भारत और नेपाल सम्बन्ध के बीच रोता मधेश : कैलाश महतो
मधेश का अस्तित्व भी ढेर सारे प्रश्नों के घेरे में कैद होता जा रहा है ।
कैलाश महतो, नवलपरासी, हिमालिनी अंक जुलाई। यह होता है कि इंसान खुद भी उस रिश्तेदार को भूल जाता है, जब वह भौतिक रुप से विदा ले लेता है । मगर उस रिश्तेदार को भूलना अधर्म होता है, जो किसी न किसी रुप में रुप में जिन्दा हो ।

मधेश में इस समय बहुत से दिल दिमागों मधेश आन्दोलन की असफता, इसके पीछे के कारणों और भविष्य में अपनाये जा सकने बाले सावधानी और रणनीतिक विषयों पर गंभीर बहस तथा छलफल किये जा रहे हैं । विश्लेषण के इस दौरान में मधेश आन्दोलन और इसके राष्ट्रिय अन्तर्राष्ट्रिय आयामों तथा कमी कमजोरियों के बारे में भी मंथने हो रही हैं । इसमें सबसे ज्यादा भारत का चर्चा सामने आ रहे हैं ।
विश्लेषकों को माने तो भारतीय मनोविज्ञान का चरित्र यही रहा है कि वह अपने कहे जाने बाले सम्बन्धितों को भी गुमराह करने को ही कुटनीति समझता है । भारत और उसके मीडियाओं के चरित्रों को देखें तो नेपाली शासकों से पीड़ित मधेशियों को चट्ट से भारतीय मूल के मधेशी कहने से परहेज नहीं आते । एक तो नेपाली शासक जान बूझकर मधेशियों को भारत से जोडकर प्रताड़ित करते आ रहे हैं, उपर से भारतीय मीडिया समेत मधेशियों को भारतीय कहने में अपना बडप्पन प्रदर्शन करता रहता है । मधेशियों को भारत अपना भारतीय क्यों कहता है, यह तो वही जानें । मगर उसके पीछे कुछ मनोविज्ञान जरुर छूपे होने चाहिए ।
मधेश को अब भारत से उसके कहे जाने बाले रिश्तों को बारीकी से अध्ययन करना होगा । आंख बन्द करके मधेश अगर भारतीय पक्षों को समग्र रुप में अपना मानता रहा तो आने बाला वक्त मधेशियों के लिए उपलब्धि विहीनता को ही आमन्त्रण कर सकने की अवस्था हो सकता है । उहापोह की स्थिति तो यह है कि मधेशी न तो नेपाली बन पा रहा है, न वह भारतीय ही है । मधेश का अस्तित्व भी ढेर सारे प्रश्नों के घेरे में कैद होता जा रहा है । दुर्भाग्य यह भी है कि काम के सिलसिले में मधेश आने बाले प्रायः भारतीय न जाने किन हथियारों के सहारे नेपाली नागरिकता प्राप्त कर लेते हैं जो मधेशियों के भविष्य का सबसे बडा काल बन बैठे हैं । आलम यह है कि उन भारतीय लोगों को नागरिकता देने बाले अधिकारी लोग उनसे अरबों की वसूली करते हैं और गाली मधेशी को खाना पडता है । उन भारतीयों के कारण शुद्ध मधेशी भी शंकों के घेरे में पड जाते हैं । स्थिति यह हो गई है कि भारतीय से नेपाली बनने बाले अधिकांश लोग पैसे के बल पर सरकारी अवसरों के सौदागर, गैर कानुनी धन्धे, व्यापार, कमिशनखोरी, अनियमितता आदि करने में इतने मशगुल हो गये हैं कि अब वे नेपाली राजनीति समेत पर हावी होते जा रहे हैं । समान्य मधेशियों को केवल गुलाम मतदाता बनने पड रहे हैं ।
मधेश को अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए भारतीय भाषा को समझना बेहद जरुरी है । उसके मनोविज्ञानों के परतों को खोलें तो उनके द्वारा मधेशियों को भारतीय होने के जिक्र करने के कुछ कारण स्पष्ट होता है । पहला यह कि वह मधेशियों को अपना ओरिजिन कहकर भारत के प्रति उनके भावनायें जोडना चाहता है । दूसरा, मधेशियों का हवाला देकर नेपाली शासन पर अपना आधिपत्य कायम करना उनका उद्देश्य है । तीसरा यह कि मधेशियों को दिखाकर नेपाली राज्य से अपने स्वार्थों को पूर्ति करना । चौथा, मधेश को दिखाकर नेपाल को साइज में रखने का रणनीति तय करना, और पांचवां, मधेश को भारतमुखी बनाकर भारत निर्भर बनाने और मधेश को अपांग करना ।
