दक्षिण एशियाई शान्ति पर खतरा
प्रो. नवीन मिश्रा:जिस समय भारत आजाद हुआ, उस समय यह आशा की जा रही थी कि भारत और चीन के सम्बन्ध दोस्ताना, घनिष्ठ और दोनों देशों के लिए लाभप्रद बने रहेंगे। अक्सर भारत चीन के बीच सदियों पुराने सांस्कृतिक सम्बन्धों की याद ताजा कर्राई जाती थी। इस बात को भी रेखांकित किया जाता था कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध इन दोनों बडÞी एशियाई ताकतों के हित एक समान हैं। यह भी साफ नजर आ रहा था कि दोनों ही राज्य आर्थिक अभाव से ग्रस्त विकास की जटिल चुनौतियों से जूझने को मजबूर थे और वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में भी सहकार की सम्भावनाएं तलाशी जा सकती थी। ऐसा सोचना बेबुनियाद भी नहीं था। चीन की राष्ट्रवादी क्रान्ति के बाद से पंडित नेहरु की मैत्री च्यांङकाई शेक के साथ काफी गहरी रही थी और माओ के नेतृत्व में छापामार युद्ध से क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम में जुटे चीनियों को भी भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस ने अपना र्समर्थन दिया था। ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता था, जिससे भविष्य में किसी मुठभेडÞ की आशंका हो सकती थी।
दर्ुभाग्य से उत्साही आशावाद के इस दौर में भारतियों ने यह बात अनदेखी की कि चीन के हजारों वर्षलम्बे इतिहास में इस बात का कोई लक्षण या प्रमाण देखने को नहीं मिलता, जब उसने किसी दूसरे देश को अपने बराबर का दर्जा दिया हो। चीनी सम्राटों ने और उनके सलाहकारों ने हमेशा यही दावा किया कि उनका देश मध्यवर्ती साम्राज्य है। माओत्सेतुंग ने चीन के विस्तार से सम्बन्धित नीति के बारे में लिखा है कि तिब्बत उस हाथ की हथेली है, जिसकी पाँच उंगलियाँ लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और नेफा र्-वर्तमान अरुणाचल प्रदेश) हैं। इन सभी इलाकों को आजाद कर चीन में शामिल करना जरुरी है। अब चीनी नेतृत्व इस सपने को साकार करने की कवायद में लगा है। अक्टूबर १९४९ में साम्यवादी क्रान्ति के बाद चीन की नई सरकार ने तिब्बत पर अपना अधिकार घोषित कर दिया था। वर्तमान में भारत और चीन के बीच सम्पर्ूण्ा सीमा करीब ४००० किलोमीटर लम्बी है। १९५९ में चीन की ओर से तत्कालीन भारतीय प्रधानमन्त्री नेहरु को पत्र लिखा गया, जिस में कहा गया था कि चीन की किसी सरकार ने मैकमोहन लाइन को वैध नहीं माना है। इसके पीछे इरादा तिब्बत को हडÞपना था। १९१४ के शिमला समझौते में मैकमोहन लाइन को भारत और चीन के लिए सीमारेखा माना गया था, लेकिन चीन इसका लगातार उल्लंघन करता रहा है।
पिछले तीन दशकों में चीन ने अपने आप को सैन्य महाशक्ति के रूप में स्थापित किया है। सौ विलियन डाँलर से भी ज्यादा वह अपने रक्षा मद में खर्च कर रहा है। इसलिए उसकी विदेश नीति दूसरों को ‘डिक्टेट’ करती है। वह संसार को यह समझाने में सफल रहा कि सेनकाकू द्वीप एक विवादित क्षेत्र है, हालांकि इस पर जापान का बरसों पुराना आधिपत्य है। इसी तरह, वह स्कारबोरो सोल द्वीप के पास अपने जहाजों की तैनाती कर फिलीपिन्स के मछुआरों को वहाँ पहुँचने से रोक दिया है। दक्षिण चीन सागर और पर्ूर्वी चीन सागर में उसका आधिपत्य स्पष्ट होने लगा है। नेपाल को अपने प्रभाव में लाने का उसका जोरदार प्रयास जारी है। उसे नेपाल में भारतीय प्रभाव पच नहीं रहा है। मालद्वीप में भी उसकी मौजूदगी के कारण भारत का प्रभाव कम हुआ है और श्रीलंका में भी भारत की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। जबकि चीन का प्रभाव वहाँ बढÞता नजर आ रहा है। पाकिस्तान तो शुरु से ही उसका पक्का दोस्त है।
