धूल चेहेर पे थी, ताउम्र आईना साफ करते रहे
कञ्चना झा: दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, भारती मिश्र ने शंकराचार्यको शाास्त्रार्थ में हराया। लक्ष्मी बाई ने विजय का पताका फहराया। और इन्दिरा गान्धी को कौन नहीं जानता – ये तीनों उदाहरण हैं- महिला की बुद्धि और उसकी राजनीति के।
इतिहास साक्षी है इस बात का कि महिला न कभी असहाय, अबला और कमजोर थी, न है और न होगी। लेकिन विडम्बना, आज हर तरफ एक ही आवाज उठ रही है कि पुरुष महिलाको आगे नही बढÞने दे रहा है। यह भी कहा जाता है कि महिला के आगे बढÞने में सबसे बडा बाधक अगर कोई है तो वह है उसका पुरुष मित्र। फिर चाहे वह महिला का पिता हो, पति हो या उस का पुत्र हो।
मगर चारों तरफ जो आवाज उठ रही है, उसे अधिकांश कामकाजी महिला सही नहीं मानती। उनकी नजर में यह अफवाह है। जिसमे कोई सत्यता नहीं। पिछले वर्षबिहार लोक सेवा आयोग के प्रारंभिक और लिखित परीक्षा में उत्तर्ीण्ा कल्पना झा कहती है- “महिलाको स्वयं दृढ संकल्पित होकर आगे आना चाहिए, साथ देने के लिए हजारों हाथ आयेंगे।” तकरीबन पाँच वर्षसे दरभंगा के रोज पब्लिक स्कूल की अध्यापिका कहती हैं- अगर उन्हे उनके पतिका साथ नहीं मिलता तो वह आगे नहीं बढ पाती। अगर कल्पना की शब्दों में कहा जाए तो यह सिर्फएक अफवाह है और जब इन अफवाहों की गहर्राई में जाएंगे तो बहुत सारे कटु सत्य सामने आएंगे- वास्तव में कौन महिला को कमजोर बना रहा है – कौन है जो एक ही बात को बारबार दुहरा रहा है –
ऐसे में याद आ जाता है- जर्मनी का तानाशाह हिटलर। जो जानता था कि बात गलत भी हो तो कोई र्फक नहीं पडता। अगर उसे बारम्बार दोहराया जाय तो कालान्तर में जाकर लोगों को वह बात सत्य लगने लगती है। हकीकत में आज वही हो रहा है जिसका एक जबरदस्त उदाहरण हमारे सामने है। महिला कमजोर है, इस बात का इतना ज्यादा प्रचार प्रसार किया जा रहा है कि सही में लगता है कि महिला कमजोर है और यह बात एक दर्शन की तरह समाज में स्थापित हो गया है। हर राष्ट्र में महिला वोट बैंक है, अगर देखा जाय तो उसकी संख्या लगभग आधी है। जहाँ तक नेपाल की बात करें तो आधा से भी ज्यादा अर्थात् लगभग ५१ प्रतिशत महिला हैं। और इसीके नाम पर राजनीति हो रही है। और इस खेल में राजनीतक दल के नेता और कथित महिला अधिकारवादी शामिल हैं। इन दोनांे के बीच मंे गठबन्धन है। मंै मारने का नाटक करता हूँ तुम रोने का करो, बस यही हो रहा है। महिला अधिकारवादी हल्ला करतें है कि हम कमजोर हैं हमें आरक्षण चाहिए, और बस में चार सिट आरक्षित कर राजनीतिक दल वोट अपने जेब में ले जातें हैं। महिला स्वतन्त्रता की बात की जाय तो तीन चार बातें आगे आती हैं। राजनीति और नीति निर्माण कार्य में हिस्सा, श्रोत साधन पर अधिकार, स्वास्थ्य और प्रजनन सम्बन्धित अधिकार। वास्तविकता देखी जाय तो ये सभी अधिकार प्रायः हर मुल्क के कानून ने महिलाओं को दिया है। ये अलग बात है कि महिला उसका उपयोग कर रही है या नहीं। नेपाल की ही बात करें तो इस मुल्क के अर्थतन्त्र का ४२ प्रतिशत हिस्सा कृषि पर आधारित हैं। जिसमें ५७ प्रतिशत योगदान महिला का ही है। औद्योगिक क्षेत्र में भी देखें तो महिलाओं की अच्छी पैठ बनती जा रही है। सेवामूलक क्षेत्रमे भी महिला आगे आ रही हंै। पुलिस, सेना मंे भी महिलाका योगदान महत्वपर्ूण्ा रहा है। त्रिभुवन विश्व विद्यालय हिन्दी विभागकी उप-प्राध्यापिका डाक्टर श्वेता दीप्ति की नजर में इतिहास चाहे जो रहा हो मगर अब पुरुषको बाधक कहना गलत होगा। श्वेता कहती हैं- “ंसामाजिक संरचना के कारण बहुत जगह पुरुष बाधक नजर आता जरुर है लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है।”
