जनता समाजवादी पार्टी का गठन : एक नए नेपाल के निर्माण की और पहला कदम
डॉ.गीता कोछड़ जायसवाल तथा सिपु तिवारी | नेपाल फिर से उत्तेजित राजनेताओं और दुखी लोगों की राजनीतिक उथल-पुथल में है। इस बार की उथल-पुथल प्रधानमंत्री खड़का प्रसाद ओली के नेतृत्व में सत्तारूढ़ बहुमत वाली पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) द्वारा बनाया और प्रचारित किया जा रहा है। 22 अप्रैल 2020 पूरी रात एक नाटक बन गया, जिसके तहत प्रत्येक अभिनेता ये अनुमान लगा रहे थे की ऊंट किस करवट बैठता है। एक तरफ, राष्ट्रपति बिध्या देवी भंडारी के पूर्ण समर्थन के साथ अध्यादेश पारित करने के लिए पीएम ओली के एकतरफा फैसले थे, जो एनसीपी के भीतर दरार पैदा कर रहे थे; और दूसरी ओर, तराई क्षेत्र का बड़ा समर्थन और नियंत्रण हासिल करने के लिए एनसीपी द्वारा तराई आधारित राजनीतिक दलों को विभाजित करने का प्रयास किया जा रहा था। इस अराजकता ने भारत में ही नहीं, बल्कि चीन में भी सनसनाहट फैला दी की चीन के राष्ट्रपति और राजदूत कोविद -19 महामारी के समर्थन की आठ में सक्रिय हुए और नेपाल के सत्तारूढ़ नेताओं से वार्तालाप करने लगे। इस से यह साबित होता है कि ना सिर्फ़ भारत बल्कि चीन भी पड़ोसी देश नेपाल में राजनीतिक स्थिरता चाहता है, मगर नेपाल की राजनीति में धन और शक्ति का खेल उच्च स्तर पर है।
रात लंबे अराजकता का अप्रत्याशित परिणाम तराई आधारित समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल (राजप्पा) के लंबे समय से विलंबित एकीकरण के साथ समाप्त हुआ, और जिन नेताओं को पार्टी को तोड़ने का लालच दिया गया था वह भी लौट के एकजुट गठबंधन में शामिल हुए; जबकि कोविद -19 के प्रकोप की चुनौतियों के बीच पीएम ओली के इस्तीफे की मांग के साथ एनसीपी सचिवालय कि आपतकालीन बैठक आयोजित हुई। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एनसीपी जो ‘भ्रष्टाचार मुक्त नेपाल’ का दावा करती है, वह न केवल सभी भ्रष्ट प्रथाओं का उपयोग कर रही है, बल्कि एक एकजुट पार्टी के रूप में चुनाव लड़ने के बावजूद पार्टी के भीतर शासन करने के लिए शक्ति और पद के मामलों में अत्यधिक विभाजन है।
जबकि, नेपाल में अधिकांश चर्चा नव-आधारित जनता समाजवादी पार्टी (जएसपी) के निर्वाह को लेकर है। दुनिया में बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य पर विचार करते हुए नेपाल में जिन मुद्दों पर अधिक बहस की आवश्यकता है, वह हैं: क्या कोविद -19 संकट के कारण भविष्य की आर्थिक चुनौतियां नेपाल के भीतर अधिक अस्थिरता पैदा कर सकती हैं? क्या बीमार पीएम ओली अपने करीबी कार्यवाहक बाम देव गौतम (जो एनसीपी एकता के पीछे मुख्य व्यक्ति के रूप में माने जाते हैं) को भविष्य के पीएम के रूप में अपने नियंत्रण में रख पाते हैं या नहीं? जनता समाजवादी पार्टी की भविष्य की दिशा और बड़ी नेपाली राजनीति में इसकी भूमिका क्या होगी? क्या नेपाली कांग्रेस पार्टी, मुख्य विपक्षी दल जो की नेतृत्व की गंभीर अभाव से गुज़र रही है, एक राजनीतिक खेल परिवर्तक के रूप में फिर से उभरेगी? या एनसीपी में ओली की शक्ति के प्रसार से एनसीपी की एकता में गिरावट आएगी, जिससे प्रतिनिधि सभा के भीतर शक्ति केंद्रों का पुनर्मूल्यांकन होगा?

