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हिमालिनी  अंक अक्टूबर 2020 |वर्तमान में विश्व राजनीतिक पटल और संस्कार का गहन विश्लेषण किया जाय तो हम यह पाते हैं कि अपवाद को छोड़कर सभी नेताओं में भौतिक लाभ ही केंद्र में विराजमान है । आज, तात्कालिक राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये दीर्घकालिक मूल्यों को नजरअंदाज कर देना वर्तमान राजनीतिक संस्कृति और राजनेताओं के प्रवृत्ति का केन्द्रीय भाव बन गया है ।



राजनीति का अपराधीकरण इसी प्रक्रिया के दौरान हुआ है । अथवा यू कहें की राजनीति अपराधियों का संघ है जो कानून को अपने हाथों का खिलौने बनाकर आम नागरिक के साथ पशुतापूर्ण बर्वर व्यवहार करना अपना गौरव समझता है । जबकि राजनीति का अर्थ ही है ‘सभी नीतियों का राजा’ अर्थात, नीतियों का निर्माण उच्च मानवीय मूल्यों, संस्कारों और प्राकृतिक संपदाओं के संरक्षण और संवर्धन को ध्यान में रखकर हजारों वर्ष के तप, संघर्ष, अनुसंधान और सुक्ष्म निरीक्षण तथा परीक्षण के परिणाम स्वरूप सामाजिक जीवन में व्यवहार के लायक माना जाता है । ऐसे में इसे क्षणिक पदिय और आर्थिक लाभ के लिए तोड़ मरोड़ करना समग्र मानवता के लिए ही दुर्घटना का कारक सिद्ध होता है ।

एक शिक्षित व्यक्ति और समाज में सृजनात्मकता, सहिष्णुता, सहृदयता और सरलता का संस्कार होना नितांत स्वाभाविक है । शिक्षा के क्षेत्र में आज के विश्व सर्वाधिक उन्नति कर चुकी है । वैज्ञानिक शोध और आविष्कार ग्रहों उपग्रहों तथा अंतरिक्ष में नृत्य करता दिखाई दे रहा है । भौतिक संपदाओं का अंबार लगा दिया गया है । जीवन को अति सरल, सहज और सुविधापूर्ण बना दिया गया है । वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण आज समग्र विश्व को एक परिवार में परिणत कर दिया गया है, लेकिन दुर्भाग्य ! कि आज भी मानव जीवन के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाता है जैसा जंगली जीवन में भोजन के एक टुकड़े के लिए अपनों से लड़कर हत्या कर दी जाती थी और लोग उसकी वीरता की गीत गाया करते थे ।

आज हम यदि कुछ पल के लिए भौतिक विकास को आलग करके, मानवीय चेतना और भावनात्मक संवेदनाओं का सही सही तथ्य संकलन कर उसका विशलेषण करें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि भौतिकता के तुलना में मानवता का विकास अति न्यून है ।

जबतक विश्व बंधुत्व का भाव सर्वव्यापक नहीं होगा, तब तक मानवता कराहती रहेगी । जबतक वसुधैव कुटुंबकम् के संस्कार से हम सब संस्कारित नहीं होंगे, तब तक भौतिक जीवन के विकास भी उदास भरा रहेगा । जबतक विश्वव्यापी आपसी विश्वास और भरोसे के लिए माहौल बनाने का प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक जीवन अपनी परम उचाईयों को नहीं प्राप्त कर सकेगा । जब आनंद और उमंगमय मानवीय जीवन ही हमारा उद्देश्य है, तब तो हमे इसकी प्राप्ति के लिए उचित मार्ग भी ढूंढना और चुनना ही होगा ।

आज राजनीति की परिभाषा बदली जा रही है । वर्तमान में सर्वव्यापक परिभाषाः ‘ अच्छे और बुरे सभी साधनों का इस्तेमाल करके अपनी आवश्यकता और उद्देश्यों को पूरा करना ।’ निर्लज्ज, चरित्रहीन तथा भ्रष्ट, परन्तु सफल राजनेता का परिभाषा है ।

