अफरातफरी की राजनीति में पहली बार मधेश ने शासक को ललकारा है : कैलाश महतो
कैलाश महतो, नवलपरासी | नेपाल सरकार के पूर्व स्वास्थ्य राज्यमन्त्री डा. सुरेन्द्र यादव को माने तो वो वह शख्स हैं जिनके वजह से समाजवादी पार्टी को ठीक उस घडी में तारणहार किया है जब उसकी नैया डुवने ही बाली थी । सुरेन्द्र जी अपने बात से कितना करीब हैं, यह तपसिल की बात है । इसका पोल तो देर सबे खुलेगा ही । जो भी हो, सरकारी अध्यादेश ने किसी को नयाँ जीवन शक्ति दी है तो किसी के सपने को चकनाचुर किया है । केपी ओली ने जो षड्यन्त्र और शरारत की, वैसे उसकी सजा फिलहाल उसे मिल चुली है । मगर जो षड्यन्त्र ओली ने की, वह हमेशा के लिए टल ही गया, ये कहना गलत होगा । भविष्य का भवितव्य जो भी हो, मगर फिलहाल अफरातफरी की राजनीतिक रणनीति ने पहली बार शासक को मधेश मे ललकारा है ।
राजपा और सपा मिलन की चर्चा वर्षों से चल रही थी । मगर दोनों का नक्षत्र और कुण्डली न मिल पाने के कारण एक होना मुश्किल हो रहा था । मगर दोनों के मिलन एक एेसे पंडित के गलती से हो गया जिसकी कल्पना केपी पंडित ने भी नहीं कर पायी थी । जैसा कि पंडित हमेशा इसी दांव और ताक झाँक में रहता है कि वह कितना दान दक्षिणा का लाभ उठा सकता है, केपी बाबा ने भी यह दांव लगाया था कि अपने मधेशी जजमान को चुना किस ढंग से लगा सकते हैं । उन्होंने बडी होशियारी से पंडित्याई करने की कोशिश की थी । मधेशी जन को हलाल करने के लिए सबसे पहले अध्यादेशीय कानुन का निर्माण किया । बडे तैयारी के साथ मधेशी सांसदों को स्नान ध्यान कराने का माहोल बनाया । जिस निर्वाचन आयोग नामक पवित्र चढौना स्थान पर उनकी बली चढायी जानी थी, उसे साफ सुथरा करबाया गया । मगर केपी बाबा का दुर्भाग्य कहना पडा कि चढावा स्थल पर सांसद रुपी छागरों के गर्दन में रस्सी बाँधकर सांसद्वय महेश बस्नेत और किसान श्रेष्ठ के हाथों ज्यों ही निर्वाचन आयोग नामक काली माता के दरबार में ले जाने का समय आया, बुद्धिमान एक छागर उस छागरों के बथान से सट् से निकल कर पुजारी का पोल खोल दिया । हालात हाथों से निकलते देख पुजारी बाबा हल्का बक्का रह गये और उसके प्यादा बने निर्दोष उन बेचारों के गर्दन काटने के लिए हाथों में खंजर लिए तैयार सर्वेन्द्र खनाल नामक अन्धविश्वासी कसाई का सारा योजना विफल हो गया । राजनीतिक बजार में एेसा हल्ला फैला कि पुजारी जी जहाँ एक तरफ अपना सारा मंत्र भूल गये, वहीं कुसमय में ही बली चढाये जाने बाले सारे छागरों ने एक समूह बनाकर प्रतिकार में खडे हो गये । तत्कालीन समाजवादी पार्टी के संघीय अध्यक्ष रहे डा. बाबुराम भट्टराई ने जो भूमिका अदा की, वह भी पार्टी और पीडित समुदाय के इतिहास में इज्जत के साथ सुरक्षित रहेगा ।
यह केवल एक संयोग नहीं, अपितु छप्परफाड एक सुनहरा मौका है मधेश के राजनीति में । यह सिर्फ आरोप, लांछना और शिकायत ही नहीं कि मधेश आधारित राजनीति करने बाले पार्टियाँ और नेतृत्वों ने मधेश के साथ हमेशा छल, बेइमानी और नाइन्साफी किया है, बल्कि मधेश के आत्मा को भी छलनी किया है । हमेशा सत्ता, शक्ति, सरकार, पद और पैसे के लालच में ही नेपाली शासन के इसारों पर अपने पार्टियों को बार बार तोडफोड करने बाले मधेशी नेताओं ने पहली बार सत्ता को लात मारते हुए पार्टी और पार्टी नेतृत्व को साथ और सहयोग दिया है । दरवाजे पर खुद से चलकर आये सत्ता, पद और पैसों को तमाचा मारते हुए स्वाभाव से ही सत्ताभोगी रहे दो ३६ के आँकडे बाले दो पार्टियाँ और उसके नेतृत्व एक साथ खडे होकर सत्ता संचालक को नयाँ पाठ सिखाते हुए यह सावित किया है कि मधेशी सिर्फ टुटना फुटना ही नहीं जानता, मुसिबत के घडी में एक होना भी जानता है । और इसका श्रेय दोनों मिलने बाले पार्टियों के नेतृत्व पंक्ति को जाता