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और सत्ता संघर्ष
मई 2018 में एनसीपी (यूएमएल और माओवादी) के गठन के बाद से, पद विभाजन और कार्यकर्ताओं की रचना में लगातार गहमा गहमी रही है। चुनाव जीतने के लिए गठित एकता के परिणामस्वरूप एनसीपी को प्रतिनिधि सभा में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त हुआ, लेकिन वैचारिक मतभेद और पार्टी कार्यकर्ताओं की सदस्यता अस्पष्ट संगठनात्मक संरचना के साथ एक बड़ी चुनौती बनी रही। धीरे-धीरे यूएमएल समूह से ओली, जिन्हें पीएम पद पर रखा गया, ने पार्टी पर अपना नियंत्रण मजबूत कर लिया और माओवादी समूह के सह-अध्यक्ष प्रचंड को कई तरीकों से दरकिनार कर दिया गया। मई 2019 में, प्रचंड ने खुले तौर पर दावा किया कि ओली और प्रचंड ने सरकार और पार्टी को वैकल्पिक आधार पर एकजुट करने के लिए एक गुप्त सौदा किया था, जिसके चलते वे बारी बारी से सरकार और पार्टी का कार्यभार संभालेंगे। लेकिन, अगस्त 2019 तक ओली यह दावा करने के लिए सामने आए कि वह पूरे पांच साल के कार्यकाल के लिए पीएम के रूप में नेतृत्व करेंगे और विपक्षी ताकतों को चेतावनी दी कि वह “सरकार पलटने का सपना न देखें”। इसके बाद प्रचंड को भविष्य के पीएम के रूप में देखने के लिए एनसीपी के कई पूर्व माओवादी कार्यकर्ताओं की उम्मीदों पर पानी फिर गया और उन्हें सिर्फ़ पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया।
ओली ने जनता के समर्थन और पार्टी के भीतर नियंत्रण हासिल करने के लिए अति राष्ट्रवादी प्रवचन चलाए। भारत और चीन सहित विदेशी शक्तियों पर अत्यधिक निर्भरता के बिना राज्य का विकास और गरीबी को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए “समृद्ध नेपाल, सुखी नेपाली” का उनका आह्वान, कई नेपालियों के लिए एक स्वागत योग्य शुरुआत थी। प्रस्ताव था कि नवगठित पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाएगी और सामाजिक न्याय को बनाए रखने में काम करेगी। सरकार को चलाने की ओली की शैली विपक्षी पार्टी – नेपाली कांग्रेस – की गहन आपत्तियों के साथ बहस का एक निरंतर विषय बनी रही, कुछ लोगों ने ओली की कार्यशैली को ‘निरंकुश’ शैली का नाम दिया। हालाँकि, जनता के विश्वास को हिला देने वाले महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे गोकुल बसकोटा भ्रष्टाचार या कोविद -19 संकट के दौरान ओएमएनआई तकनीक समूह से चिकित्सा उपकरणों के आयात में गबन इत्यादि भ्रष्टाचार के असंख्य मामले सामने आए।
हाल के आरोप जो तराई के लोगों में रोष पैदा कर रहे हैं, वह हैं एनसीपी की सत्ता और धन का उपयोग कर मधेस आधारित पार्टियों को विभाजित करने का प्रयास। एनसीपी या व्यापक कैबिनेट में परामर्श के बिना दो अध्यादेश (राजनीतिक दल अधिनियम और संवैधानिक परिषद) की राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद, रेनू यादव और कुछ अन्य सदस्यों को जल्द ही एक स्वतंत्र पार्टी के रूप में पंजीकृत करने की नाकाम कोशिश की। दो अध्यादेशों में सबसे महत्वपूर्ण था राजनीतिक दलों के अधिनियम (पीपीए) में संशोधन करना, जिसके तहत पहले पार्टी विभाजन करने के लिए पार्टी केंद्रीय समिति और संसदीय दल दोनों से 40 प्रतिशत समर्थन की आवश्यकता थी, जिसे बदल कर अब पार्टी केंद्रीय समिति या संसदीय दल में 40 प्रतिशत समर्थन की आवश्यकता कर दिया गया था। संवैधानिक परिषद के अध्यादेश ने मुख्य विपक्षी दल के नेता की भागीदारी के बिना भी संवैधानिक नियुक्तियाँ करने वाली संवैधानिक परिषद की बैठक बुलाने की अनुमति में बदला गया। हालाँकि, अब ये दोनों पारित अध्यादेश वापस ले लिए गए हैं, लेकिन इसमें पूरे नेपाल में और पार्टी के भीतर काफ़ी गहमागहमी का माहौल बना दिया।
