मनोवृतियों के भँवर में अफगान राष्ट्रवाद : प्रेमचंद्र सिंह
प्रेमचंद्र सिंह, लखनऊ । अफगानिस्तान में अभी जो कुछ भी हो रहा है उसकी जड़ में वहाँ के लोगों की आदिम और परजीवी वृति अधिक और धर्मान्ध राष्ट्रीयता कम है। बदला लेने की दुर्भावनापूर्ण मनोवृति, प्राचीन और मध्यकालीन विचारधारा के प्रति हथधर्मता तथा कुशासन और भ्रष्टाचार की स्वभावगत प्रवृति ही अफगानिस्तान की वर्तमान समस्या के मूल में है जिसके कारण वहाँ के लोगों में भय, चिन्ता और अफरातफरी व्याप्त है। अफगानिस्तान की वर्तमान समस्या ने अमेरिका की विश्वसनीयता और उसकी वैश्विक नायकत्व की पोल दुनियाँ के सामने खोल कर रख दी है।अब तो ताइवान जैसे देश का भी अमेरिका पर से भरोसा उठने लगा है, इसी तरह दुनियाँ के अन्य देशों में भी अमेरिकी विश्वसनीयता के प्रति संसयपूर्ण नजरिया दिखना शुरू हो गया है। अमेरिका का विश्व मे लोकतंत्र और मानवाधिकार के संबर्धन और प्रसार की घोषित नीति का झूठ भी दुनियाँ के सामने है। अफगान समस्या ने यह साफ कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय संबन्धों में अमेरिका का किसी देश के साथ जुड़ना और बिछुड़ना केवल अमेरिका के सामरिक और आर्थिक हित पर आधारित होता है, बाँकी सब ‘ब्रांडअमेरिका’ का प्रसार-प्रचार है। आम अफगानी लोगों में अभी जो आत्मविश्वास और मनोबल का अभाव दिख रहा है, उसमें उनकी विभिन्न संजातीय संस्कृतियों और दूसरों पर निर्भर रहने की उनकी प्रवृति की भूमिका है।
संजातीय श्रेष्ठता का टकराव ::
अफगानिस्तान में संजातीय श्रेष्ठता और क्षेत्रीय प्रभुत्व की दावेदारी के लिए विवाद और हिंसक संघर्ष वहाँ के संजातीय समूहों के बीच आमबात है। अफगानिस्तान का भयावह परिदृश्य पश्तूनों और गैरपश्तूनों के बीच अफगानिस्तान की सत्ता के लिए गुटवाजी और हिंसक संघर्ष का परिणाम है। इन संजातीय समूहों खासकर पश्तून समूहों में पितृसत्तात्मक प्रभुत्व का बोलबाला है और इसलिए महिलाओं और बच्चियों के साथ उनकी क्रूरता और दमनकारी व्यवहार दिखता है। इस देश की आबादी में करीब 42% पश्तून हैं, 34% के आसपास ताजिक, 9% के करीब हजारा, 6% के करीब उज्बेक और बांकी छोटी-छोटी अनेक जनजातियाँ हैं। यद्यपि पश्तून बहुसंख्यक नही है क्योंकि इनकी जनसंख्या 50% से कम है, फिर भी यह सबसे बड़ा समूह है और इनका अधिक जनसंख्या घनत्व अफगानिस्तान के दक्षिणी क्षेत्र और पाकिस्तान के उत्तरी एवं पश्चिमी क्षेत्र में है। अफगानिस्तान के उत्तरपूर्व के हिन्दुकुश-क्षेत्र में ताजिक सहित अन्य जनजातियों की अधिकता है जबकि पश्चमी क्षेत्र में हजारा अधिक हैं। हजारा समुदाय शिया और शेष समुदाय सुन्नी सम्प्रदाय के हैं। पश्तूनों को टक्कर हमेशा ताजिकों की अगुआई में गैर-पश्तूनों से ही मिलती रही है। अफगानिस्तान तालिवान और पाकिस्तानी तालिवान (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) आतंकी समूह में पश्तूनों का प्रभुत्व है और वे शरीअत आधारित इस्लामी शासन के कट्टर पक्षधर हैं, साथ ही वे लोकतंत्र और मानवाधिकार के कट्टर विरोधी हैं। अफगानिस्तान में तालिबानी शासन का विरोध ताजिको की अगुआई में ग़ैर-पश्तून समूहों के नेतृत्व में नॉर्दर्न अलायन्स या पंजशीर प्रतिरोध फ्रण्ट द्वारा उत्तर की हिन्दुकुशन की ओर से किया जा रहा है। नॉर्दर्न अलायन्स या