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डा. श्वेता दीप्ती:हर व्यक्ति का कोई-न-कोई लक्ष्य होता है। यदि लक्ष्य समाप्त हो जाता है तो व्यक्ति की जिजीविषा समाप्त हो जाती है। मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक प्रेरक किसी लक्ष्य के साथ जीता है। यदि लक्ष्य समाप्त हो जाता है तो प्रेरणात्मक व्यवहार समाप्त हो जाता है। जैसे भूखे मनुष्य की भूख भोजन मिलने पर समाप्त हो जाती है और भूखा व्यक्ति उस समय भोजन पाने के लिए अपना प्रयत्न समाप्त कर देता है। यदि लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है तो प्रेरकों को तुष्टि नहीं होती है। जब तुष्टि नहीं होती है तो कुंठा होती है और यही कुंठा मानसिक यंत्रणा को जन्म देती है।
कुंठा की यह अवस्था कभी किसी व्यक्ति के कारण हो सकती है तो कभी किसी वस्तु के कारण। अर्न्तर्द्वन्द्व अथवा त्रासदी कथा साहित्य का प्रिय विषय रहा है। नारी मन और उनकी भावनाओं को आधुनिक कथा साहित्य में पर्याप्त जगह मिली है। सामान्यतया वो कौन सी वजह है जो नारी मन को उद्वेलित करती है और उसके अन्दर त्रासदी पैदा करती है – अगर इस प्रश्न पर चिंतन किया जाय तो सबसे पहले हम उसके स्वभाव की ही ओर इंगित करेंगे।
नाट्यशास्त्रकार आचार्य भरत ने असूया के साथ साथ संकोच/लज्जा को नारी का स्वाभाविक गुण माना है। यह लज्जा ही उसे स्वयं को व्यक्त करने में संकोची बना देती है। ‘कामायनी’ के ‘लज्जा’ र्सग में कवि ने श्रद्धा के हृदय में उठते मनोभावों को काफी मनोरम तरीके से उभारा है। मनु से मिलकर श्रद्धा उत्फुल्ल है, परन्तु उसका हृदय उसे रोकता है-
“इतना न चमत्कृत हो बाले। अपने मन का उपकार करो
मैं एक पकडÞ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच विचार करो।



मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ
मतवाली सुन्दरता पग में नुपूर सी लिपट मनाती हूँ
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती
कुंचित अलकों सी घुंघराली मन की मोर बन जगती
चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली
मैं हल्की सी वो मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली। ”
नारी का यह वह स्वाभाविक गुण है जो उसके साथ हर कदम पर रहता है। इसके बावजूद उसके प्रति जो सामाजिक विभेद है वह काफी हद तक उसे संकोची बना देता है। वह अपने ‘स्व’ को सुरक्षित रखना चाहती है, अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती है। मगर उसके अंदर अक्सर आत्मविश्वास की कमी होती है। इसकी वजह उसके भीतर बैठी हर्ुइ असुरक्षा की भावना है जो उसे किसी भी नई राह पर कदम बढÞाने से रोकती है। पुरुष ही स्त्री का र्सर्वेर्सवा है, इस मान्यता को खण्डित करने में वह खुद को सक्षम नहीं पाती है।
