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डॉ. अम्बेडकर और दलित पत्रकारिता का विकास डॉ. हंसराज ‘सुमन’

14 अप्रैल अम्बेडकर जयंती पर विशेष —

डॉ. हंसराज ‘सुमन’ । आधुनिक भारत के निर्माण में दलित, पिछड़ी और आदिवासी जातियों कि भूमिका की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। आधुनिक भारत का निर्माण इन जातियों के द्वारा किए गए परोक्ष और अपरोक्ष सहयोग से ही संभव हुआ है । यद्यपि देश के विकास के लिए इनके सहयोगात्मक परिप्रेक्ष्य को कई दृष्टियों से विवेचित किया जा सकता है। इन जातियों की आबादी भारत की कुल जनसंख्या का 85 प्रतिशत है इसलिए किसी भी योजना पर खर्च करने का बजट इन जातियों को ध्यान में रखकर ही आबंटित किया जाता है। यह अलग बात है कि योजनाओं के लिए आबंटित धन का बहुत थोड़ा हिस्सा इन तबकों तक पहुंच पाता है । इसलिए इन जातियों के विकास की प्रक्रिया को भी बहुत धीमा पाया जाता है। अभी भी इन जातियों को सामाजिक रूप से मुख्यधारा में आने में काफी वक्त लगेगा।

यह देखा गया है कि भारत के आंतरिक पिछड़े क्षेत्रों में जिस गति से विकास होना चाहिए था उस गति से हो नहीं पाया। कहना ना होगा कि बहुत सी जातियां श्रमजीवी रही है। सन 1947 के बाद भारत में प्रौद्योगिकी विकास तथा नगरों में विनिर्माण की प्रक्रिया जो हुई है उसमें अधिकतर सहयोग इन कर्मकर बहुजन जातियों का रहा है।विनिर्माण उद्योग और नगरीय विकास की प्रक्रिया में इन बहुजन आबादी ने जो थोड़ा बहुत धन अर्जन किया उसी में ये अपने आगे बढ़ने का रास्ता भी बनाते चले गए । इसे इनका व्यक्तिगत प्रयास कहे या सरकारी सहयोग यह विवादास्पद है । लेकिन इतना स्पष्ट है कि सदियों से अपने श्रम पर जीवित रहने वाली ये जातियां अपनी उत्तर जीविता का रास्ता ढूंढ लेती है।

भारत में ऐतिहासिक दृष्टि से इन जातियों के समाज पर जो अध्ययन किया गया है वह विचारणीय है। इतिहास का आकलन करें तो बौद्ध युगीन समाज से लेकर ब्रिटिश हुकूमत तक अपने बचाव के लिए सबसे अधिक संघर्ष इन्हीं जातियों ने किया है। प्राचीन भारत से लेकर अकबर के समय तक का आर्थिक विकास हो या फिर सत्तरहवीं शताब्दी के सामंतों के युग में छोटे रजवाड़ों के विनिर्माण कार्य तक में इन जातियों का सहयोग लिया गया है । यद्यपि ब्रिटिश हुकूमत के समय सबसे अधिक शोषण इन्हीं बहुजन जातियों का ही हुआ है। यहांँ तक कि ब्रिटिश उपनिवेश के द्वीपों पर कृषि कार्य के लिए भी एग्रीमेंटी मजदूर के तौर पर यही बहुजन जातियाँ विस्थापित की गई थीं । इन जातियों ने उन द्वीपों को आज विकासशील देशों की सूची में ला खड़ा किया है। उदाहरण के लिए —मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम, फिजी जैसे देश हैं।

भारत में इन जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार न हो पाना एक बड़ी समस्या रही है । यहांँ तक कि ब्रिटिश हुकूमत आने के बाद नवजागरण की स्थितियों में भी बहुजन जातियों को कोई लाभ नहीं मिला। इनमें शिक्षा नगण्य थीं। सामंतीय शोषण अधिक था जिससे इनका जीवन उपेक्षित और कठिन होता चला गया । ये स्थान-स्थान पर धार्मिक आडम्बरों के भी शिकार हो गए थे। इनके उत्थान के लिए पहला प्रयास महात्मा ज्योतिबा फुले ने किया था । उन्होंने स्कूल खोलकर शिक्षा का प्रबंध किया। ब्रिटिश हुकूमत से इन जातियों के लिए सामाजिक अधिकारों की मांग की। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत में कई छोटे-छोटे सामाजिक आंदोलन शुरू हुए जिसने सरकारी तंत्र को और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे संगठनों तथा स्थानीय पत्रकारों को आकर्षित किया।