पंजशीर प्रतिरोध फ्रंट लोकतंत्र और मानवाधिकार के हिमायती हैं। वर्ष-1996 से पूर्व कम्युनिस्ट और नॉर्दर्न अलायन्स की सरकारों तथा वर्ष-2001 के बाद नॉर्दर्न अलायन्स के प्रभाव बाली सरकार के कालखंडों में अफगानी लोगों ने स्वतंत्रता, बराबरी, सहअस्तित्व, न्याय सरीखे लोकतांत्रिक मूल्यों आधारित शासन को देख चुके है जिसमे लोगों ने आधुनिक अफगानिस्तान के सपनों को जिया हैं। इसके विपरीत वर्ष-1996 से 2001 तक तालिवानी शासन की कट्टरता और अत्याचार की स्मृति अफगानियों के जेहन में जिन्दा है। अमेरिका ही वह देश है जिसने तालिवान और नॉर्दर्न अलायन्स ( निवर्तमान पंजशीर प्रतिरोध फ्रण्ट) सरीखे दोनो परस्पर विरोधी संगठनों को समय-समय पर मदद करता रहा है। फर्क केवल इतना है कि तालिवान को खड़ा करने और उसे आगे बढ़ाने में पाकिस्तान ने अमेरिका को साथ दिया जबकि नॉर्दर्न अलायन्स के सशक्तिकरण में अमेरिका का साथ भारत और सेंट्रल एशिया के देशों खासकर ताजीकिस्तान,उज्बेगिस्तान और तुर्कमेनिस्तान ने दिया। कुछ लोग भारत और पाकिस्तान के प्रभाव के संघर्ष के रूप में भी अफगानिस्तान की समस्या को देखने का प्रयास करते हैं, जबकि अधिकांश लोग अमेरिका वनाम रूस या लोकतंत्र बनाम कट्टरवादी इस्लामीतंत्र का संघर्ष मानते है।
अफगान समस्या का तात्कालिक वजह::
अमेरिका ने कतर की राजधानी दोहा में अमेरिकी तथा नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाईजेशन) की सेना की निर्वाध वापसी और अफगानिस्तान में शांति के लिए तालिवान नेतृत्व से सीधे बातचीत शुरू कर दी, जिसमे न तो अफगान सरकार और न ही अफगान राष्ट्रीय सेना को पक्षधर बनाया। दोहा शांति वार्ता में अमेरिका द्वारा अफगान सरकार और अफगान राष्ट्रीय सेना का खुलेआम अनदेखी और अपमान की गई। इसके कारण अफगानिस्तान के अन्दर तथा बाहर अफगान सरकार और अफगान सेना की वैधता ही सवालों के घेरे में आ गया। अफगानी लोगों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष अफगान सरकार और अफगान सेना का नैतिक वजूद ही नही बचा और वे हतोत्साहित हो गए। अमेरिका के इस कृत्य ने तालिवानी जिहादियों का हौसला बुलन्द किया और इसके बाद रही सही कसर तालिवानियों का अफगान सरकार और अफगान सेना के विरुद्ध सोशल मीडिया कैंपेन ने पूरा कर दिया।
अराजकता और उपद्रव का कारक::
पिछले बीस वर्षों से अमन चैन के बाद भी अफगानी लोगों की भयाकुलता,अपने देश से पलायन, निराशा और बेबसी कुछ और ही बयां करती है। तालिबानियों की करीब 70,000 लड़ाकू जिहादियों के समक्ष करीब 3,50,000 अफगान राष्ट्रीय सेना का समर्पण उतना ही करिश्माई घटना है जितना वर्ष-1971 में करीब 93,000 पाकिस्तानी सेना का भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण। बीच मझधार में अफगान की अवाम को छोड़कर वहां के राष्ट्रपति का देश से गुपचुप तरीके से भागना और उसके बाद सरकार का धराशायी होना असाधारण राजनीतिक और संबैधानिक संकट का गवाह है। माना जा रहा हैं कि यह सब कुछ पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा प्रायोजित एवं पूर्वनियोजित है जिसमे इस कार्य के लिए चीन से प्राप्त धन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि अफगान सरकार और वहां की सेना कुशासन और भ्रष्टाचार में लिप्त रहा है जिसका फायदा आईएसआई ने उठाया