काला दिवस की छाया में संविधान दिवस, सत्तासीन की नीयत पर शंका : श्वेता दीप्ति
डॉ श्वेता दीप्ति, हिमालिनी अंक अगस्त , सितंबर 2019 | हर्ष और विषाद की छाया में एक बार फिर संविधान दिवस मनाने की औपचारिकता पूरी कर ली गई । परन्तु क्या सचमुच इस दिन के लिए लोगों के अंदर उत्साह या लगाव दिखता है ? ये वही संविधान है जिस पर संविधानसभा में मधेशी आदिवासी जनजाति, महिला और दलित आदि समुदाय के अधिकार को सुनिश्चित नहीं करने का आरोप लगा है और जिसका आज भी एक क्षेत्र में विरोध किया जा रहा है । जिन्होंने विरोध किया, जिनका रक्त बहा, वो सब जाया चला गया क्योंकि आज भी सब जैसा का तैसा ही है । हाँ संविधान संशोधन का एक प्रयास जरूर किया गया था । २० असोज २०७२ में तत्कालीन प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला नेतृत्व की सरकार ने संविधान लागू होने के तुरन्त बाद पहला संशोधन किया था ।
समानुपातिक समावेशी सिद्धान्त स्वीकार करना तथा जनसंख्या और भूगोल के आधार में निर्वाचन क्षेत्र निर्धारण करने के विषय में संशोधन किया गया था । विडम्बना यह है कि जिन विषयों पर मधेश आन्दोलन हुआ वह आज भी पूर्ववत है । संविधान मधेश की माँग को सम्बोधित नहीं कर पाई और आज भी सत्त्तासीन की कोई नीयत नहीं है कि उसे सम्बोधित किया जाय । यही कारण है कि जहाँ संविधान दिवस को मनाने के लिए सरकारी तौर पर दीपावली मनाने की बात सामने आती है वहीं प्रदेश नम्बर दो की जनता ब्लैक आउट कर के काला दिन मनाती आ रही है ।
मधेश की विवशता यह है कि आज उसके समक्ष कोई मजबूत राजनेता नहीं है जो उनके लिए प्रतिनिधित्व कर सके । संविधान का विरोध करने वाले मधेशवादी दल सत्ता के साथ हैं और तो और अब तो उन्हें मधेश शब्द भी पच नहीं रहा । इसलिए न तो उनके दिल में मधेश है और न ही उनकी पार्टी के नाम में । शायद वो राष्ट्रीय स्तर के पार्टी की कल्पना में मशगूल हैं । पर वो भूल रहे हैं कि उनके दाख प्रयास के बाद भी उनकी पार्टी का आसरा मधेश ही बनेगा । वो किसी भी चुनाव में पहाड़ी क्षेत्र से संसद कक्ष तक नहीं पहुँच पाएँगे । पर अभी उन्हें यह सब सोचने की फुरसत कहाँ है । अक तो मधेश हाउस ने भी दीवाली मना ही लिया है अब यह संविधान बनने की खुशियाली है या शहीदों के मजार पर जलाया गया दीप यह तो उनकी अन्तरात्मा ही बताएगी ।
सच तो यह है कि यह सत्ता का खेल अजीब होता है । कभी तो जनता की उम्मीदों को जगाकर सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी नेता तैयार करते हैं और कभी उन्हीं उम्मीदों की कफन तैयार कर के सत्ता को अपने हक में बचाने की कोशिश करते हैं । संविधान, संघीयता, सीमांकन, पहचान, अधिकार, नागरिकता कल तक इन सारे शब्दों ने जनता के अन्दर जिस चाहत को जगाया था, जिसे पाने की उम्मीद वो पिछले कई वर्षों से सरकार से करती आ रही थी, जब इन्हें यथार्थ में ढालने का वक्त आया तो देश की दशा ही बदल गई ।
देश ने तथाकथित मशक्कत के बाद संविधान को पाया है । तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. रामवरण यादव ने बड़ ही श्रद्धा के साथ उस संविधान को अपने मस्तक से लगाकर उसे जनता को समर्पित किया था । जहाँ उनकी यह हरकत नाटक लगी थी वहीं मधेश की जनता के सीने को भी उन्होंने छलनी किया था । ये और बात है कि आज उन्हें भी लग रहा है कि वर्तमान संविधान मधेश के हितों की व्याख्या नहीं करता है । किसी भी देश के लिए उसका संविधान और उसका निर्माण महत्तवपूर्ण होता है । निःसन्देह एक अविस्मरणीय क्षण होता है, किसी भी देश के लिए जब उसका अपना संविधान होता है । गणतंत्र में जीने का तात्पर्य होता है, अपने मौलिक अधिकारों के साथ जीना । गणतंत्र यानि एक ऐसा राष्ट्र जिसकी सत्ता जनसाधारण में समाहित हो । जहाँ जनता का तंत्र हो, जहाँ जनता के हित की व्याख्या संविधान करता हो तभी किसी लोकतंत्र या गणतंत्र की व्यवस्था को सही रूप प्राप्त हो सकता है ।
संविधान, एक ऐसा जीवित दस्तावेज जिस पर देश और देश की जनता अभिमान करती है, उसमें अपने अधिकारों को सुरक्षित देखती है और उम्मीद से भरी निगाहें विकास की राह देखतीं हैं । बहुमत के द्वारा लाया गया संविधान निश्चय ही निर्विवाद हो सकता था, अगर उसमें सम्पूर्ण देशवासियों को सम्बोधन किया गया होता । मसौदे से लेकर संविधान जारी होने तक और आज भी, वर्षों से शोषित देश का एक पक्ष निरन्तर संघर्षरत है ।
देश के प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा कि संविधान असंशोधनीय धर्मग्रन्थ या पाठ कर के बैठे रहने वाला स्तुति श्लोक नहीं है, यह गतिशील दस्तावेज है, यह देश को चलाने वाला मार्गदर्शक है । इसके संशोधन के लिए बहस करने के लिए हम तैयार हैं । प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य बताता है कि वो भी स्वीकार कर रहे हैं कि संविधान अपूर्ण है । फिर इसमें कोई पहल क्यों नहीं हो रहा है ? क्यों यह विषय आज भी हाशिए पर है ? क्यों जब कोई मधेशवादी दल प्रधानमंत्री से इस विषय पर मिलना चाहती है तो उनके पास वक्त नहीं होता ?