महात्मा ज्योतिबा फुले के आंदोलन की अगली कड़ी में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सन् 1920 के आसपास बाबा साहेब ने अपने सामाजिक कार्यों को एक नया आयाम दिया। वे स्वयं महार जाति से थे तथा समाज में दलितों की स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ़ थे। उन्होंने सामाजिक संघर्षों का बड़ा अध्याय तैयार किया । वे प्रतिभाशाली व्यक्ति थे अतः बहुजन जातियों की दयनीय स्थिति का आंकलन कई दृष्टिकोण से करते रहे । उन्होंने अपने आप को इस बृहत कार्य के लिए सुनियोजित किया। सबसे पहले सामाजिक फिर आर्थिक और अंत में राजनैतिक स्तर पर दलित, पिछड़ी, उपेक्षित जातियों को संगठित कर संघर्ष करने के लिए योजना बनाई । उन्होंने इतिहास का बारीकी से मुआयना किया। बहुजन जातियों के उपेक्षा का कारण तलाश किया तथा समाज में वर्चस्व स्थापित की हुई जातियों के राजनैतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य की समीक्षा की । उन्होंने यह जानने का प्रयास किया कि जाति क्या है ? दलितों और पिछड़ी जातियों की बिगड़ी स्थिति का कारण क्या है ? उन्होंने सवर्ण और शूद्र जातियों को दो वर्गों में सुनिश्चित किया । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है सवर्ण अर्थात् वर्णों में श्रेष्ठ। शूद्र अर्थात् श्रम के शोषण में आर्थिक रूप से कमजोर कर दी गई जातियाँ।
बाबा साहेब का अध्ययन इतिहास में पूरी खोजबीन पर आधारित था वे इस बात को समझ रहे थे कि किसी राज्य या क्षेत्र के विकास में कर्मकर जातियों की भूमिका क्या रही है ? समाज और प्रशासन में वर्चस्व कायम की हुई सवर्ण जातियों का एकाधिकार क्यों है ? उन्हीं के आंकलन में यह बात भी उभरकर सामने आती है कि- सवर्ण जातियाँ कर्म को ओछा, हीन और पिछड़ा किसलिए कहती है ? जबकि श्रम से अर्जित उत्पाद पर उनका भी जीवन निर्भर होता है । वे उत्पाद को कर्मकर जातियों से अपने राजनैतिक वर्चस्व में बहुत सस्ते में छीन लेती हैं। हजारों साल की गुलामी में शोषित और कर्मकर जातियाँ बेहद दयनीय स्थिति में आ गईं । इनमें शिक्षा और जागरूकता की बहुत जरूरत थी। बाबा साहेब ने समाज की विसंगतियों का गहराई से अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इन जातियों को जागरूक करने के लिए क्यों ना पत्रकारिता के माध्यम से प्रयास किया जाए।

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31 जनवरी 1920 में उन्होंने “मुकनायक” पत्र निकाला । पत्र के पहले संपादकीय में उन्होंने जो घोषणा की है वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि —”हमारे इन बहिष्कृत लोगों पर आज तक हुए और आगे होने वाले अन्यायों को वाणी देने के लिए किसी समाचार पत्र के अलावा अन्य भूमि नहीं थी।” स्पष्ट है कि बाबा साहेब ने साफ-साफ कह दिया था कि पत्रकारिता ही वह माध्यम है जिससे बहिष्कृत समाज के बीच जागरूकता का संदेश दिया जा सकता है, अर्थात् पत्रकारिता को एक मिशन के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर ने शुरू किया। यह उस समय की महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि सन् 1920 तक भारत में दलित पत्रकारिता का आकार-प्रकार दिखाई नहीं देता है। उस समय जो भी पत्रकारिता हो रही थी वह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़, साहित्यिक रूचियों से ओतप्रोत तथा नवजागरण की विभिन्न समस्याओं को लेकर हो रही थी । बाबा साहेब की यह पत्रकारिता मुख्यधारा की पत्रकारिता से बिलकुल भिन्न थी। यह पत्रकारिता समाज का बहुपक्षीय आकार लिए हुई थी । इस पत्रकारिता के केंद्र में भारत का बहिष्कृत बहुजन समाज था। बाबा साहेब का उद्देश्य भी बहिष्कृत समाज के बीच शिक्षा और जागरूकता प्रसार करना था।