उपर वणिर्त स्थिति से यह स्पष्ट है कि तेजी से चीन अपने आस पास के देशों में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में लगा है। अब उसकी नजर भारत पर है। वह अपनी सैन्य शक्ति के अत्याधुनिकीकरण के बल पर अपनी विदेश नीति को अंजाम देता है और भारत पर भी यह नीति लादना चाहता है। भारत व चीन के बीच तिब्बत राजनीतिक व भौगोलिक तौर पर बफर का काम करता था। चीन ने १९५० में इसे समाप्त कर दिया। भारत तिब्बत को चीन कर्ीर् इच्छा के विपरीत मान्यता दे चुका है। चीन ने लद्दाख इलाके में अम्र्साई चीन रोडÞ का निर्माण कर विवाद का एक और मुद्दा खडÞा कर दिया है। चीन जम्मूकश्मीर को भारत का अंग मानने से इन्कार करता है। जबकि पाक के कब्जेवाले कश्मीर को पाकिस्तान का भाग मानता है। दोनों देशों के बीच लगभग ३०० किमी की सीमा पर कोई स्पष्टता नहीं है। चीन जान बूझ कर सीमा विवाद हल नहीं करना चाहता। वह सीमा विवाद को समय-समय पर भारत पर दबाव बनाने के लिए उपयोग करता है। चीन अरुणांचल पर अपना दावा जताता रहा है। अरुणांचल में एक जल विद्युत परियोजना के लिए एशिया डेÞवलपमेंट बैंक से लोन लेने को चीन ने जम कर विरोध किया। अरुणांचल को विवादित साबित करने के लिए चीन वहाँ के निवासियों को स्टेपल वीजा देता है। चीन ब्रहृमपुत्र नदी पर कई बाँध के निर्माण कार्य में लगा हुआ है। वह उसका पानी अपने देश में उपभोग करने के लिए ले जाना चाहता है। पिछले कुछ वर्षों में हिंद महासागर में भी चीन की गतिविधि बहुत बढÞ गई है। पाक अधिकृत कश्मीर में भी हजारों की संख्या में चीनी कार्यरत हैं। अपनी ऊर्जा की जरुरतों को पूरा करने के लिए चीन साउथ चाइना सी इलाके में अपना प्रभुत्व बढÞा रहा है।
अभी हाल ही में चीन ने भारतीय क्षेत्र लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी में सेना की १० से १८ किलोमिटर तक घुसपैठ कर लगभग ६ अस्थायी सैनिक छावनी का निर्माण कर लिया था। भारतीय विदेश मन्त्री सलमान खर्ुर्शीद के चीन भ्रमण के पश्चात् तथा चिनी प्रधानमन्त्री के भारत भ्रमण के पर्ूव चीन ने अपनी सेना को वापस बुला लिया है। लेकिन दोनों देशों के बीच सीमा विवाद का कोई स्थायी हल नहीं निकल सका है। दक्षिण एशियाई शान्ति के लिए दोनों ही परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों के बीच इस विवाद का निपटारा जरूरी है। पर्यवेक्षकों का मानना है कि १९६२ के युद्ध में अगर भारत की हार नहीं हर्ुइ होती तो चीन का मनोबल इतना नहीं बढÞता। कुछ लोग इस हार के लिए तत्कालीन भारतीय प्रधानमन्त्री नेहरु की नीति को दोष देते हैं, जिन्होंने इस युद्ध में भारतीय वायु सेना का परिचालन नहीं किया। १९६२ की हार के दंश से भारत आज तक नहीं उबर पाया है। उदाहरण के लिए चीन वियतनाम युद्ध को देखा जा सकता है। सन् १९७९ में चीन और वियतनाम के बीच लडर्Þाई हर्ुइ। चीन के मुकाबले वियतनाम एक बहुत ही छोटा और कम शक्तिशाली राष्ट्र था लेकिन फिर भी वियतनामी सेना ने चीनी सेनाओं के छक्के छुडÞा दिए। परिणामतः उसके बाद कभी भी चीन ने वियतनाम की तरफ आँख उठा कर देखने की हिमाकत नहीं की। जबकि १९६२ के बाद भारत के प्रति चीन का रवैया आक्रामक रहा है।
भारत के विषय में चीन की नीति स्पष्ट है। वह सबसे पहले भारत को समुद्र में कमजोर साबित करना चाहता है। दूसरे उसकी नजर अरुणाचल प्रदेश पर भी है। २००७ से ही उसने अरुणाचल को अपना हिस्सा मानना शुरु कर दिया है। तीसरी बात वह हर विवादित क्षेत्र में अपना दखलंदाजी कर रहा है। और अंत में विश्व पटल पर वह भारत को अपने मोहरे के रुप में प्रयोग करना चाहता है। उसे यह भी पसंद नहीं है कि दक्षिण एशिया के दूसरे देशों के साथ भारत के अच्छे सम्बन्ध स्थापित हों। वह नहीं चाहता कि एशिया में जापान और दक्षिण कोरिया के साथ भारत अपने लोकतान्त्रिक रिश्तों को प्रगाढÞ करे। भारत और अमेरिका के बीच की नजदिकी भी उसे रास नहीं आ रहा है। उसकी मंशा है कि पाकिस्तान तथा अन्य दक्षिण एशियाई देशों की तरह भारत भी उसका पिछलग्गू बने।
भारत-चीन सीमा को लेकर पिछले दो दशक से लगातार विवाद चला आ रहा है। सीमा का सही निर्धारण न होने के कारण दोनों देश अतिक्रमण का आरोप लगाते रहे हैं। दोनों देशों के सैनिक एक दूसरे की सीमा पर कैंप लगाते रहते हैं। विरोध जताने पर सैनिक वापस चले जाते हैं। दोनों देशों का नेतृत्व राजनीतिक इच्छा शक्ति से ही भारत-चीन सीमा विवाद स्थायी हल निकल सकता है। त्र