और परिणाम सामने है। आम चर्चा है कि अफगानी राष्ट्रपति हेलोकॉप्टर में धन लेकर चुपके से देश से बाहर भाग गए। सेना ने धन लेकर तालिबानियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। चर्चा तो यह भी है कि अफगान की सरकार अपनी सेना को न तो पर्याप्त तनखाह देती थी और न ही उन्हें समय से बेतन मिलता था। सेना की वास्तविक संख्या 3,50,000 से काफी कम थी, फिर भी सरकारी दस्ताबेजों में बढ़ी हुई संख्या के आधार पर सरकार और सैन्य अधिकारियों के मिलीभगत से उनके वेतन-भत्तों आदि की धनराशि अवैध रूप से निकाल लिया जाता था और उस अवैध धनराशि की आपस मे बंदरबांट होता था। सैन्य अनुशासन का आलम यह था कि कई-कई महीनों के बाद जब सैनिकों को वेतन मिलता था, तो वे अपने असलहों के साथ अपने घर चले जाते थे और बिना अनुमति कई महीनों बाद वापस बैरेक में लौटते थे। अंतरराष्ट्रीय समुदाय तथा संगठनों से पुनर्निर्माण और पुनर्वासन के नाम पर अफगानिस्तान को मिलने बाली धन के उपयोग में भ्रष्टाचार का आरोप भी वहां की शासन-प्रशासन पर लग रहा है।
अफगानिस्तान की संस्कृति अभी भी कबीलाई बर्चस्व से बाहर नहीं निकल पाई है। वहां कबीलों की बहुलता है और हर कबीले का आदर्श,परम्परा, सामाजिक संरचना, सुरक्षा तथा न्यायिक व्यवस्था आदि पृथक है। सभी कबीलों के अपनी अलग-अलग सरदार होते हैं जिनपर उस कबीले की सुरक्षा और शासन की जिम्मेवारी होती है। उन सभी कबीलों के बीच आपस मे और एक कबीले के अन्दर भी वर्चस्व के लिए हिंसक संघर्ष सामान्य घटना से अधिक कुछ नही है, इसलिए अफगान राष्ट्रवाद हमेशा संकट के साये में रहा है, जब कभी वहाँ राष्ट्रवाद के लिए प्रयास हुआ भी तो वह टिकाऊ नही हो पाया और समय के साथ ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। इस कबीलाई आदिम संस्कृति की कठोर पावंदियों के कारण ही पुरुष साक्षरता दर 55% और महिला साक्षरता दर 30% तक ही सीमित रह गया है। वहां की करीब आधी आवादी गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करने पर मजबूर है। आधुनिक औद्योगिक विकास, कृषि विकास और तकनीकी विकास आदि आधुनिक विधाओं के क्षेत्र में बहुत ही पिछड़ा देश है। लूटपाट, फिरौती, जिहाद, नशीली पदार्थों का उत्पादन और व्यापार तथा संविदा और भाड़े पर अपराधी पेशा आदि लोगों का आज भी कमाई का जरिया है। यही कारण है कि पैसों के लिए अफगानी परिवार का एक भाई देश के फौज में भर्ती होता है तो दूसरा भाई तालिबानियों के फौज में भर्ती होता है,वहां छोटे-छोटे बच्चों को भी जबरदस्ती घर से जिहाद के नाम पर तालिबानी उठाकर ले जाते हैं। इसी तरह की परम्परा पाकिस्तान में भी है खासकर पाकिस्तान के पंजाब और पश्तूनखां के इलाकों में जहां परिवार का एक भाई आतंकी संगठनों के अनियमित सेना में और दूसरा भाई पाकिस्तान के नियमित सेना में भर्ती होता है। इसलिए पाकिस्तान की तरह अफगानिस्तान में भी आतंकी जिहादी और देश के सैनिक भाई-भाई हैं। ऐसे में अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सेना का तालिबानी जिहादियों के समक्ष समर्पण स्वाभाविक है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नही है।
तालिवान के समक्ष चुनौतियाँ