बाबा साहेब ने बेहद कठिन परिस्थितियों में यह पत्र निकाला था। पत्रकारिता के लिए धन की आवश्यकता थी, दूर-दराज के क्षेत्रों में पत्र को पहुंचाने का संकट था, मुख्यधारा की पत्रकारिता से प्रतिस्पर्धा भी थी। अभिप्रायः यह है कि उस समय दलित पत्रकारिता का रास्ता संघर्षों से भरा हुआ था, कहीं से किसी भी तरह का सहयोग नहीं मिल रहा था। ऐसे समय में बाबा साहेब ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से “मुकनायक” पत्र द्वारा दलित पत्रकारिता की शुरुआत की। इस पत्र में जो विषय रखें गए थे वह निश्चय ही मुख्यधारा की पत्रकारिता को असहज और आकर्षित कर रहे थे। इस पत्र में दलित, उपेक्षित समाज की स्थितियों का अवलोकन आकलन हो रहा था। उनकी आर्थिक स्थिति पर चर्चा की जा रही थी। ब्रिटिश हुकूमत को इस समाज की दयनीय हालत से अवगत कराया जा रहा था। मुख्यधारा की पत्रकारिता भी गाहें-बगाहें इनसे प्रभावित हो रही थीं।

बाबा साहेब यहीं नहीं रुके, उन्होंने 3 अप्रैल 1927 को “बहिष्कृत भारत” नामक पत्र निकाला। यह पाक्षिक पत्र था, इसकी भाषा मराठी थीं। इस पत्र में छुआछूत और सामाजिक भेदभाव वाली प्रवृतियों को प्रमुखता से छापा जा रहा था । 20 दिसम्बर 1927 को अपने पत्रकारिता के आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए बाबा साहब ने मनुस्मृति की होली जलाई और इसे फ्रांस की राज्य क्रांति के साथ जोड़ा तथा सवर्ण समाज की जटिलताओं से भारतीय दलित समाज के मुक्ति का आह्वान किया। इस घटना का दूरगामी प्रभाव हुआ, क्योंकि बाबा साहेब ने हिन्दू समाज की उन जड़ों पर चोट किया था जिसके पैरामीटर पर समाज में जाति और वर्ण के भेद बनाए गए थे। दलित पत्रकारिता के इस चिंतन पर मुख्यधारा के मीडिया का ध्यान नहीं गया था। यह पहली घटना थी जिसने पत्रकारिता जगत को ही नहीं बल्कि समाज को भी यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि दलित, बहिष्कृत वर्ग अब स्पष्ट दिशा की ओर देखने और सोचने लगा है। इस घटना के बाद साहित्य और पत्रकारिता में दलितों की आवाज को कहीं-कहीं जगह मिलने लग गई थी। यद्यपि एक लंबा अरसा गुजर गया सदियों से उपेक्षित जातियों को जिस तरह से बाबा साहेब ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जागृत करने का प्रयास किया था, वह उतनी गति से आगे नहीं बढ़ पाईं। यद्यपि इस पत्रकारिता को वैश्विक पटल पर गम्भीरता से देखा जाने लगा था, क्योंकि भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के समानांतर दलित मुक्ति का भी आंदोलन खड़ा हो गया था। यह आंदोलन सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ़ था। सवर्ण समाज इसकी उपेक्षा करता रहा और बहिष्कृत समाज को मुख्यधारा में आने से रोकता रहा।

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का अध्ययन व्यापक था, उन्होंने भारतीय समाज की ऐतिहासिक स्थितियों का आकलन किया था। एकाधिकार बनाए सवर्ण समाज की मानसिकता को वे अच्छी तरह समझ रहे थे। वे जानते थे कि दलित आंदोलन के रास्ते में सवर्ण समाज अवरोध उत्पन्न करेगा। अभी दलित समाज में इतनी जागृति नहीं थी कि वे संगठित होकर अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष कर सकें ।
भारतीय समाज में वर्चस्व बनाई हुई जातियाँ अपने एकाधिकार को छोड़ नहीं सकती थीं। बाबा साहेब सामाज में मूलभूत परिवर्तन के लिए अपने अगले महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न हो गए। भारतीय इतिहास में यह घटना मील का पत्थर साबित हुई। वे संविधान सभा में प्रवेश कर गए और संविधान के निर्माण का दायित्व ले लिया।

