिपुर, अन्नपूर्ण जैसे मीडिया हाउस निकल आया ।
एक बार मैंने दृष्टि साप्ताहिक में अरुण–३ के बारे में लिखा था । मैंने अपने लेख में कहा था कि यह आयोजना बननी चाहिए, नेपाल के हित में है । लेकिन पार्टी के भीतर ही रहे कई लोगों ने कहा कि यह तो पार्टी–लाइन के विरुद्ध लिख रहा है । इसके संबंध में पार्टी प्रचार विभाग कें बैठक में मुझे स्पष्टीकरण देना पड़ा । पार्टी महासचिव थे– मदन भण्डारी, प्रचार विभाग भी उनके ही हाथ में था । मैंने पार्टी महासचिव से अपना तर्क प्रस्तुत किया, बाद में उन्होंने भी कहा कि अरुण–३ नेपाल के हित में है ।

मेरी खुशी
वि.सं. २०५१ साल के आम निर्वाचन में मैं विराटनगर निर्वाचन क्षेत्र नं. ५ से निर्वाचित हो गया । मेरी निर्वाचन क्षेत्र में विराटनगर की मूल शहर का आधा हिस्सा और कुछ गांव भी था । नेपाली कांग्रेस के जितने भी शीर्ष नेता हैं, वह विराटनगर क्षेत्र से ही प्रतिनिधित्व करते थे । इसीलिए विराटनगर को कांग्रेस का गढ़ भी माना जाता था, आज भी माना जाता है । लेकिन मैं कम्युनिष्ट पार्टी से टिकट लेकर वहां से जीत लिया । यह मेरे जीवन के लिए सबसे खुशी का क्षण था । लोग कहते थे कि मेरे निर्वाचन क्षेत्र में मारवाडी है, व्यापारी है, वे लोग सामन्ती है, इसीलिए यहां से कम्युनिष्टों का जीतना मुश्कील है । लेकिन मैं जीत गया । मेरे निकटम प्रतिस्पर्धी थे– श्यामलाल तावेदार । पहले भी उन्होंने यहाँ से चुनाव जीता था, लेकिन लोग कहते थे कि उन्होंने यहां कुछ काम नहीं किया । इसीलिए कई कांग्रेस के लोगों ने भी मुझे सपोर्ट किया । इसबार भी वहां से लालबाबु पण्डित जी ने चुनाव जीता है ।

केपी ओली अब राष्ट्रवादी नहीं रहे
वि.सं. २०५४ में ‘महाकाली संधि देश के हित में नहीं है’ कहकर हम लोगों ने पार्टी में विद्रोह किया, जिसके चलते पार्टी दो टुकड़ो में विभाजित हो गई । आज भी कहता हूं कि उक्त संधि नेपाल के हित में नहीं है । लेकिन आज इसके बारे में आवाज बुलंद करनेवाले कोई भी नहीं है । सत्ताधारी पार्टी नेकपा में भी बहुत गुटबंदी है, नेता लोग देश और जनता का हित कम सोचते हैं । व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और गुटगत महत्वाकांक्षा प्राथमिकता में पड़ती है ।
आज नेकपा के अन्दर देखते हैं तो सिर्फ दो नेता दिखाई देते हैं– केपीशर्मा ओली और पुष्पकमल दाहाल प्रचण्ड । यह दो नेता बैठकर जो निर्णय करते हैं, वही पार्टी का निर्णय हो जाता है । वैसे तो पार्टी के भीतर माधव कुमार नेपाल, वामदेव गौतम लगायत अन्य नेताओं का भी अपना–अपना गुट है । जब यह गुट देश और जनता को भूल कर व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए क्रियाशील रहता है तो लोगों में निराशा तो आ ही जाती है । मैं नेकपा से निकट हूं, लेकिन खुल कर आज भी कहता हूं– केपी ओली जो कर रहे है, वह ठीक नहीं है । चुनाव से पहले उनका जो राष्ट्रवादी चरित्र था, आज नहीं है ।