है । अपने अपने अर्थहीन दावे और अहंकारों को तिलाञ्जली देकर दो पार्टियों को एक सूत्र में बाँधने बाले सारे नेतृत्वों को मधेश सलाम करेगा अगर मधेश आन्दोलन विरुद्ध के विगतों के अपने गलतियों को सुधारकर जनता का आवाज बने । आगे के दिनों में भी सत्ता को दूसरे पैदान पर रखकर मधेश द्वारा उठाये गये मुद्दों को प्राथमिकता देने के लिए नेताओं से जनता की अपेक्षा है । एेसा नहीं कि मधेश को पद, पैसा और सत्ता नहीं चाहिए । उन्हीं को प्राप्त करने के लिए तो मधेश ने इतनी बडी शहादत दी है । मगर इस बात को हम हमेशा याद रखें कि जबतक मधेशियों को शासन में सहभागिता नहीं मिलती, सत्ता भर में सहभागी होने से उन्हें वो कभी न मिलेगी जिसके लिए सैकडों मधेशी माँओं ने अपनी गोद खाली की है, सैकडों विधवाओं ने अपने माथे का सिन्दुरें दान की हैं, हजारों बच्चों ने अपना पनाह खोया है और लाखों ने घायल जीवन बिताया है ।
मधेश आधारित दल और नेतृत्वों को इस बात को हमेशा याद करके चलना महत्वपूर्ण होगा कि बिना आधार कोई भी सन्धी सम्झौता मधेशी और पीडित वर्गों के लिए किसी प्रकार का विकास और समृद्धि ला सकता है । भाडे के घर में रहकर कोई उस घरका मालिक नहीं बन सकता । बिना धरातल जब कोई एक छोटा सा झोपडी नहीं बना सकता तो फिर महल का ख्वाब सजाना पागलपन के आलावा और कुछ नहीं हो सकता । बालुओं के ढेर पर बनाये गये सुन्दर महलों का न कोई भविष्य होता है, न अस्तित्व । राजनीति के कुछ लाल बुझक्कड अकवरों सुन्दर ख्वाब सजाते हुए आकाश में ही महल बनाने के सपने देखे हैं । उसके लिए उन्होंने ईंट, पत्थर, बालु, गिट्टी, छर, सिमेन्ट आदि तो जमा कर ली है, मगर जमीन नहीं है । उन्होंने अपने बीरवलों से अन्तरिक्ष में सुन्दर सा महल बनाने का निर्देश तो दे दिये है, मगर महल बनाने की तरकीबें निकालने की कोशिश की जानी चाहिए । सोलहवीं सदी के बीरवल ने समझदारी से ही अपने सम्राट अकवर को बता दिया कि भूमीय आधार के बिना गगन में महल नहीं बन सकता । हो सके आज के बीरवलों के पास कोई नयाँ तकनिक हो और वे सफल भी हो जायें । मगर मधेशियों के भरोसे को घायल कर चुके मधेश आधारित दलों को मधेशी, जनजाति, महिला, अपाङ्ग, अल्पसंख्यक, दलित आदि आन्दोलनों के द्वारा उठाये गये मुद्दों को सम्बोधन करने हेतु राज्य के साथ सम्पन्न : अर्थपूर्ण संघीयता, समानुपातिक समावेशी प्रतिनिधित्व का पूर्ण पालन, साझा संविधान, सेना, न्यायालय, निजामती लगायत राज्य के हरेक तह, तप्के और नियोग में कानुनत: पूर्ण साझेदारी के सम्झौतों को परिपालन करवाने का जिम्मेवारी निर्वाह करें । उसके लिए तबतक संघर्ष करें जबतक मधेशी लगायत उल्लेखित समुदायों को यह सब प्राप्त ना हो जाये । फिर हम भी केवल सत्ता नहीं, शासन के भी अंशियार होंगे ।
सन् १९३७ में सम्पन्न इंडियन लेजिस्लेटिव असेम्बली के निर्वाचन में नेहरू के विरोध के बावजूद गाँधी ने निर्वाचन में भाग ली । ११ प्रान्तों में से ८ प्रान्तों में भारतीय काँग्रेस को भारी बहुमत मिला । पर वे कर कुछ न सके । १९३८ में गाँधी ने भी महशुस किया कि दूसरे के अधीनस्त कानुन के दायरे में जिते गये जीत का कोई मायना नहीं होता । जेल में रहे मण्डेला को दक्षिण अफ्रिकी प्रधानमन्त्री पी. डब्ल्यू बोथा और बाद में प्र. मं. डी. क्लार्क ने राज्य के अनेक शर्तों पर सहमति करने को कहा । मगर मण्डेला ने अपने प्राण के किमत पर भी अपने अश्वेत लोगों के राष्ट्रिय मुक्ति मार्ग से हटने को तैयार न हुए । उन्होंने राज्य के हरेक शर्त को बर्खास्त कर अपने लोगों को राज्य आतंक से मुक्त किया । नेपाल में राष्ट्रिय मुक्ति का मार्ग प्रशस्त है । इसके लिए पीडित जनता तैयार हैं । नेतृत्व इमानदार रहा तो चन्द ही महीनों के अन्दर राष्ट्रिय मुक्ति आन्दोलन सफल हो सकता है ।