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विचारणीय यह है कि बाबा साहेब अंबेडकर ने सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए तथा गैर बराबरी को खत्म करने के लिए पत्रकारिता से शुरुआत की और इस पत्रकारिता से उन्होंने सामाजिक और राजनैतिक हस्तक्षेप की स्थिति बनाई। भारतीय संविधान में जो अनुच्छेद उन्होंने मौलिक अधिकार ,राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व और न्यायिक प्रक्रिया के लिए निर्मित किए वह समाज में बदलाव का संकेत थे। संविधान में सामाजिक भेदभाव को खत्म करने का नियम बनाया गया। यह बाबा साहेब अंबेडकर की ही देन थीं कि दलित मुक्ति के लिए भारत की बहिष्कृत बहुसंख्यक आबादी को संविधान के रूप में उन्होंने एक हथियार दे दिया। यह आने वाली पीढ़ी पर निर्भर था कि बाबा साहब के इन प्रयासों से वह आगे अपनी मुक्ति का रास्ता कैसे तैयार करे।

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को मालूम था कि उनका समाज अभी पूर्णतः जागृत नहीं है। अपनी मृत्यु के समय तक वे इस बात का अवलोकन कर रहे थे कि क्या दलितों में जो कुछ लोग आगे आ रहे हैं। वे उनके कारवाँ को आगे बढ़ा पायेंगे ? 18 मार्च 1956 को आगरा के रामलीला मैदान में एक सभा को संबोधित करते हुए बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि —” मुझे मेरे समाज के पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया है। मैं समझता था कि ये लोग पढ़ लिखकर अपने समाज का नेतृत्व करेंगे मगर मैं देख रहा हूँ कि मेरे आसपास बाबुओं की भीड़ खड़ी हो रही है जो अपना ही पेट पालने में लगी है।” जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने सेवक नानक चंद रत्तू से कहा था कि—” आजादी के बाद दिल्ली शहर में अनुसूचित जाति के दस हजार कर्मचारी, अधिकारी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाए हैं। आजादी के पहले प्रशासन में इनकी संख्या शून्य थी । मैंने अकेले अपनी जिंदगी का सब कुछ दांव पर लगाकर इनके लिए इतना कुछ किया अगर ये हजारों मेरे इस प्रयास को आगे बढ़ाते रहे तो समाज बदल सकता है लेकिन जब मैं इन पर निगाह डालता हूँ तो मुझे कोई ऐसा नौजवान नजर नहीं आता जो मेरे कारवां को आगे बढ़ा सकें। यह तकलीफ मेरे मन में बैठी हुई है।” बाबा साहेब की इस तकलीफ़ को समझा जा सकता है कि कोई अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर समाज के लिए समर्पित हो तो वह बाबा साहेब अंबेडकर की तरह क्या कुछ नहीं कर सकता है ?

14 अप्रैल को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती समारोह को करोड़ों बहुजन दलित मनाने के लिए प्रतिवर्ष बहुत पैसा खर्च करते हैं । एक अनुमान के अनुसार 14 अप्रैल के आयोजन पर दो हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं। बाबा साहब इस तरह के तामझाम और फालतू खर्च के हमेशा विरोधी रहे। आगे चलकर उनके विचारों को दलित समाज ने आत्मसात करने की बजाय बाबा साहेब अंबेडकर को पूजा की वस्तु बना दिया । होना तो यह चाहिए था कि बाबा साहेब के जन्मदिन के आयोजन में खर्च किए जाने वाली धनराशि को राज्य स्तर पर अस्पताल बनवाकर, विभिन्न राज्यों में विद्यालय, विश्वविद्यालय खोलकर दलितों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य और शिक्षा का प्रयोजन किया जाता । यह बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के विचारों के अनुरूप उनके मिशन को आगे बढ़ाने का सबसे उत्तम तरीका था लेकिन बहुजन समाज ने उनके मिशन को उनके परिनिर्वाण के बाद अधूरा छोड़ दिया । आज बहुजन समाज में जो कुछ प्रगति हुई है वह बाबा साहेब अंबेडकर के द्वारा निर्मित भारतीय संविधान के तहत मिले अधिकारों से हुई है। भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभ से दलित समाज धीरे-धीरे अग्रसर हो रहा है। इस तरह से संविधान प्रदत्त अधिकारों ने बहुजन समाज को सुरक्षित कर दिया है। यह अलग बात है कि वर्चस्ववादी जातियाँ अपने प्रशासकीय एकाधिकार के कारण संविधान की उपेक्षा करती रहती हैं। ऐसे में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बहुजन समाज का शोषण और उन पर अत्याचार होना संभव है।