वास्तव में नेकपा को आज जो बहुमत प्राप्त है, उसमें प्रमुख कारण विगत की केपी ओली का राष्ट्रवादी चरित्र है । भारतीय नाकाबंदी में उन्होंने जो अड़ान लिया, वह जनभावना थी । उस समय उन्होंने कहा कि जब तक नाकाबंदी नहीं खुलेगा, तब तक मैं भारत भ्रमण में नहीं जाउंगा । लेकिन उनका इसतरह का राष्ट्रवादी चरित्र अभी नहीं है । जो खेल भारत सदियों से नेपाल के ऊपर खेलता है, वह आज पुनः जारी है । आज उसी के अनुसार सत्ता संचालन हो रहा है ।
एक उदाहरण पेश करता हूं– चुनाव से पहले शेरबहादुर देउवा और कृष्णबहादुर महरा को दिल्ली बुलाया गया । उहां उन लोगों को कहा गया कि इसको (केपी ओली को!) हटाओ, तुम लोग प्रधानमन्त्री बनो अर्थात् प्रचण्ड और तुम आधा–आधा समय बांट लो । यह सिर्फ मेरा ही कथन नहीं है । सारे मीडिया में आ चुका है । दिल्ली और काठमांडू में सैकड़ों पत्रकार हैं, हर जगह किसी ना किसी का आदमी रहता ही है, जो इस तरह का समाचार ढूंढ निकालते हैं ।

जब केपी ओली को पहली बार हटा दिया गया, उसके बाद उनकी राष्ट्रवादी छवि बन गयी थी । जनता भी भारत के प्रति रुष्ट थे । इसीलिए ओली के पक्ष में पोलराइजेशन हो गया, केपी ओली की छवि के कारण ही नेकपा को बहुमत मिली । आज फिर उलटा क्रम देख रहा हूं ।