वास्तव में अगर देखा जाय तो आज एक बहुत बडÞा प्रश्न मुँह बाये खडा है कि क्या सचमुच पुरुष महिलाको रोक रहा है आगे बढने से – या वह बाधक बन रहा है आगे बढने में – विषय अध्ययन और गंभीर अनुसन्धान का है। कुछ महिलाओं के हाँ या ना कहने पर निष्कर्षमें पहुँच जाना खतरनाक हो सकता है। जरूरत है एक बृहत आवाज की जो खुलकर आगे आये और अपनी राजनीतिक आस्था और व्यक्तिगत स्वार्थको परे रख कर सही बात रखे।
राजधानी काठमांडू स्थित हेडलाइन्स एण्ड म्युजिक एफएम मंे कार्यरत करुणा का मानना है कि कमजोरियँा हम मंे है। वह कहती हैं- “अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए हम सारा दोष पुरुष पर मढ देते है।” वह हरगिज मानने को तैयार नहीं है कि पुरुष महिलाको आगे बढÞने से रोक रहा है। वास्तव में अगर देखा जाय तो महिलाको आगे बढने से अगर कोई रोक रहा है तो वह स्वयं महिला ही है। फिर चाहे वह आपका घर हो, समाज हो या फिर राष्ट्र हो।
सवाल है, स्व्ायं मंे कमजोरी है, चेतना नहीं है, शिक्षा के प्रति जागरुकता नहीं है, दक्षता नहीं है, किसी विषय में तो कैसे आगे बढेÞगी महिला – कहीं न कहीं गलती महिला की भी है। शुरुआत से या फिर कहें कि हमारे समाज का संगठन ही कुछ इस प्रकार का है कि उस में नारी को अपने पर्ूण्ा विकास के लिए बहुत कम समय मिलता है। सुगृहिणी बनाकर उसे गृह देवी की उपाधि से तो विभूषित करतें है पर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उसके मुक्त प्रवेश को रोक कर उसे पर्ूण्ा मानवी बनने से वंचित रखते हैं। राजनीति, धर्मनीति और समाज नीति में खुला भाग लेने का प्रश्न तो दूर शिक्षा तक के क्षेत्र में उसे अनेक प्रकार की असुविधाओं से इस तरह जकडÞ दिया जाता है कि वह कठिनाई से हिलडÞोल और साँस ले सके। और जब बात उठती है समाज की तो वह और कोई नहीं, महिला ही है जो सबसे पहले अपनी बेटी और बहू को यही सिखाती है या ऐसी भावनाएं पनपायी जाती हैं कि तुम बेटी हो, बहुत कुछ सहना होता है समाज में, पुरुषोंका वर्चस्व है। हमें पुरुषों से डरना चाहिए, धीरे बोलो, घरके कामकाज सीखो। कभी यह नहीं बताती या सिखाती है कि तुम क्या हो – तुम्हारी क्या इच्छाएं हैं, क्या करना चाहती हो – या फिर कि तुम स्वयं में शक्तिश्ााली हो। अपना रास्ता स्वयं बना सकती हो। क्यों नहीं बताई जाती है इन बातों को – फिर ये बेकार की बातें क्यो – या दोषारोपण क्यों – सूरज की किरणों को हथेली से रोका नहीं जा सकता । अगर दक्षता हो और इच्छा शक्ति दृढÞ हो तो सफलता हाथ लगेगी ही। लेकिन इन दोनों के अभाव में हम शुरु कर देते हैं दोषारोपण या कहें कि अपनी गलती छुपानेका प्रयास। नेपाली काँग्रेस ललितपुर ट्रेड युनियन के कोषाध्यक्ष चन्दन झा के शब्दों मंे देखा जाय तो भी बात यही है। अगर चन्दन के पति ने सहयोग नहीं किया होता तो आज वह भी चार दीवारी के अन्दर ही रह जाती। घर और बाहर दोनों जिम्मेवारी के बीच कभी-कभी चन्दन के लिए कठिनाई तो होती है लेकिन पति के सहयोग के कारण सब कुछ ठीक हो जाता है। वह कहती है “मैं विल्कुल मानने के लिए तैयार नही हूँ कि पुरुष बाधक है महिलाको आगे बढने देने में।” वह तो एक कदम आगे होकर कहती है “लोग कहतें है पुरुष की सफलता के पीछे महिला का हाथ होता है लेकिन मेरी सफलता के पीछे मेरे पिताजी, ससुर और मेरे पति का ही हाथ है।”
सही मायने में देखा जाय तो जन्म से ही कोई औरत या मर्द नही होता, उसमंे संस्कार और गुणों को भरा जाता है। यहाँ महिला और पुरुष के प्राकृतिक गुणों की चर्चा की जा रही है समाज में ही कुछ इस तरह की मान्यताएं चली आ रही है, जिसे हम सभी निभा रहें हैं।
अगर आज की बात करें तब भी या इतिहास की बात करें तब भी एक ही बात सामने आयेगी वह हैं जिन में काबिलियत है क्षमता है, जो शिक्षित हैं, जागृत हैं स्वयं के प्रति उन्हे न कोई रोक पाया है, न कोइ रोक पायेगा।