भारतीय समाज की परंपरागत स्थिति और उसकी जटिलताएँ बहुत रूढ़ हैं। बदलते परिवेश में भी वर्चस्व और एकाधिकार की स्थिति कुछ खास क्षेत्रों में बनी हुई है। वहाँ दलितों को रोजगार के लिए प्रवेश की गुंजाइश बहुत कम है। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ मीडिया का क्षेत्र और न्यायपालिका में तो दलितों की भागीदारी इतनी कम है कि ये अपनी इच्छा से कार्य नहीं कर सकते हैं। चिंता का विषय है कि भारत में लगभग 960 विश्वविद्यालय हैं। इन सभी विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता संबंधी पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं । कुछ विश्वविद्यालयों में तो पत्रकारिता की अलग से डिग्री दी जाती है। इनमें मीडिया संबंधी शोधकार्य भी कराया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत सरकार के अपने मीडिया संस्थान भी खोले गए हैं। यहांँ भी मीडिया के पाठ्यक्रम लगाए गए हैं जो विद्यार्थियों को मीडिया संबंधी प्रशिक्षण और उपाधि देते हैं। इनमें शिक्षा ग्रहण करने वालों में दलित छात्र भी होते है, जब ये छात्र शिक्षा पूरी करने के पश्चात नौकरी के लिए मीडिया संस्थानों में जाते हैं तो इनको अपनी जातिगत स्थिति को छुपाना पड़ता है । संस्थान में कार्य करते हुए दलितों पर होने वाले अत्याचारों संबंधी खबरों को न छापने का दबाव रहता है । भारत में मीडिया संस्थान निजी क्षेत्र में आते हैं अतः इनमें नियुक्ति संबंधी अधिकार संस्था के मालिक के पास होता है। इसलिए वे स्वतंत्र रूप से नियुक्तियों संबंधी निर्णय लेते हैं । उनका पूरा प्रयास होता है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासी समाज से मीडिया संस्थान में उच्च पदों पर कोई न आने पाए। यही कारण है कि दलितों की भागेदारी मीडिया संस्थानों में नगण्य है, जो गिने-चुने हैं भी वे स्वतंत्र पत्रकारिता नहीं कर पाते हैं। यद्यपि भारतीय संविधान इस तरह के भेदभाव और उपेक्षा की इजाजत नहीं देता है। प्रश्न यह है कि दलित समाज का प्रबुद्ध पत्रकार सच्ची खबरों को कैसे प्रसारित करे ? वह समाज में होने वाली गड़बड़ी से सरकार को कैसे अवगत कराए ?

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पत्रकारिता के क्षेत्र में दलितों की उपेक्षा चिंता का विषय है यद्यपि दलित समाज में भी धनाढ्य, अच्छे कारोबारी, सुविधाभोगी लोग हैं। होना तो यह चाहिए कि वे अपना मीडिया संस्थान खुद खोले तथा बहुजन समाज की आवाज को जन-जन तक पहुंचाएँ। सरकार को भी समय-समय पर बहुजन समाज की समस्याओं से अवगत कराते रहें। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने जिस स्थिति में पत्रिकारिता शुरू की उससे आज की स्थिति तो बेहतर है फिर अपने निजी मीडिया संस्थान खोलने में कोई अड़चन भी नहीं है । अब स्थितियाँ काफी बदल चुकी हैं। बहुजन समाज को अपने संघर्षों को गति देने के लिए मीडिया के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए। व्यावसायिक और बड़े घराने के मीडिया के समकक्ष स्वयं का मीडिया स्थापित करके बहुजन समाज की मुक्ति के द्वार खोल जा सकते हैं । लेकिन बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों को आत्मसात करने की बजाय बहुजन समाज संविधान प्रदत्त सुविधाओं का लाभ तो ले लेता है परंतु व्यवहारिक जीवन में वह सवर्ण समाज की मानसिकता को ग्रहण करता है। यही कारण है कि वह सदियों की गुलामी से मुक्ति में असफल हो रहा है । स्वतंत्रता के बाद जिस गति से बहुजन समाज आगे बढ़ रहा था यदि उसमें संगठन और सहयोग की स्थितियाँ भी बनी रहती तो उसका संघर्ष भी तेज होता। वह और अधिक संख्या में प्रशासन में भागेदारी कर रहा होता।