महाकाली में भारतीय राजनीति
कोई पद तथा प्रतिष्ठा के लिए मैंने अपने विश्वास की तिलाञ्जली नहीं दी । जैसे कि महाकाली संधि की ही बात आती है । उस मुद्दा में मैंने सांसद् होकर भी पार्टी ह्विप का उलंघन किया । आज भी प्रश्न है– २२ साल से महाकाली पञ्चेश्वर बहुउद्देश्यी जलविद्युत आयोजना क्यों नहीं बन रहा है ? क्योंकि भारत की योजना रिभर–लिंकिङ है, विद्युत उत्पादन नहीं है । आप देखते हैं कि चेन्नई में ट्रेन से पानी पहुँचाना पड़ रहा है । कभी यह संकट मुम्बई में आ जाती है । संक्षेप में कहें तो भारत में पानी का हाहाकार है । उन लोगों ने प्राकृतिक स्रोत (भूमिगत पानी) का इतना दोहन किया है कि आज कई जगह से पानी नहीं निकल रहा है । महाकाली से जो पानी बहता है, उसको रिभर लिंकिङ के माध्यम से भारत उपभोग करना चाहता है, जिससे भारत में रहे पानी का संकट भी समाधान हो सके । दिल्ली और आगरा तक पीने का पानी का जो संकट है, वह नेपाल के महाकाली से ही पुर्ति हो सकती है । उसके लिए यहां बड़े–बड़े बांध निर्माण करना पड़ेगा । भारत की मुख्य चाहत यही है, इसीलिए महाकाली नहीं बन पाया है ।
इसी तरह नेपाल ने अरुण–३ को भी भारत को दिया है, यह हमारी गलती है । उस समय एमाले ने इस में विरोध किया था । एमाले ने ही वल्र्ड बैंक को एक शर्त रखकर अरुण–३ खुद बनाने की बात की थी, जिसके चलते उस समय में नहीं बन पाया । लेकिन २५ साल के बाद वही लोग अरुण–३ भारत को देने के लिए राजी हो गए, राष्ट्रवादी चरित्र यहां भी स्खलित हो गया । इसीतरह टनकपुर संधि की भी बात आती है ।
संक्षेप में कहें तो भारत में पानी संबंधी जो संकट आनेवाला है, उसका समाधान सिर्फ नेपाल से हो सकता है । यह तो सच है कि नेपाल का पानी बहकर भारत में ही जाता है, उसका उपभोग भी नेपाल नहीं कर पा रहा है । लेकिन कोशी बांध, गण्डक बांध का हमारा जो कटु अनुभव है, उससे सीख लेनी चाहिए । नेपाल में जो बांध बाधा जाता है और उससे जो जमीन डूब जाती है, उसकी क्षतिपुर्ति कौन करेगा ? बांध के ही कारण नेपाल में हर साल जो क्षति हो रही है, उसका क्षतिपुर्ति भारत कहां दे रहा है ? आज कोशी हाई–ड्याम की बात हो रही, भारत का रवैया पुराना ही रहा तो कोशी हाई–डयम नेपाल के हित में नहीं है । हम लोगों को सोचना चाहिए कि उसके बदले नेपाल को क्या मिलता है ? सबसे पहले यह तय होना चाहिए । अगर उचित क्षतिपुर्ति भारत देने के लिए राजी है तो नेपाल को भी सोचना चाहिए । हां, भारत को पानी की जरुरत है, नेपाल में बांध बना कर उस संकट को समाधान करने के लिए हम लोग भी सहयोगी बन सकते हैं, लेकिन नेपाल में जो नुकसान होता है, उसकी उचित क्षतिपुर्ति तो मिलनी चाहिए ।
नाम कमाने की चाहत
८१ साल का हो चुका हूँ, चाह कर भी बहुत–कुछ नहीं कर पाता । बचपन में माता जी पूछती थी– तुम बड़ा होकर क्या कमाओगे ? पैसा कमाओगे या नाम ? मैं कहता था– नाम कमाउंगा । उसके बाद मां पूछती थी– नाम कमाओगे तो खाना कौन देगा ? मैं कहता था– जब मेरा नाम रहेगा तो खाना सब लोग देने लगेंगे । अर्थात् मैं शुरु से ही नाम कमाना चाहता था । इसीलिए बदनाम न हो, इसके प्रति हरदम सचेत रहा । तब भी छोटी–मोटी गलती होती ही रही है, जो उल्लेख्य नहीं है, जिससे मुझे पछताना पड़े । यूं कहे तो छोटी–मोटी गलती हर व्यक्ति के जीवन में होती है ।

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति
आज प्रायः हर रोज का अखबार में भ्रष्टाचारजन्य समाचार होती है । आज के ही अखबार (वि.सं. २०७६ श्रावण २७) में भी है कि बिना टेण्डर २ अरब का ठेका दे दिया गया, ऐसी भ्रष्टाचारजन्य समाचार रोज अखबारों में आता है और खण्डन करने की हिम्मत संबंधित पक्ष किसी के पास भी नहीं है । इसका मतलब अखबारों में जो आ रहा है, वह सच हैं । वर्तमान सरकार ही भ्रष्टाचारजन्य क्रियाकलाप को अनियन्त्रित छोड़ रही है ।
इसी कारण हमारे देश में विकास नहीं हो पाया है । भ्रष्टाचारजन्य गंदगी को हटाना है तो सिर पर पानी डालना पड़ेगा । सिर पर पानी डालने से ही वह पानी पैर तक आ जाता है, लेकिन आप पैर पर पानी डालेंगे या पैर को लेजाकर नदी में डुबांएगे, इससे कुछ भी होनेवाला नहीं है । आज अख्तियार वही कर रहा है । खैर ! इससे भी छोटा–मोटा भ्रष्टाचार तो नियन्त्रण होता है । लेकिन भ्रष्टाचार को पूर्ण रूप से नियन्त्रण करना है तो सिर पर ही पानी डालना होगा, वह सिर राजनीति है ।
अध्यात्म के प्रति रुचि नहीं है