देश की आधी से अधिक आबादी आज भी असंतोष की आग में जल रही है । कई घरों के चिराग बुझे थे विगत में । पर उन्हीं लाशों के ढेर पर संविधान बना और दीवाली भी मनाई गई । हद तो इस बात की है कि राष्ट्र की ओर से फरमान ही जारी कर दिया गया कि एक दिन नहीं तीन दिनों तक दीवाली मनाई जाय । यह फरमान जारी करना अच्छी तरह यह जता रहा है कि सत्ता किसे चिढ़ाना चाह रही है या किसे उसकी औकात बता रही है । पर अफसोस तो उन दावेदारों के लिए होता है जो मधेश के मसीहा बनने का दावा करते रहे और आज मिट्टी के माधो बने हुए हैं ।
मधेश के नेताओं ने नारा दिया था ‘एक मधेश एक प्रदेश’ । मधेशी जनता उत्साहित थी कि अब उन्हें और उनके अस्तित्व को पहचान मिलेगी । उनकी मेहनत का फल भी उन्हें ही मिलेगा और शासन के हर क्षेत्र में उन्हें स्थान मिलेगा । फलस्वरूप अपने प्रतिनिधियों को उन्होंने चुना । किन्तु जिनके हाथों मधेश की पतवार थी उन्होंने ही कश्ती को डुबोया । एक मधेश और एक प्रदेश की माँग करने वाले खुद ना जाने कितने टुकड़ों में बँट गए । इनके धनमोह, परिवारमोह और जातिमोह ने मधेशमोह को कहीं परे ढकेल दिया । मधेश खुद से ठगा गया । अवसरवादी नेता आज भी इससे निकल नहीं पा रहे और इसकी पीड़ा मधेश की जनता आज तक भुगत रही है । मधेश को आज भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है यह लगभग तय हो चुका है । कल तक एक मधेश एक प्रदेश की माँग आज एक मधेश दो प्रदेश में बदल चुका है और सत्तासीन तो मधेश की स्थिति को और भी लचर बनाने के लिए तैयार बैठे हुए हैं । मधेश की स्थिति आगामी दिनों में क्या होगी यह तो आन्दोलन के पश्चात् ही कायम हो चुका था । मधेशी जनता अपने ऊपर हुए विभेद के कारण ही अलग प्रान्त चाहती थी किन्तु आन्दोलन के बाद राज्य ने ही यह तय किया था कि मधेश को स्वायत्त प्रदेश की मान्यता दी जाएगी । किन्तु नेताओं ने ऐसी नीति अपनाई कि बात जातीयता, पहचान आदि मुद्दों में उलझती चली गई ।
आज भी जनता की भावनाओं को उकसाकर राजनीति की खिचड़ी पकाई जा रही है । पहचान, संस्कृति, भाषा ये कुछ ऐसे भावुक शब्द हैं जिसमें किसी भी समुदाय विशेष को उलझाकर नेतागण अपनी स्वार्थसिद्धि करते रहे हैं । किन्तु किसी भी क्षेत्र का विकास उसकी समृद्धि और सामथ्र्य पर निर्भर करता है । अगर आपके पास वही नहीं है तो आपकी पहचान और संस्कृति तो स्वयं मिट जाएगी । समृद्धि और सामथ्र्य के लिए एकजुटता की आवश्यकता होती है । सोचने वाली बात तो यह है कि आजतक मधेश जिस विभेद और शोषण का शिकार होता आया है क्या वह जाति विशेष था, क्षेत्र विशेष था या वर्ग विशेष था ? नहीं यह शोषण समग्र में था । जब जब अधिकार की बात हुई किसी ना किसी तरह फूट डालकर उसे रोका गया । मधेश के विकास में आज वही नेता बाधा बने हुए हैं जिन्हें मधेश के विकास के लिए के लिए चुना गया था । उनकी मौकापरस्ती और सत्ता मोह ने मधेश को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है । आज भी वो इससे बाज नहीं आ रहे हैं । मधेशवादी दलों को जिस विभेद ने जन्म दिया था आज उनकी अवसरवादिता, सत्तामोह और परिवारमोह ने उन्हें पतन की ओर धकेल दिया है । मधेश का भूभाग त्रास और संताप में जी रहा है । खुशी मनाने की कोई वजह उसके पास नहीं है । न अधिकार, न शक्ति, अगर मधेशी जनता के लिए कुछ है तो विभेद, शंका और दोयम दर्जे की भावना ।