भारत किन आधारों पर लोकतांत्रिक मुल्क है, इस बात को वही जानें, मगर वह लोकतंत्र बिल्कुल सीमित वर्गों में ही सीमित है । जबकि लोकतंत्र व्यापक आयामों को पकडती है । दुनियां का सबसे फटेहाल स्थिति भारतीय जनता के शर पर है । कोरोना महामारी के अवधियों में लोगों की जो दयनीयता सडकों पर देखने को मिली, संभवतः वह स्थिति किसी भी एशियाई मुल्क में नहीं है । सारे भारत को अपने पसीनों से सींचने बाले बिहारी और उत्तर प्रदेशीय लोगों के जीवन को आज भी अंग्रेजी शोषण के परिधियों से बेहतर होने नहीं दिया जा रहा है । हमारे भारतीय रिश्तेदारों की भी मानसिकता, आर्थिकता, चैतन्यता आज भी वही हैं जो आज से सौ – दो सौ वर्ष पूर्व थे ।
भारत के समान्य मानसिकता यही है कि नेपाल बहुत छोटा देश है । नेपाल भारत का खाता है । भारत न रहे तो नेपाल भूख से सूख जायेगा । जबकि नेपाल से कई गुणा देश रहे स्विट्ज़रलैंड, कतार, दुबई, सिंगापुर, उत्तर और दक्षिण कोरिया, भ्याटिकन सीटी जैसे देशों से समानता के आधारों पर बात करेगा । क्योंकि वे विकसित व ताकतवर मुल्कें हैं । मगर नेपाल व मधेश के राजनीतिक नेतृत्वों को भारत इतने दीन और हीन भाव से देखता है कि नेपाल उसके बाद राजनीतिक और राजनयिक नेतृत्वों से सुलझने के लिए अपने कर्मचारियों का प्रयोग करता है जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के खिलाफ है । किसी अन्य देश के राजनीतिक समस्याओं को समाधान करने राजनीतिक रुप से करने के लिए कूटनीति देखने बाले कर्मचारियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इससे समस्या और जटिल हो जाता है ।
मधेश को भारत से रहे सम्बन्धों पर गहन चिन्तन करना जरुरी हो गया है । सबसे पहले इस बात को आत्मसात करना होगा कि भारत और भारतीय बाजारों के बगैर भी मधेश जिन्दा रह सकता है । इसका सबसे बडा प्रमाण है कि विगत छ: महीनों से बन्द रहे भारतीय सीमाओं के बावजूद मधेश जी खा रहा है । भारत के बिना जीवन असंभव बाली बात अब समाप्त हो रही है । मधेश जितना भारतमुखी होता रहा है, उतना अगर वह अन्तरमुखी हो लें तो नेपाल लगायत के मुल्कों से भी सम्बन्ध अच्छा बनाया जा सकता है ।
जहाँ तक भारत से मधेश का रोटी बेटी की सम्बन्ध बाली बात है, वह भी अब ज्यादा दिन तक चलने बाली नहीं है । चलना भी नहीं चाहिए । यहाँ तक कि नेपाल अधीनस्थ मधेश की अधिकांश पढी लिखी लड़कियाँ भी भारत में शादी करना नहीं चाहती । कारण भारतीय मनोवृत्ति बतायी जाती है । भारतीय लड़कियाँ भी अब स्वत: नेपाल में शादी करना बन्द कर देंगी जब सन् १९५० की सन्धि को परिमार्जित किया जायेगा या भारत या नेपाल में से कोई पासपोर्ट प्रणाली लागू कर दें । वैसे भी सन् १९८९-९० में तत्कालिन भारतीय प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के सरकार द्वारा नेपाल पर लगाये गये नाकाबंदी ने १९५० के भारत-नेपाल सन्धि को निरस्त कर दिया है । सही में कहा जाय तो उस सन्धि को परिमार्जित करना ही होगा ।