सोचनीय बात यह है कि अब भ्रष्टाचार के दोषी शर्मसार भी नहीं होते, बल्कि सब के सामने सीना तान के चलता है । इस तरह का राजनीतिक चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुकी है । राजनीति की भ्रष्ट मानसिकता और आचरण ने पूरे लोकतंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है । स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारी राजनीति में घर कर चुकी है । यह रोग राजनीति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर राजनेता लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है ।

सम्पूर्ण राष्ट्रीय परिवेश में घोर निराशा के स्वर सुनाई देते हैं । वजह यह है कि लोगों को रोज राजनीतिक पतनशीलता के दर्शन और अनुभव होते हैं । ऐसा नहीं कि अब राजनीति में अच्छे लोग नहीं बचे हैं । राजनीति में अच्छे लोग अब भी हैं और किसी आदर्शवाद से प्रेरित होकर राजनीतिक कर्म का रास्ता अख्तियार करने वाले अब भी मिल जाएंगे । लेकिन वे राजनीति की मुख्यधारा नहीं हैं । जो मुख्यधारा है उसके बारे में आम धारणा यही है कि वह अराजक, पतित और भ्रष्ट है । इन भ्रष्टों ने राजनीति को कई हिस्सों में बांट दिया है, जैसे राजनीति, स्कूल की राजनीति, कालेज की राजनीति, मोहल्ले की राजनीति, गांव की राजनीति, शहरों की राजनीति, जाती की राजनीति, धर्म की राजनीति, भाषा की राजनीति, गो मांस भक्षण की राजनीति, आदि आदि । इस तरीके से झूठ का अफवाह फैलाकर, धोखा देकर या बेईमानी कर के अपने उद्देश्यों को पूरा करना ही राजनीति कहलाता है । यहीं राजनीतिक विचलन है ।

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आज व्यावहारिक रूप में लोकतान्त्रिक समाजवादी दल की सरकारें संसार के बहुतों देश में देखने को मिल जाएगा । परन्तु सैद्धांतिक रूप से माक्र्सवादी, लेलिनवादी और माओवादी के आपसी सांझेदारी में संसदीय लोकतान्त्रिक सरकार का एक विशेष अनुभव हम नेपालियों को ही हो रहा है । माक्र्स ने दास प्रथा से लेकर सामंतवाद, पूंजीवाद, समाजवाद और अंत में साम्यवाद को ही मनुष्य के लिए उत्तम गंतव्य के रूप में कल्पना किया है ।

रूसी नेता लेनिन ने हर हाल में अधिनायकवाद कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हीं होना चाहिए । इसके लिए जो भी करना पड़े किया जाना चाहिए, आज यहीं कारण है कि विश्व में कम्युनिस्ट मानवता के लिए खतरा बन गया है । सारे क्रूरताओं की हद पार कर गया है । झूठ बोलना तो उनके लिए वैचारिक महानता का प्रतीक बन गया है । खासकर नेपाली राजनीति और नेताओं के सामाजिक संस्कार पौराणिक विचारधारा से ग्रसित होने के कारण व्यक्तिवाद सर चढकर गरजने लगता है । खुद को राजा तथा राज परिवार के हैसियत से देखने लगता है, जिसके परिणाम स्वरूप नेपाली जनता को आजतक विश्वस्तीय किसी भी प्रकार के सुविधा को उपलब्ध नहीं हो पाया । जनता सुविधा संपन्न होते ही इन हजारों राजनीतिक राजाओं की गरिमा धूल हो जाएंगी ।

जब भूखे और निकम्मे हजारों भेडि़ए किसी राज्य का शासक हो जाए तो वहां की जनता अपने को कब तक सुरक्षित पाएगी ? आज नेपाली जनता वैदेशिक ऋण से दबी जा रही हैं और नेता विदेशी बैंकों में रकम जमा कर रहे हैं । भविष्य में अपनी सुरक्षा के लिए विदेशों में घर खरीद रहे हैं । अपने संतानों को विदेशों में अध्ययन करा रहे हैं । इन सभी कार्यों के लिए धन के एक विशाल राशि की आवश्यकता है इसी कारण बारंबार अरबों डालर का ऋण लिया जा रहा है ।