कई लोग यह मानते हैं कि राजनीतिक दलों के अधिनियम में संशोधन का मुख्य कारण यह हैं की ओली पार्टी केंद्रीय समिति और संसदीय दल दोनों में खुद के लिए समर्थन की कमी की आशंका रखते हैं। लेकिन इसके चलते मधेश आधारित समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल को विभाजित करने का उद्देश्य और भी स्पष्ट हो जाता है। पिछले साल दिसंबर में, समाजवादी पार्टी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और ओली राष्ट्रीय विधानसभा चुनावों में गठबंधन बनाने के लिए राजपा के साथ तालमेल करने में सफल रहे थे। अगर प्रचंड एनसीपी छोड़ने और विपक्षी राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने की योजना बनाते हैं, तब मधेसी दलों के बीच विभाजन से ओली को प्रतिनिधि सभा में ‘अविश्वास प्रस्ताव’ पेश होने पर मदद मिल सकती है, क्योंकि 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में मधेस आधारित दो दलों के पास कुल 34 सीटें हैं, जिसमें रेशम चौधरी की एक सीट शामिल है जिसे उनकी जेल अवधि के कारण निलंबित कर दिया गया है; जबकि कांग्रेस के पास 63 सीटें हैं। यह जानना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान में सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में सत्तारूढ़ एनसीपी के पास 174 सीटें हैं इसमें 121 पूर्व यूएमएल सदस्य हैं और 53 पूर्व माओवादी गुट के शामिल हैं, हालांकि हाल में एनसीपी के भीतर सदस्यों और उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं के बीच संबद्धता और समर्थन डोलता रहा है।
जनता समाजवादी पार्टी – मधेस के लिए आशा की नई किरन
सात सांसदों और सदस्यों के रूप में दिखाई देने वाली समाजवादी पार्टी के विभाजन की संभावना के साथ (रेणु यादव, सुरेंद्र यादव, मोहम्मद इश्तियाक राय, प्रदीप यादव, उमाशंकर अर्घ्य, कालुदेवी बिस्वकर्मा, रेणुका गुरुंग) एनसीपी के समर्थन से पार्टी को तोड़ने और एक स्वतंत्र पार्टी बनाने के लिए काम कर रहे थे। लेकिन इसी बीच जनता समाजवादी पार्टी (जएसपी) नाम से राजपा और सपा समझौते की एकजुट नई पार्टी का गठन किया गया। राजपा और सपा समझौते की एकजुट पार्टी में राजपा नेता महंत ठाकुर, राजेंद्र महतो, महेंद्र राया यादव और सरतसिंह भंडारी के साथ समाजवादी पार्टी के नेता डॉ. बाबूराम भट्टाराई, उपेंद्र यादव, अशोक राय और राजेंद्र श्रेष्ठ ने हस्ताक्षर किए। पार्टी ने फिलहाल महंत ठाकुर को अपना प्रमुख बनाने का फैसला लिया है।
एकता की ओर बढ़ने वाली घटनाओं में मोड़ तब आया जब सुरेंद्र यादव ने खुलासा किया कि पार्टी छोड़ने और राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी (राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी, आरएसपी) के नाम से एक स्वतंत्र पार्टी बनाने के लिए उन्हें एनसीपी के इशारे पर मैरियट होटल ले जाया गया था। यह समझा जाता है कि नई पार्टी में रेणु यादव को उपाध्यक्ष का दर्जा दिया जा रहा था; जबकि कुछ अन्य को उच्च स्तरीय समितियों का पदभार या मंत्री का पद देने का आश्वासन था। हालाँकि, पार्टी नेताओं के बीच यह खबर फैलने के साथ ही पार्टी प्रमुखों के बीच तेजी से कार्रवाई हुई और एकीकृत पार्टी के गठन में तेजी लाने के लिए निर्णय लिया गया, जिसका गठन पिछले साल तक कुछ मीडिया रिपोर्टों द्वारा ’असंभव’ बताया गया था।