मधेश की एक आम कमजोरी है कि वह यह समझता है कि भारत उसका हितैसी और परम् सहयोगी है । यह बिल्कुल बेबुनियादी विश्वास और तर्क है । हकिकत को पहचान किया जाय तो ऐतिहासिक प्रमाण यही कहता है कि भारत मधेश को हमेशा कार्ड के रुप में प्रयोग किया है । मधेश का एक भी आन्दोलन को उसने सफल होने नहीं दिया है । दश बीस लोगों के शहादत के बाद जहाँ नेपाली सत्ता और बडे बडे राजदरबार का श्रीपेच गिर गया, वहीं सैकडों मधेशियों की शहादत और हजारों के अंगभंग होने बाले मधेश को भी मुँह के बल गिरना पडा है । नेपाली परम्परागत सत्ता को ढालने, पुनरावृत्तिकरण करने और व्यवस्था परिवर्तन करने में भी भारत का अहम् भूमिका रही है तो मधेश आनदोलनों को असफलता के डगर पर पहुँचाने का काम भी उसने ही किया है । लोग चाहे दलिलें जो भी दें ।
गुलाम भारत ने तो अंग्रेजों के हाथों मधेश के साथ नाइन्साफी किया ही, उससे कम किसी भी मायने में स्वतंत्र भारत ने मधेशियों के साथ अन्याय नहीं किया । तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो मधेशियों के साथ कोई सम्बन्ध न होने के बावबजूद मानवता और उनके साथ रहे मधेशियों के साथित्व को मोल देते हुए इष्ट इण्डिया कम्पनी और गोरखा के बीच सन् १८१६ में सम्पन्न सन्धि के धारा नं. ७ में गोरखा शासन को मधेशियों के साथ किसी प्रकार के भेदभाव न करने की हिदायत तक दी थी । लडाइयों के निरन्तर चक्रव्यूह में अंग्रेजों को अगर फंसना ना होता तो वे शायद अपने द्वारा किये गये सन्धि के अनुसार मधेशियों को अवसर और सुरक्षा भी प्रदान करवा दिये होते । मगर गुलामी, पीडा, प्रताडना, शोषण व दुर्व्यवहारों को झेले स्वतंत्र भारत ने मधेश के गुलामी, प्रताडना, शोषण, अत्याचार आदि पर थोडा भी ध्यान नहीं दिया ।
भारत ने आजादी के बाद नेपाल के साथ सन् १९५० में जो सन्धि की, उसके अनुसार भी न मधेश को स्वतंत्र नजर से देखा, न नेपाल को समझा और न अपने भूमिका को निर्वाह किया । उस सन्धि के धारा नं. ८ को महत्व दिया गया होता तो न नेपाल और भारत के बीच रहे दशकों की असमझदारी रहती, न मधेश गोरखाली नेपाली का अत्याचार भोगता । आजाद भारत ने अंग्रेजी गुलामी को कायम रखते हुए गोरखाली पल्टन को यथावत रखा । वि.सं. २००७ में हुए राजनीतिक परिवर्तन और तत्पश्चात् बने नेपाल सरकार में भारत की अहम् रोल रही । मगर उस सरकार में मधेशियों की नगन्य उपस्थिति के बारे में कोई ध्यान नहीं दी जबकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं को मधेश के सप्तरी के भारदह जेल से केवल मधेशी वीरों ने निकाला था । मधेश के शरण में रहे सारे भारतीय योद्धा नेताओं को राणा शासन के त्रास के बावजूद मधेशियों ने ही उनका सारा खर्च और सुरक्षा दिया था । राणा शासन के विरुद्ध मधेशियों ने सबसे ज्यादा कुर्बानियां दी ।
भारत मधेशियों के हित और सुरक्षा को तब भी नजर अन्दाज किया जब राजा महेन्द्र ने मधेश विरुद्ध के षड्यंत्र अन्तर्गत हुलाकी राजमार्ग को छोडकर मधेश के जंगलों को बर्बाद करते हुए रणनीतिक ढंग से महेन्द्र राजमार्ग का निर्माण किया । गंभीर बात तो यह रही कि उस समय मधेश में फलते फूलते नेपालगञ्ज, कृष्णा नगर, बहादुरगञ्ज, तौलिहवा, भैरहवा, बीरगञ्ज, जनकपुर, राजबिराज, विराटनगर, रंगेली, भद्रपुर, कलवडगुरी जैसे शहरों को सुखाकर जंगलों में बस्ती बसाने का निर्णय किया गया । भारत उस समय मधेश के उन जंगलों से काठ पाने के रणनीति से नेपाल के साथ मिलकर मधेश को कमजोर करने के काम किया ।
बडी आश्चर्य की बात है कि भारत द्वारा नेपाल में संचालित पहाड़ी प्रोजेक्टों को समय पर ही सम्पन्न कर दिया जाता है । कैयन पहाड़ी तथा मध्य पहाड़ी राजमार्गों को भारत द्वारा ठीक समय पर सम्पन्न कर दिया जाता है । मगर दशकों से उसी भारत द्वारा निर्माण किये जाने बाला मधेश की हुलाकी राजमार्ग आज भी भारत और नेपाल दोनों का मोहताज बना हुआ है ।