ऋण जब जिससे मिल जाए, नेपाल लेने को तैयार है । क्योंकि ऋण का भार नेताओं पर नहीं जनता पर पड़ता है । भविष्य में इसे चुकाने के लिए देश के किसी हिस्से को बेचना पड़ेगा या दाता देश के निर्देशन को पालन कर स्वतंत्र देश के गुलाम नागरिक और नेता के रूप में अपना परिचय देना पड़ेगा । आज पाकिस्तान उसी जगह खड़ा है ।

हमारे नेताओं की भी हालत चीन, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और भारत के सामने गुलामों जैसा ही है । तो ध्यान देनेवाली बात यह है कि आज नेता लोग उनकी गुलामी कर अपना पेट भर रहा है तो क्या कल्ह हम नेपाली नागरिक अपने को स्वतंत्र देश के नागरिक कहलाने का हैसियत में रहेंगे ? जो आज हमें मनचाहा ऋण दे रहा है, और हम उसपर मौज कर रहे हैं । विकास तथा उत्पादन से हमें कोई मतलब है नहीं, क्योंकि सभी नेताओं और आधिकारिक कर्मचारियों को लूटने में रस और भविष्य दिखाई दे रहा है, तो इसका भरपाई कौन करेगा और कैसे होगा ? क्योंकि इन मूढ़ सामंतियो के कारण  खुलेआम भ्रष्टाचार और लूटपाट बढ़ेगा ।

अब इनके संतान भी युवराज बनकर दादागिरी करने लगें हैं । उन्हें भी वह सभी सुविधाएं चाहिए जो उनके बाप को राज्य की ओर से प्राप्त है । बिहार में लालू के मूढ़ संतान, गांधी के पप्पू, यूपी के टीपू जैसे हजारों निकम्मे यहां भी तैयार होने लगे हैं । एक राजा के बदले में हजारों जन द्रोही राजा, रानी और राजकुमार तथा राजकुमरियां हम आम नागरिकों के जीवन को बेचकर ऐश हेतु मचल रहें हैं । सावधान हमें होना है, वो तो षडयन्त्र का वाण चला ही रहे हैं । ‘राजनीति का असली मतलब है निर्णय लेने क प्रक्रिया ।’ निर्णय लेने की प्रक्रिया सार्वभौमिक होती है, यानी सभी जगह एक समान होती है । प्राचीन काल में निर्णय लेने की प्रक्रिया के अंदर कुछ सीमित लोग ही भाग लेते थे । जैसे कि राजतंत्र के अंदर राजा और राज घराने के लोग, कुलीन तंत्र के अंदर कुलीन वर्ग के लोग, सैनिक शासन के अंदर सैनिक अधिकारी और बड़े बड़े अधिकारी ही राजनीतिक निर्णय के अंदर भाग लेते थे । लेकिन २०वी शताब्दी में ज्यादातर देशों में लोकतंत्र को अपनाया जाने लगा । लोकतंत्र के आने की वजह से निर्णय लेने की प्रक्रिया सार्वभौमिक हो गई है । क्योंकि सभी लोगो को वोट डालने का अधिकार दिया गया है, जिससे जनता को भी निर्णय लेने की प्रक्रिया के अंदर अप्रत्यक्ष तरीके से सहभागी होने का मौका मिलता है । ध्यान रहे ! जिस राजनीतिक प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति का खयाल रक्खा जाता है, वह देश न कभी गरीब होता है और न कभी गुलाम हो सकता है ।
है तंत्र वही सर्वोत्तम, जिसमे सबकी सहमति ली जाए ।

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सबका आदर, सबका खयाल, प्रतिभा की इज्जत की जाय ।।
जबतक सबका सम्मान नहीं, तब तक उत्तम परिणाम नहीं ।।।