वैचारिक रूप में मैं कम्युनिष्ट से निकट रहा । अध्यात्म के प्रति कभी भी रुचि नहीं रही । मैं बनारस में रहा हूँ, काठमांडू में आते वक्त मेरी पत्नी धन कोइराला पशुपति दर्शन के लिए जाती थी । वह मुझे भी जाने के लिए बोलती थी । मैं कहता था– ‘जूता खोलकर भीतर जाना पड़ता है, वहां(रास्ते में) कीचड़ रहता है ।’ ऐसा ही कुछ कहकर टाल देता था । विश्वास अपना–अपना है । इसीलिए वह विश्वास करती थी तो जाती थी, मेरा विश्वास नहीं है तो मैं नहीं गया । लेकिन जानेवालों को मैंने नहीं रोका । मैं नहीं मानता, इसका मतलब धर्म और अध्यात्म के प्रति वैरभाव रखना चाहिए, ऐसा मैंने कभी भी नहीं कहा ।

विश्व में मनुष्यों की संख्या ६–७ अरब है, उसमें से मुश्किल से १ अरब नास्तिक हैं, बांकी सब आस्तिक ही हैं । कोई हिन्दू हैं, कोई बुद्धिष्ट, क्रिश्चियन, मुसलमान, सब का अपना–अपना विश्वास है । कोई तन्त्र–मंत्र पर विश्वास करते हैं । अपने विश्वास को थोड़ी देर के लिए अनदेखा कर दुनियावालों के विश्वास पर नजर डालते हैं तो बहुत अजीब–सा लग सकता है । इसी विषय को दृष्टिगत कर मैंने बहुत साल पहले एक लेख लिखा था । उसका सार है– संसार झूठ से चल रहा है, स्वर्ग और नरक का झूठ । स्वर्ग प्राप्ति के लिए ही हमारे पिता–पुर्खा काशीबास जाते थे । उन लोगों में विश्वास था कि अगर काशी में देह त्याग करेंगे तो स्वर्ग मिलेगा । आजकल के कई लोग उस तरह की परम्परा को छोड़ चुके हैं । उन लोगों को विश्वास भी नहीं है । लेकिन धर्म और अध्यात्म के नाम से स्वर्ग और नर्क की बात कर लोगों को डराने का काम आज भी हो रहा है । लेकिन लोग विश्वास करते हैं । विश्वास करने वालों को यह छूट भी है । अगर आस्तिक होकर कोई व्यक्ति अपने चरित्र में सुधार लाते हैं, मानव जीवन और प्रकृति संरक्षण के लिए सकारात्मक सोच विकास करते हैं तो ठीक ही तो है !
काम में ही सुख और खुशी

भगवान को मानकर अच्छा काम करें या भगवान को अस्वीकार कर, अगर किसी से मानव हित के लिए काम हो जाता है तो वही खुशी की बात है । खुद को आस्तिक कहते हैं, लेकिन मानव हित के विपरित क्रियाकलाप करते हैं तो उसको आस्तिक होने का कोई भी अर्थ नहीं है । आज विश्व के जितने भी जेल हंै, उसमें रहनेवाले अधिकांश व्यक्ति आस्तिक हैं । इसका मतलब आस्तिक व्यक्ति से पाप अर्थात् अपराध नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है । इसीलिए मैं कहता हूं कि आप आस्तिक हो या नास्तिक, अपने कर्तव्य का हरदम खयाल करना चाहिए, अपनी क्षमता के अनुसार काम करते रहना चाहिए । क्षमता होते ही विस्तारा पकड़ने की जरुरत नहीं है । इसी में आप को खुशी मिलेगी । मानव जीवन भी यही है ।



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