राज्य से सहमति लेने बाला हर विद्रोही शक्ति कोई न कोई लाभ लेता है । क्योंकि उसके साथ जनसमर्थन होता है । वह कोई अपराधी नहीं होता भले ही राज्य नियतवश उस पर कोई भी आरोप लगाये हो । संसार के हर विद्रोही शक्ति पर राज्य कोई न कोई जघन्य आरोप लगाता रहा है । मगर अन्ततः जीत उसी की होती है अगर सूत्रबद्ध होकर मेहनत, इमानदारी, निडर और स्पष्ट होकर नेता नेतृत्व प्रदान करे । भारतीय समुद्री नमकीन पानी से नमक निर्माण करने के लिए सन् १९३० के मार्च अप्रिल माह में भारतीय काँग्रेस ने गाँधी के नेतृत्व में डांडी सत्याग्रह आंदोलन शुरू की थी । अंग्रेजी हुकुमत ने नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में कैद किया था । उसके विरोध में भारतभर में अनियन्त्रित आन्दोलन हुई । अंग्रेजों ने हार मानी । हार माने अंग्रेजी शासन ने गाँधी के साथ सम्झौता करने का प्रस्ताव रखा ।
सन् १९३१, मार्च ५ के दिन गाँधी और वायसराय लर्ड इरवीन बीच हुए ६ बूँदे सम्झौते से भारतीय नागरिक को महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त हुआ था । उस सझौता के आधार पर अंग्रेजी हुकुमत द्वारा भारतीय जनता पर भारतीय जनता द्वारा नमक बनाये जाने के माँगों पर लगाये गये सारे प्रतिवन्धों को निरस्त किया था । नमक बनने के समुद्री किनार के डाँडी नामक स्थान से गिरफ्तार किये गये गाँधी, नेहरू, पटेल लगायत के सारे बडे नेताओं की सम्झौता से पहले रिहाई हुई थी । भारतीय स्वाधीनता और स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में १९३१ का गाँधी-इरवीन सम्झौता बेहद सफल और फलदायक माना जाता है । देखें सम्झौता के बूँदों को जो निम्न थे:
१. हिंसा पैदा करने में दोषी न ठहराए गए सभी राजनीतिक कैदियों को तत्काल रिहा किया जाए।
२. तटों के किनारे स्थित गाँवों को उनके उपभोग के लिए नमक बनाने का अधिकार देना।
३. सत्याग्रहियों की जब्त की गई संपत्तियों को वापस करना।
४. विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर शांतिपूर्ण ढंग से रोक लगाने की अनुमति दी जाए।
५. कांग्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों को हटाना।
६. सभी जारी किए गए अध्यादेश वापस लेना और आंदोलन को समाप्त करना।
इसके परिणाम स्वरूप कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थागित करने और द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए सहमति हुई।
विद्रोही सफलता के लिए सम्झौता करता है, प्राप्त उपलब्धि समेत को गंवाने के लिए नहीं । इस बात पर मधेशी नेतृत्व को हमेशा सजग होने की आवश्यकता है ।
अनुभवी मधेशी नेतृत्व अपने सवल नेतृत्व के गाइडलाइन में मधेश के युवा नेतृत्व से अगर काम लें तो केपी ओली जैसे कोई भी नेपाली शासक से मधेश निपट सकने में सक्षम है । मधेशी अब गुलाम नहीं बन सकता । मधेश के राजनीति में जो चमत्कारिक बुद्धि और शक्ति देखा गया है, वह यूवा नेतृत्व का कमाल है । अब यह राजनीति के चाणक्य माने जाने बाले मधेशी अनुभवी नेतृत्वों की बारी है कि वे अब खुद दीशाबिहीन न होकर यूवा नेतृत्व को साहस और शक्ति दें और मधेशियों का सुनहरे भविष्य का रास्ता निर्माण करें ।
विगत में जो जैसा रहा हो, मगर आज के तिथि में मधेश के नेतृत्वों ने जो सुझबुझ और जादुई करिश्मा दिखाई है, वह काविले तारीफ है । मधेश को बिश्वास दिलाना अब मधेशी नेताओं के हाथों में है । आशा है यह एकता तबतक नहीं टुटेगी जबतक मधेश अपना पूरा वजूद कायम नहीं कर लेता है । विश्वास है कि जिस सत्ता और सरकार प्रवेश के गलियारे को नेताओं ने त्याग किया है, वह तबतक कायम रहेगा जबतक मधेश और सम्पूर्ण शोषित पीडित वर्ग, समाज और समुदाय को शासकीय प्रणालियों में समानुपातिक रुप से भाग लेने का पूर्ण अधिकार न मिल जाये ।