नारी मन के परतों को साहित्य ने हमेशा खोलने की कोशिश की है। इसमें कुछ लेखिकाओं का योगदान अत्यन्त महत्त्वपर्ूण्ा है। परन्तु रचना का लैंगिक विभाजन करना उचित नहीं होगा। कई पुरुष लेखकों ने भी इस विषय पर अपनी कलम चलाई है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘स्त्रीरेर पात्र’, प्रेमचंद की ‘निर्मला’, जैनेन्द्र की ‘रोज’, राजेन्द्र यादव की ‘एक कटी हर्ुइ कहानी’, तथा ब्रजेश्वर मदान की ‘जूही’ जैसी अनगिनत रचनाएं हैं जो नारी चेतना सम्पन्न हैं। स्त्री की पीडÞा, यातना, शोषण और अवसाद को कथ्य बनाकर लिखी गई रचनाओं में केन्द्र विन्दु हमेशा से पुरुष रहा है। इन कहानियों में मूल समस्याएं पति का उग्र स्वरूप, संवेदना की कमी, पति पत्नी के बीच अहं की लडर्Þाई, यौन असंतुष्टि और प्रेमी का आगमन रही है। शोषक पति को छोडÞ देना पश्चिमी नारी की स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता रहा है और न छोडÞना पौरस्वात्य अस्मिता का। ये अपने संकोची स्वभाव एवं संस्कारों की वजह से असंतुष्ट होते हुए भी पिसती रहती हैं। इस स्थिति में जो हताशा और कुंठा पैदा होती है, वह न तो उसे जीने देती है और न ही मरने।
ममता कालिया के उपन्यास ‘एक पत्नी के नोट्स’ की नायिका कविता एक काँलेज की प्राध्यापिका है और आइ. ए. एस. संदीप की पत्नी। हर व्यक्ति का मानसिक ढाँचा एक खास तरह की दिनचर्या के लिए बना होता है और कविता का ढाँचा अकादमिक जिन्दगी के लिए बना था। पर वो बार बार संदीप से आहत होती है- “क्षण भर पहले कविता का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान स्तम्भित रहकर जुडÞ तो गया पर शायद कविता भी नहीं जान पाई कि इस तरह हजार बार टूटने और जुडÞने की प्रक्रिया में वह दरारों और जोडÞों से भरी एक हस्ती बनती जा रही है।” वह र्समर्थ है पर वह संदीप की क्रूरता को सहने के बावजूद घर छोडÞने का निर्ण्र्ाानहीं कर पाती है।
सरयू शर्मा की कहानी ‘पूर्ण्ााहूति’ की नायिका दीप्ति उच्च अधिकारी मनमोहन की पत्नी है। पत्नीत्व उसे नाम मात्र को मिला है वर्ना मनमोहन की जिन्दगी में उसका कोई दखल नहीं है-  “ऊँचे सिंहासन पर बैठाकर पंडित जी ने उसे गृहलक्ष्मी, अर्द्धर्ाागनी और जन्मजन्मान्तरों का सम्बन्ध जैसे भारी भरकम शब्दों से लादते हुए भरपूर आशर्ीवाद दिया। उन भारी भरकम शब्दों के बीच पिसती वह साँस लेने के लिए कैसे छटपटा रही है यह कोई नहीं देख पाया।” शारीरिक यंत्रणा से गुजरती- “कोहनी के ऊपर हाथ के भीतर मांसल हिस्से में, एक-एक इंच की दूरी पर एक के ऊपर एक सीढÞी के डंडों की तरह कटी चार पाँच लकीरों पर गाढा खून जमा था। आर्श्चर्य और दहशत ने उसे जैसे कील दिया।” दीप्ति के क्षत-विक्षत शरीर के साथ अपनी वासना की पर्ूर्ति करने से मनमोहन नहीं हिचकता है -“बंद कमरे की खिडÞकियों पर सिर टकराती और चोट खाती, हाँफती चिडिÞयाँ की तरह वह मुक्ति के लिए हाँफी, छटपटायी लेकिन मनमोहन की उस हिंसक जकडÞ से शरीर तो क्या प्राण भी छूट सकते थे -”
मरणांतक पीडÞा से भी सुख पाने वाले पति का साथ दीप्ति कई वर्षों तक झेलती है अंततः विक्षिप्त हो जाती है। और यह परिणति इसलिए है क्योंकि वह विरोध नहीं कर पाई।
अर्न्तर्द्वन्द्व के मूल में जहाँ संकोच होता है वहीं कभी कभी नारी का बागी और तल्ख स्वभाव भी होता है। अगर अपने स्वभाववश वो विरोध करती है तो विरोध करने वाली स्त्री, अपनी तरह जीने वाली स्त्री, अपनी चाहत को व्यक्त करने वाली स्त्री गंगोत्री नहीं बल्कि गंदे नाली का पानी कहलाती है। उसका व्रि्रोही स्वभाव समाज पचा नहीं पाता है। अगर वह समाज से, परिवार से व्रि्रोह कर के जिन्दगी में कुछ बनना चाहती है तो परम्परगत पुरुष समाज और उसके चोंचले उसे रोकते हैं। इसके बावजूद यदि वह आगे निकलना चाहती है तो उसे लांछित किया जाता है और ये दोनों परिस्थितियाँ उसे प्रताडिÞत करती हैं।