हालांकि नई पार्टी बन गई है, लेकिन कई विशेषज्ञ और राजनीतिक टिप्पणीकार इसे जल्दबाजी में लिए गए निर्णय के रूप में देखते हैं जो कि विखंडन के लिए बाध्य है। कई मुख्य टिप्पणियों में कहा जा रहा है कि मधेस आधारित पार्टियां पदों को लेकर लड़ती रही हैं, जिसका कई दलों या उप-समूहों में टूटने का लंबा इतिहास है। इसलिए, कई लोग इस नई एकता के निर्वाह के आशावादी नहीं हैं और मानते हैं कि जब पार्टी के पदानुक्रम और भविष्य के पदों का फैसला किया जाएगा, तो विभाजन होना संभव है, जिसके परिणामस्वरूप एकता का पतन होगा।
हालांकि, ये सभी अटकलें इस तथ्य को स्वीकार करने में विफल हैं कि अगर पार्टी के नेताओं को बड़े पैमाने पर समर्थन हासिल करना है और अपने पदों को बनाए रखना है, तब मधेस आधारित पार्टियों के पास भविष्य के लिए बहुत कम विकल्प है या कोई विकल्प नहीं है। 2015 के ‘मधेस आंदोलन’ जो तराई क्षेत्र के अनुचित व्यवहार के खिलाफ था और राज्य के सभी अंगों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व या समावेश की मांग कर रहा था, को लेकर मधेस के लोग पहले से ही प्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ आक्रोश में है, क्योंकि उन्होंने पूरी लड़ाई को नष्ट कर दिया।
दिलचस्प बात यह है कि संवैधानिक संशोधन के लिए मधेसियों की मांगों पर विचार करने के लिए बाबूराम भट्टाराई ने उपेंद्र यादव के साथ मिलकर समाजवादी पार्टी बनायी और केंद्र सरकार पर दबाव बनाया, जोकि राजेंद्र महतो के नेतृत्व में 2008 के मधेशी आंदोलन का कारण भी था। समाजवादी पार्टी का गठन संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य के संस्थागतकरण के लिए काम करना, समता के लिए संवैधानिक संशोधनों की तलाश करना और नेपाल के स्थाई विकास में योगदान करना था। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि मौजूदा हस्ताक्षर किए गए समझौते में “बहुराष्ट्रीय राज्य” शब्द का उपयोग जातीय पहचान की धारणा को लागू करने के संकल्प को दोहराता है और नेपाल के संप्रभु राज्य में मधेस के सच्चे समामेलन की मांग करता है।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू इस नए गठबंधन के गठन का समय है। जबकि एनसीपी में अधिक दरारें आ रही है और प्रचंड, माधव नेपाल जैसे कई अन्य शीर्ष नेता ओली की एकतरफा कार्यशैली से नाखुश हैं, सत्तारूढ़ एनसीपी के खिलाफ एकजुट होने के लिए अन्य दलों के पास एक वजह है। पहले से ही, राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य दल पीएम ओली के इस्तीफे की तलाश और एनसीपी के वर्तमान शासन को भंग करने के लिए अत्यधिक आक्रामक हैं। अगर यह नवगठित गठबंधन कांग्रेस के प्रति झुकाव रखने वाले कुछ एनसीपी नेताओं के साथ जुड़ा जाता है, तो ओली की स्थिति अधिक जोखिम हो जाएगी, हालांकि सचिवालय की बैठक के बाद ओली ने भविष्य के पीएम के रूप में बाम देव गौतम का कार्ड खेला है, जो उनके खिलाफ किसी भी संभावित गठबंधन को कमजोर करने की नीति है।
तीसरा महत्वपूर्ण कारक कोविद -19 संकट के समय अर्थव्यवस्था और राज्य की कमज़ोर स्थिति है। कई तराई प्रवासी या तो लौट रहे हैं या नेपाल लौटने का इंतजार कर रहे हैं; जबकि नेपाल में उनके लिए भविष्य में कोई नौकरी नहीं है। आर्थिक मंदी रोजगार बाजार और गरीबी को और बढ़ाएगी। लोगों का पलायन, अगर सभी सरकार द्वारा नेपाल में वापस ले लिया जाते है, तो नेपाली सरकार के लिए एक बड़ा बोझ बन जाएगा। यदि जनता समाजवादी पार्टी इस बल का उपयोग नेपाल में तराई के लोगों की असमानता और अनुचित व्यवहार के मुद्दों को उठाने के लिए करेगी, तो मधेस आंदोलन की चौथी लहर दूर नहीं।

प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
