इंतजार है उस बासंती बहार का, जो कर ले समाहित मुझे : कुलदीप दहिया “मरजाणा दीप”
” मन तितली सा “
मैं उड़ रही हूं
अपने नवेले पंखों के संग
मेरे यौवन रूपी जोश का सहारा ले,
मेरी इस सुगबुगाहट से
नशेमन हैं भ्रमर कुछ इस कद्र
जैसे ले रहे हों अंगड़ाइयाँ
मेरे इस लबालब हुस्न से भरपूर
रेशमी बदन से बिखरती महक़ का,
आतुर हूँ मैं भी
दीदार अपना पाने को
काश वो करे आकर आलिंगन मेरा,
अपनी उंगलियों के पोरों से
सहलाये मेरे नरम-2 पंखों को,
निसार कर दूं मैं भी
सर्वस्व अपना
कर डालूं मदहोश उसे
अपनी मदमस्त अदाओं से,
मैं चाहती हूँ
अपार, असीम,अनंत प्रेम को पाना
इसी आगाज़ से
उड़ती चली जा रही हूं !

कि वो क्षणिक पल
जिसको पाने के बाद
ना रहेगी कोई आकांक्षा
और मेरा रोम-2 हो उठे पुलकित !
इंतजार है उस बासंती बहार का
जो कर ले समाहित मुझे,
और मेरे अंतर्मन में धधकती
प्रेम रूपी अग्न हो जाये शांत फिर !
डूब जाऊं मैं भी
हो आंकठ
उस असीम संसार मे
जहाँ सिर्फ और सिर्फ
प्रेम रूपी पराग को पीने
की लालसा से तृप्त हो जाऊं !
भाव-विभोर हो
उड़ती रहूँ, उड़ती रहूँ
तब तक,
जब तक कि मेरा ये क्षणभंगुर
हाड़-मांस का अस्थिपंजर
छोड़ ना दे अंतिम सांस अपनी ।
दूर हो जाये तिमिर
मेरे सब भृमित ख्यालों का
और जल उठे “दीप” एक उम्मीद का
कि शायद यही मेरा अंतिम पड़ाव है !!

हिसार ( हरियाणा ) भारत
हिमालिनी वेब मैगज़ीन की समस्त संपादकीय टीम का दिल की गहराइयों से हार्दिक आभार।