प्रभा खेतान के उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ की नायिका एक ऐसी स्त्री का उदाहरण प्रस्तुत करती है, जो सामाजिक जकडÞनों के खिलाफ निरंतर संर्घष्ा करती हर्ुइ ‘स्वयं होने’ तक की यात्रा तय करती है। प्रिया छः भाई बहनों में सबसे छोटी और अपेक्षाकृत कुरूप है। व्यवसायी मारवाडÞी परिवार की सम्पन्नता में उसके हिस्से में चिर रोगिणी माँ का निरन्तर तिरस्कार ही आया है। पिता की हत्या, बडÞे भाई द्वारा बलात्कार, प्रेम में छल यह सब मिलकर उसे गहन हीनता बोध से भरता है। एक असफल विवाह के बंधन को तोडÞती वह इस कुंठा से स्वयं को निकालती है और अपने बल पर एक छोटे व्यवसाय से शुरुआत कर अपने आपको स्थापित करती है। वो ऐसा इसलिए कर पाती है क्योंकि वह विरोध करती है। परन्तु कई बार यह विरोध गलत भी साबित होता है।
कभी-कभी सब अनुकूल होने के बावजूद नारी अपने तल्ख स्वभाव के कारण अपनी जिंदगी का रूप बिगाडÞ लेती है। इस स्थिति में वह जिस कुंठा से गुजरती है, उसकी पूरी जिम्मेदार वह खुद होती है।
पे्रमचंद रचित ‘सेवासदन’ की नायिका सुन्दर, चंचल और अभिमानिनी सुमन अपने वैवाहिक जीवन से संतुष्ट नहीं हो पाती क्योंकि उसका पति उसे वह ऐर्श्वर्य नहीं दे पाया जो वह चाहती थी और इसी की तलाश उसे गृहिणी की तुलना में वेश्या को अधिक सुखी, स्वतंत्र और सम्पन्न मानने को विवश कर देती है। यह एक गलत सोच उसे अंततोगत्वा उस राह पर ढकेल देता है जो उसका हासिल नहीं था। अन्ततः न तो वह गृहिणी बनकर खुश रह पाई और न हीं वेश्यावृत्ति अपनाकर।
नारी अर्न्तर्द्वन्द्व के विरुद्ध नमिता सिंह ने अनेक कहानियाँ लिखी है- ‘बंतो, ‘गणित’ और ‘गलत नम्बर का जूता’ में नारी का व्रि्रोही स्वाभाव उभर कर सामने आया है। पर, इनका व्रि्रोही स्वभाव इन्हें इनके स्वाभिमान और विवेक की रक्षा करना सीखाता है और इन्हें स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करता है।
तल्खी के साथ जीने वाली नारी त्रासदी का शिकार होती है किन्तु इनकी संख्या कम होती है क्योंकि अब सामाजिक दृष्टिकोण में काफी बदलाव आया है। इनकी तुलना में संकोची नारी अधिक कुंठा की शिकार होती है।
नारी बाहृय कारणों से भी कुंठित होती है। हर व्यक्ति अपने परिवेश से प्रभावित होता है। प्रतिकूल घटनाक्रम या प्रतिकूल व्यक्ति किसी की भी जिन्दगी में अनचाही स्थिति पैदा कर सकते हैं और यहीं व्यक्ति त्रासदी का शिकार हो जाता है।
नारी किस प्रकार अपने र्इद-गिर्द के व्यक्तियों से त्रस्त होती है, इसे मृदुला गर्ग की कहानी ‘कठगुलाब’ में देखा जा सकता है। नीरजा का बचपन तनाव के बीच गुजरा। माता-पिता के बीच होने वाली लडर्Þाई ने उसे हमेशा त्रास दिया। वह तय नहीं कर पाती कि वह अपनी माँ से नफरत करे या अपने पिता से। पितृस्नेह से वंचित वह असामान्य हो जाती है और इस स्नेह को प्राप्त करने के लिए दुगुनी उम्र के पुरुष की ओर आकृष्ट हो जाती है- “माँ सुनेगी तो जल भुन कर राख हो जाएगी। इतनी बडÞी उम्र के मर्द से प्रेम – तौबा ! कितने मजे की बात है, जीवन भर जिस बेटी की परवाह नहीं की उसके वयस्क होते ही उसके सेक्स आग्रहों की परवाह करने माँ तुरन्त हाजिर हो जाती है।”