आज के समय में सरकार द्वारा आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि वो अब और संविधान संशोधन के विषय को लम्बा ना करें । क्योंकि कभी कभी किसी बात को अनावश्यक रूप से छोड़ने पर उसका दूरगामी असर काफी नकारात्मक होता है । संविधान को बने चार वर्ष हो चुके और बहुमत की सरकार भी अपने दो वर्ष पूरे करने जा रही है । इस बहुमत के सरकार से जनता की काफी आशाएँ और उम्मीदें जुड़ी हुई थीं । केन्द्रीय सरकार किसी एक क्षेत्र या वर्ग का नहीं होता है वह पूरे राष्ट्र का होता है उसे समग्र देश की जनता की आशाओं पर खरा उतरना होता है । हाल ही में भारतीय चुनाव में भाजपा ने जीत का जो किला फतह किया और उसके बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस नीति की अवधारणा रखी वह प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है । भाजपा को हमेशा से मुस्लिम विरोधी कहा गया इस सोच को खण्डित करने के लिए ही मोदी सरकार ने नारा दिया “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” । यह महज एक नारा नहीं है इसके ऊपर ही भारत की आगामी दिनों की राजनीति टिकी हुई है । क्या ऐसा कुछ हमारी सरकार नहीं कर सकती जिससे यह लगे कि यह सरकार हर क्षेत्र, हर जाति, हर प्रांत के लिए है न कि किसी समुदाय विशेष के लिए । समृद्ध नेपाल और सुखी नेपाल की अवधारणा क्या किसी विशेष क्षेत्र को नजरअंदाज कर के पूरा किया जा सकता है ?
पर सरकार की संस्थागत संरचना, निकाय और संयन्त्र से आम जनता का विश्वास टूटता नजर आ रहा है कहीं ना कहीं बहुमत की सरकार से जो उम्मीद और आशाएँ आम जनता की थी वह खण्डित हो रही है । कई मुद्दे पर सरकार जनता के सामने निष्पक्ष होकर नहीं आ पाई है जहाँ जनता को लगता रहा है कि उसे ठगा जा रहा है । काण्ड पर काण्ड होते रहे हैं और सरकार उस पर लीपापोती करती रही है । आज गाँवपालिका, नगरपालिका के प्रतिनिधि निरंकुश बन रहे हैं काम कम और सुविधाओं का व्यापार ज्यादा हो रहा है । कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है । संविधान ने न तो समग्र जनता का पूरी तरह विश्वास अर्जित किया है और न ही इसका सही कार्यान्वयन ही समभव हो पाया है ।
संविधान वह, जो लोकतन्त्र, मानवअधिकार, आवधिक निर्वाचन, बहुदलीय शासनप्रणाली, मौलिक हक, स्वतन्त्र न्यायपालिका, विधि का शासन, जनता में निहित सार्वभौमसत्ता आदि की विशेषताओं को आत्मसात् करे ।
वर्तमान संविधान से पहले नेपाल ने सात संविधान को देखा है और उसके अल्पायु को भी झेला है । संविधान कितना स्थिर है और कितनों को संतुष्ट कर सकती है उस पर ही संविधान की आयु टिकी होती है । संविधान एक जीवित दस्तावेज है, जिसमें समयानुसार परिवर्तन की अपेक्षा बनी रहती है । भारत के संविधान में अब तक बाइस मरतबा संशोधन हो चुका है । अगर बाबा अम्बेदकर के बनाए संविधान को ही पूर्ण मान लिया जाता तो निःसंदेह भारतीय संविधान भी भारत की जनता के लिए सर्वोपरि नहीं होता । इसलिए वस्तुस्थिति और मापदंड के हिसाब से संविधान में संशोधन किया जाना गलत नहीं होता है ।
विश्व के सर्वश्रेष्ठ संविधान का जिसे उपमा दिया गया उस संविधान दिवस को मनाने के लिए अगर फरमान जारी किया जाता है तो इससे यह जाहिर होता है कि स्वयं सरकार भी यह जानती है कि इसे जनता ने स्वतःस्फूर्त रुप से स्वीकार नहीं किया है । इसलिए फरमान से अधिक प्रयास की आवश्यकता है जहाँ सम्पूर्ण राष्ट्र गर्व और आत्मीयता के साथ अपने संविधान को स्वीकार कर सके ।