उपर्युक्त महा वाणी से स्पष्ट है कि हम राजनीति के आधारभूत विंदू से भी बहुत पीछे हैं । जिसे लोगों ने साम्यवादी विचारधारा के संवाहक और बहुजन हिताय के संयोजक माना, आज वही कम्युनिस्ट हुकूमी जहानिया शासन के क्रूरता को भी मात दे रहा है । २५० वर्ष के राजा तंत्र को हटाने में जितनी हिंसा नहीं हुई, जितने लोग सहिद नहीं हुए, उससे कई गुणा अधिक अधिनायक वादी कम्युनिस्टों के देश और जन विरोधी कार्यों को विरोध करने में जनता को बलिदान देना पड़ा । आज शासक के शरीर में भले हीं नेपाली अन्न और जल से बना खून हो, लेकिन उसका मन और बुद्धि माओ, लेकिन, माक्र्स, जिनपिंग, ट्रंप जैसों के द्वारा संचालित है ।

अतः देश मानसिक रूप से आज भी गुलाम है । आज हम उन आवारा कुत्तों की तरह हैं, जिन्हें भूख लगने पर भौकने के लिए स्वतंत्रता तो है, लेकिन रोटी भी मिलेगी इसकी संभावना कम है । आज उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक मेरुदण्ड को ही तोड़ा जा रहा है । धार्मिक सहिष्णुता को तार तार किया जा रहा है । जातीय और क्षेत्रीय रूप में सामूहिक वैमनस्य उत्पन्न कर देश को आंतरिक कलह और द्वंद्व का अखाड़ा बनाया जा रहा है । वैसे हम नेपालियों को यह अपनी बहादुरी और आधुनिक समझदारी लग सकता है । लेकिन थोड़ी भी बुद्धि बचा हो तो, हम समझ सकते हैं कि यह योजना वैदेशिक धार्मिक षडयन्त्र का हिस्सा है, को नेपाल में नेपाली हिन्दुओं को हिन्दू धर्म और संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर इसकी जड़ को उखाड़ फेकना है । और यहां ईसाई संस्कृति के जग पर गुलामों का देश निर्माण करना है । इस पुनीत कार्य में यहां के सत्ताधारी तथाकथित वाहुन और सत्ताच्युत जनजाति तथा कुछ मधेशी भी भस्मासुर की भांति उछलकूद मचाते दिख रहे हैं । इन पद लोलूप, धन के भूखे दरिद्र मानसिकता के धनी को क्या कभी देशभक्ति भी समझ में आएगा, या सिर्फ राजा को हटाना और खुद देश तथा जनता के साथ गद्दारी कर राजा बनने का ख्वाब देखना भर इनका उद्देश्य था ! नेपाल को धर्मनिरपेक्ष देश किस हेतु और मांग के आधार पर किया गया ? क्या यही राष्ट्रवाद है ? यदि हां, तो दुर्भाग्य है हमें कि हम इन गद्दार नेताओं के काल खण्ड में जन्में ।

आखिर हम जीवन को समझने में इतनी गलती क्यों कर रहे हैं ! क्या हमें राज्य और राष्ट्र में भी अंतर नहीं दिखाई दे रहा है ? शायद नहींस अन्यथा हम इस तरह से मूढ़ता पर मूढ़ता नहीं करते, होली वाइन के लिए नहीं तड़पते, पैसा कमाने के लिए अपनी बहू बेटियों को अरब देशों के क्रूर अताताई के घरों में नहीं भेजते, यूरोप और अमेरिका में जाकर कुत्तों की जिंदगी जिकर खुद को गौरवान्वित नहीं करते । यहीं पर कहीं न कहीं हमारी मौलिक सोच में भूल हो रही है ।

