स्त्री, सिर्फ स्त्री है, शहरी या ग्रामीण नहीं आज भी उसके छोटे से मन में बसता है मिट्टी का घरौंदा
स्त्री,
सिर्फ स्त्री है,
शहरी या ग्रामीण नहीं
आज भी उसके छोटे से मन में
बसता है
मिट्टी का घरौंदा
जिसमें आस का दीपक
दहलीज पर जला
करती है वह अपने
सपनों का इन्तजार
आज भी उसके मन में बसी है
कागज की कश्ती,
नदी का किनारा, तालाब, पोखर
, गुड्डे, गुड़ियों की चाह,
बाजारीकरण के वाबजूद भी
जिन्हें खोजती है, वह
देश विदेश की जमीन पर,
आज भी बसा है,
उसकी जिह्वा पर
मक्के की रोटी सरसों का साग
आम की चटनी का देशी स्वाद
जिसे खोजने निकल जाती है वह
दूर पांच सितारा होटलों में
आज भी बसी है उसमें
, नवीन परिधानों के बीच,
विशुद्ध भारतीय आत्मा
जिसे तुम नहीं समझ पाएं
पारखी नजरों के
वाबजूद भी।