आज दलित पत्रकारिता के नाम पर बहुत कम पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। जो थोड़ी – बहुत प्रकाशित हो रही हैं वे व्यक्तिगत प्रचार तक ही सीमित होकर रह गई हैं । ऐसी पत्र-पत्रिकाएँ अल्पकालिक होती हैं, ये बहुउद्देश्यीय नहीं होती हैं। बाबा साहेब अंबेडकर ने जितने भी पत्र निकाले वे सभी समाज सापेक्ष थे। उन्होंने आगे की दलित पत्रकारिता के लिए एक मापदंड स्थापित कर दिया था । आज क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर निकलने वाली लघु दलित पत्र-पत्रिकाओं को उनसे प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए । बेहतर होता कि संगठन के स्तर पर दलित समाज का प्रबुद्ध वर्ग व्यावसायिक पत्रकारिता के समकक्ष दलित पत्रकारिता का प्रकाशन करता । इसका दूरगामी प्रभाव भी पड़ता । बहुसंख्यक आबादी वाले दलित समाज के लोग निश्चित रूप से ऐसी पत्र-पत्रिकाओं में रुचि लेते। यह कहा जा सकता है कि दलित पत्रकारिता का रूप यदि मुख्यधारा की पत्रकारिता की तरह निर्मित कर दिया जाए तो वह मुख्यधारा की पत्रकारिता को पीछे छोड़ सकती है ।

प्रिंट मीडिया की भांति विजुअल मीडिया का भी अवलोकन किया जा सकता है। दलितों के जितने भी निजी चैनल हैं वे सोशल मीडिया पर ही दिखाई देते हैं। सामान्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के माध्यम से ये पत्रकारिता करते हैं । इनकी पहुंच बहुत सीमित क्षेत्र तक होती है। ऐसे में मुख्यधारा की विजुअल मीडिया में यह दलित पत्रकारिता उपेक्षित हो जाती है। जबकि पत्रकारिता के आवश्यक उपकरणों का उपयोग ये पत्रकार भी बेहतर ढंग से कर सकते हैं। कुछ अतिरिक्त पैसा खर्च करके दलित पत्रकारिता को भी व्यावसायिक बनाया जा सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह की पत्रकारिता से और विजुअल मीडिया के माध्यम से दलित समाज से आने वाले पत्रकारों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा। निश्चित रूप से वे अपनी प्रतिभा के बल पर मुख्यधारा के मीडिया को प्रतिस्पर्धा दे सकते हैं और अपने संस्थान को उनसे बेहतर स्थिति में ला सकते हैं। उन्हें अपने संस्थान में स्वतंत्र रूप से कार्य करने और खबरों के यथार्थ प्रस्तुति में कोई बंधन नहीं होगा। वे स्वछंद होकर सामाज की वास्तविक स्थिति से जनता और सरकार को रूबरू करा सकेंगे। भारत में बहुजन समाज की आबादी मीडिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता है । अपना मीडिया होने पर वह अपने समाज के मीडिया संस्थानों में रुचि लेगा। इस तरह से बहुजन मीडिया द्वारा स्थापित टीवी चैनलों की मांग बढ़ेगी। व्यापारिक घरानों के मीडिया को प्रतिस्पर्धा देने के लिए संगठनात्मक रूप से प्रयास करना होगा। दलित पत्रकारिता को प्रिंट और विजुअल मीडिया दोनों क्षेत्रों में समय की मांग के अनुरूप अपने को ढालना होगा।

डॉ. हंसराज ‘सुमन ‘
हिंदी विभाग –श्री अरबिंदो कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय ,दिल्ली
फोन–9717114595

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