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आज के समय में एक तरफ जहां सहिष्णुता और असहिष्णुता चर्चा का पर्याय बना हुआ है तो दूसरी तरफ हम अपने राष्ट्र के प्रति निहित कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्व को पीछे छोड़ चुके हैं । यह आधारहीन सोच हमारे राष्ट्र की बुनियाद को ना सिर्फ कमजोर कर रही है बल्कि दीमक की तरफ इसे बड़ी ही शांति से खोखला करने का कार्य भी बड़ी सबलता से करती है । राष्ट्र और राज्य में शुक्षम रूप में काफी अंतर है । इसे उदाहरण के तौर पर इस प्रकार से समझा जा सकता है, यदि शरीर को राज्य माने तो शरीर में बसी आत्मा को राष्ट्र के तौर पर समझा जा सकता है । राष्ट्र और राज्य एक दूसरे के पूरक हैं, मूल रूप से एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । महत्वपूर्ण बात यह है की राज्य की अखंडता हेतु, सभी देशवासियों के हृदय में राष्ट्रवाद की भावना व्यापक मात्र में होनी चाहिए । राज्य वह भौगोलिक सीमाएं हैं जो हमारे विस्तार को भूगोलीक पटल पर चिन्हित करती हैं । पूर्व में मेची से पश्चिम में महाकाली तथा उत्तर में हिमालय से दक्षिण में भारत के सीमा तक विस्तृत भूखंड को हम राज्य कहेंगे ।

इन भोगोलिक सीमाओं की सुरक्षा हमारे सैन्य बल और सीमा क्षेत्र के नागरिक कर रहे हैं और करते रहेंगे, परंतु राष्ट्र की रक्षा करना सैन्य बल की क्षमता से परे है । राष्ट्र की रक्षा हमारे और आपके विचारों में निहित है, संस्कार और भावनाओं में सन्निहित है, शिक्षा और संस्कृति से पल्लवित है, भाषा, संगीत और सृजना से सुवासित है । अतः राज्य का निर्माण यदि भौगोलिक सीमाओं से होता है तो राष्ट्र का निर्माण वैचारिक और भावनात्मक सहिष्णुता, सम्मान तथा समझदारी से होता है, जो राष्ट्र के समग्र विकास का पर्याय है । राष्ट्र कि अपनी संस्कृति और विचार होते हैं, राष्ट्र किसी संप्रदाय विशेष अथवा वर्ग विशेष की मानसिकता न होती है ना हो सकती है ।

ध्यान रहे ! २०द्धट के आंदोलन से जिस राजा को हमने क्रूर कहकर विस्थापित किया और प्रजातंत्र की स्थापना की, उस समय देश में आज के तुलना में अपनी ही देश वासियों के बीच में दशांश भी विभेद नहीं था । हर वर्ग और जाती, धर्म तथा क्षेत्र के लोगों को
कमोवेश अधिकार मिल रहा था, को आज न के बराबर है । तो फिर इतने खून खरावा और राज संस्था का विरोध क्यों ? क्या एक राजा के बदले हजारों राजाओं को खड़ा करना था ? नागरिक को पशुता की ओर धकेलना था ? आज नेपाल में गांव से लेकर राजाधानी तक राजाओं का भरमार लगा हुआ है, जिसका एकही काम है, वो है जनता को लूटना, देश को लूटना, विदेशी के हाथों देश को बेचना । अतः अब जनता इन देश द्रोहियों से आतंकित हो गए हैं । उनके सर्वस्व और धर्मः संस्कृति तक को उनसे छीना जा रहा है । भावना के साथ बलात्कार किया जा रहा है । आज नेपाल और नेपालवासी दीनहीन अवस्था में किसी अज्ञात दुर्घटना के भयावहता से भयाक्रांत है । पार्टी और नेताओं पर से भरोसा मिटता जा रहा है । निहित राजनैतिक लाभ के लिए किस पार्टी के द्वारा कब आम नागरिक को जातीय, प्रांतीय, धार्मिक और सांस्कृिक दंगा के षडयंत्र का शिकार होना पड़े, कब किसका घर उजड़ जाय, किसका वंश ध्वंस हो जाय इस तरह के शंका आज के आम बुद्धिजीवी नागरिकों में होना स्वाभाविक दिख रहा है । इस हालात में या तो राजनेताओं में अविलंब सृजनात्मक राष्ट्रवाद का भाव उमड़े, या फिर आम नागरिकों में अपनी अस्मिता और राष्ट्रीयता के रक्षा हेतु कठोर वैचारिक परिवर्तन का भाव जन्में, अन्यथा समूल विनाश सुनिश्चित है ।



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