नीरजा जिस त्रासदी से गुजरती है उसकी वजह पूरी तरह से उसके माता-पिता हैं। किसी दूसरे पर अपने आक्रोश को न निकाल कर वह खुद को सजा देती है। समाज की परम्पराओं के विपरीत जाकर स्वयं को यातना देती है और पतनशील हो जाती है।
मनोनुकूल परिस्थितियाँ नहीं मिलने पर असमंजस की स्थिति होती है जो मानसिक उद्वेलन को जन्म देती है। व्यक्ति परिस्थितियों के वशीभूत होता है। परन्तु यह परवशता पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक होती है। मृणाल पाण्डेय की कहानी ‘उमेश जी’ की नायिका आर्थिक अभाव और पारिवाकि दवाब की वजह से नौकरी पाने के लिए बदचलन नेता से समझौता करने के लिए तैयार हो जाती है। यह समझौता उसे बार-बार मारता है और यातना देता है। कभी-कभी सामाजिक जीवन की विडम्बनाओं और खोखलेपन का अनुभव भी नारी जीवन में उत्पन्न होने वाली त्रासदी की वजह बन जाती है। ये और बात है कि इसके कारण स्पष्ट लक्षित नहीं होते।
‘आधे अधूरे’ मोहन राकेश द्वारा रचित एक चर्चित नाटक है। इसकी नायिका सावित्री की त्रासदी यह है कि, वह बहुत कुछ एक साथ पाना चाहती है। प्रत्येक पुरुष में सम्पर्ूण्ाता ढूँढने का प्रयत्न करती है, जबकि प्रत्येक स्थल पर कोई न कोई अपर्ूण्ाता, तनाव और स्वार्थ अवश्य विद्यमान है और यही उसकी कुंठा का मूल है।
यही नहीं, कभी-कभी तो हमारे संस्कार ही यातना के कारण बन जाया करते हैं। मन्नु भंडारी कृत ‘एक कमजोर लडÞकी की कहानी’ इसका एक उदाहरण है। इसकी नायिका रूपा अपने ही परिवार से पीडिÞत ताउम्र त्रासदी के साथ जीती है किन्तु उससे वह निकल नहीं पाती क्योंकि उसके संस्कार उसे हर कदम पर रोकते हैं।
इस तरह देखा जाय तो जीवन की हर छोटी बडÞी घटनाएं जो अनुकूल नहीं हैं वह त्रासदी को जन्म देने की क्षमता रखती है। ये सहज ही नारी जीवन को प्रभावित कर जाया करती है और अधिकांशतः वह इसे स्वीकार करती हर्ुइ जीने को बाध्य होती है।
मूल्य विघटन और स्थापित नैतिकता भी त्रासदी के मूल में कहीं-न-कहीं अवश्य विद्यमान रहते हैं। मनुष्य का संवेदनशील मन जीवन की प्रत्येक घटना को एवं परम्परागत मूल्यों को बुद्धि की आँख से परखने में अधिक विश्वास करने लगा है। नारी में भी बौद्धिकता का विकास हुआ है। फलतः नए विकसित होते सामाजिक संदर्भों में आदर्श और मूल्यों की असारता स्पष्ट होने लगी है। राजेन्द्र यादव, मन्नु भण्डारी, शिवानी, मृदुला सिन्हा, मैत्रयी पुष्पा, इलाचंद्र जोशी, उषा प्रियम्बदा जैसे कई चिर परिचित नाम हैं, जिन्होंने बडÞी ही तीक्ष्णता और गहर्राई के साथ नारी मनोभावों को समझते हुए उसका वर्ण्र्ााकिया है। इन सब की चर्चा एक साथ सम्भव नहीं है।
हम जिस समाज में जीते हैं, साहित्य में, वही समाज जीता है। अपने आस-पास अगर हम नजर डालें तो यह पायेंगे कि मानव-मन हमेशा ही द्वन्द्व से घिरा रहता है, ये द्वन्द्व कई स्तरों पर होते हंै जो समाज, परिवेश, देश, काल और व्यक्ति विशेष से बने होते हैं। प्रकृतिवश नारी इससे अधिक प्रभावित होती है और वह अपने आप को हमेशा इसके बीच का सफर करने के लिए स्वयं को बाध्य करती है परिणामस्वरूप त्रासदी उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है जिसके साथ जीना उसकी नियति बन जाती है।



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