आज भी भारत का मधेश को खिलौना बनाने का जो तरीका है, बडा लाजबाव है । भारत के अपने ही मधेश नेपाल से सटे हुए बिहार और उत्तर प्रदेश के विद्यालय और महाविद्यालयों की हालत जर्जर दिखते नजर आते हैं । मगर दानी व सहयोगी के नाम पर वह नेपाल के उन पहाड़ी और हिमाली भागों में करोड़ों करोड के लगानियों से विद्यालय, अस्पताल, प्रशिक्षण हलें आदि बनते हैं जहाँ के लोग भारत को गाली देने, सरापने तथा उसके खिलाफ जहर उगलने व षड्यंत्र रचने के शिवाय कुछ नहीं करते । लेकिन वही भारत मधेश को तुच्छ निगाहों से देखता है और मधेश में लगानी करने से घबराता है । काठमाण्डौ अवस्थित भारतीय दूतावास के मार्फत भारत सरकार द्वारा दिये जाने बाले सारे छात्रवृत्तियों में मधेशी विद्यार्थियों की संख्या नगण्य होते हैं । अगर मधेशी विद्यार्थियों को कहीं मिल भी जाता है तो उसके पीछे मधेशियों की गुलामी और खुशामद प्रमुख कारण होते हैं । योग्य और अव्वल मधेशी छात्र छात्रायें लगभग भारतीय दुतावास के चक्कर लगाते लगाते अपना भविष्य नष्ट कर लेते हैं ।
आश्चर्य तब होता है जब भारतीय पक्ष भी मधेशियों पर ही यही आरोप लगाता रहा है कि मधेशी अपने अडान पर कायम नहीं रह पाता, मधेश के कारण ही भारत बदनाम होता रहा है, मधेशी नेपाली शासकों के हाथों बिक जाता है, आदि इत्यादि । मगर हकिकत कुछ और भी है । हां, इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि मधेशी नेता नियतखोर हैं । मगर मधेशी पार्टी तक को छिन्नभिन्न करने में किसी बाहरी का ही प्रमुख हाथ होता है । वे उन्हें पार्टी और नेता नहीं , अपना कठपुतली बनाने का प्रयास करता रहा है । नेपाली और मधेशी दोनों राजनीतिक आयामों को भारत भिखारियों के ही नजर से देखता है, मित्र के रुप में नहीं । दिल से मद्दत करने बाले कभी यह नहीं कहता कि उसने किसी को मद्दत की है । मद्दत पाने बाले खुद मद्दत करने बालों के प्रति कृतज्ञ होता है । मगर भारत हमेशा जितना देता है, उससे कई गुणा ज्यादा अपना विज्ञापन करता है । दूसरे को भिखारी बताता है । इससे इतर पक्ष को चिढ और तकलीफ दोनों जब हो तो मित्रता कायम होने की बात ही नहीं हो सकती ।
नाम गोप्य रखने बाले कुछ शीर्ष मधेशी नेतृत्वों को मानें तो बात यहाँ तक है कि सहयोग करते समय कुछ विदेशी दूतावास द्वारा सहयोग के नाम पर उन्हें किये जाने बाले सहयोग रकम से दशों गुणा ज्यादा पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं । ऐसे हालातों में मधेश नेपाल और भारत, दोनों स्वार्थ के बीच फंसकर रोने के स्थिति में है ।
मधेश को अब अपने लिए आन्दोलन करना होगा । अपने बल पर खडा होना होगा । उसे किसी और से मद्दत पाने के खयालों को छोडना होगा । जिस दिन मधेश इस बात को दिमाग से निकाल दे कि पडोसी से उसे सहयोग चाहिए, मधेश अपने बल पर करने बाले संघर्षों को सहयोग करने दुनियां के बहुत सारे शक्तियाँ साथ आ जायेंगी । मधेश को अपने पड़ोसियों से समदूरी पर रहकर सहयोग लेना और देना होगा, किसी के पक्ष और किसी के विपक्ष में नहीं ।
उस समय लोग चाहे जो कहें, हम बाहरी मित्रवत सहयोग ले सकते हैं । बिना पडोसी एक परिवार नहीं टिक सकता, बिना बगल के गाँव एक गाँव नहीं चल सकता, बिना किसी के सहयोग एक देश नहीं चल सकता तो बिना पडोसी या बाहरी सहयोग हम आन्दोलन कैसे कर सकते ? यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।