आतंकी संगठन चलाना और देश का शासन चलाना तथा सत्ता पर कब्जा करना और सुशासन स्थापित करना दोनो अलग-अलग हुनर है। तालिवानियों के लिए अफगान समस्या का समाधान तो दूर, उनके लिए अफगान समस्या का कुशल प्रबन्धन भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। खासकर तब जब वित्तीय संकट सामने मुँह खोले खड़ा हो। वैश्विक वित्तीय संस्थायें और अधिकाधिक विश्वविरादरी द्वारा वित्तीय सहायता देने से मुकरना और सरकारी विदेशी कोष से आहरण पर प्रतिबंध ने तालिवान की राजनीतिक महत्वकांक्षा पर पानी फेर रहा है।
अमेरिकी सेना द्वारा छोड़ी गई एवं अफगानी सेना द्वारा समर्पित अत्याधुनिक अश्त्र-शस्त्र,गोलाबारूद,लड़ाकू विमानों, हैलिकॉप्टरों, लड़ाकू ड्रोन, बख्तरबंद गाड़ियां,टैंकों आदि की विशाल जखीरों का तालिवान के हाथ लगना अमेरिका के रहस्यपूर्ण इरादा की ओर संकेत करता है, तो दूसरी ओर तालिवान के लिए यह आसमानी तोहफा से कम नही है। अगर तालिवानी लड़ाके इसे उपयोग करने की हुनर नही रखते हैं, तो कम से कम तालिवान इन्हें बेचकर मोटी रकम तो इकट्ठा कर ही सकता है। अभीतक तालिवान के आय का स्रोत नशीली पदार्थों की तश्करी, फिरौती और अपराध पेशा रहा है, जो अफगान सरकार की बजट का मुश्किल से 20% भी नही है, 80% से अधिक की धनराशि का इंतजाम बिना अंतरराष्ट्रीय सहयोग के असम्भव दिख रहा है। इधर सरकार गिरते ही अफगानी बैंकिंग सिस्टम चरमरा गई है और एक डॉलर की कीमत 8600 अफगानी तक पहुँच गया है।
अफगानी अवाम का तालिवान पर बिल्कुल भी भरोसा नही है। बहुसंख्यक अफगानी अवाम लोकतांत्रिक मिजाज के हैं और वे आधुनिक जीवन मूल्यों के हिमायती हैं। इसके उलट तालिवान अफगानिस्तान में कट्टर शरिया आधारित शासकीय नीति और बिना चुनाव के सरकार के गठन की विचारधारा पर अडिग है। शासक और आवाम के मूल्यों, आदर्शों और अपेक्षाओं में कही सामंजस्य नही दिखता है। तालिवानी तौर-तरीकों के समक्ष अफगानी आवाम के आत्मविश्वास का क्षरण और बेबसी साफ-साफ दिखता है। अपना सबकुछ छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए अफगानी लोगों में अपने वतन से बाहर भागने की होड़ लगी है, वे सब दूसरे देशों तथा अंतर्देशीय संस्थाओं से अपनी जान की रक्षा का गुहार लगा रहे हैं।
सारांश ::
आखिर में बताते चलें कि तालिवान अपनी छठी शताव्दी की मानसिकता, मध्यकालीन कार्ययोजना और हिसंक युद्ध के माध्यम से हड़पी हुई संसाधनों से राज्यसत्ता के संचालन करने की कला के साथ आधुनिक राष्ट्र का निर्माण,राष्ट्रीय एकीकरण, देश की संप्रभुता और अखण्डता तथा अफगानी लोगों की अपेक्षाओं का संपोषण कैसे कर पायेगा,यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर भविष्य की कोख मे है। अस्थिर अफगानिस्तान और उसका आतंकी नेतृत्व अपने पड़ोसी देशों के लिए भी कई मायनों में संकट का कारण बन सकता है, इसी परिपेक्ष्य में अफगानिस्तान में तालिवान की रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी सत्ता के पक्ष और विपक्ष में अंतरराष्ट्रीय गुटबंदी साफ-साफ दिखने लगा है – – पाकिस्तान,चीन, ईरान और रूस तालिवानी सत्ता के पक्ष में गोलबन्द होते दिख रहे हैं और दूसरी ओर तालिवानी सत्ता के विरुद्ध पश्चमी देशों का खेमाबंदी दिखने लगा है। अफगानिस्तान की घटनाक्रम पर सबकी नजर है,आशा है वहाँ समय के साथ सबकुछ ठीक हो जाएगा, तालिवानियों को सुबुद्धि आएगी और अफगानिस्तान के लोग राहत की सांस ले पायेंगे।