अजी, आप का चुनाव चिन्ह क्या है –
मुकुन्द आचार्य :लोग कहते हैं, चुनाव का मौसम आया है। यह मौसम हर साल नहीं आता, और ऐरे-गैरे मौसमों की तरह। आता भी है तो अपने खास अन्दाज के साथ अपने नाजो-अदा के साथ। ऐसे सुहाने मौसम में सब कुछ प्यारा-प्यारा, न्यारा-न्यारा लगने लगता है कि कितनों का दिल तो ऐसा उछलता है कि वह देह को छोडÞ कर बाहर कूद जाता है। इस तरह देखा जाए तो चुनाव के चर्चे और चर्खे अनेक हैं। खैर ….!
लगता है, सचमुच चुनाव का मौसम आ ही गया है। इसका एक जोडÞदार प्रमाण आप को दंू- पार्टर्ीीोल कर जो लोग बनिया गिरी कर रहे हैं, उनकी बनिया-गिरी और दादागिरी पर सरकारी मुहर लगाते हुए देश को चुनाव आयोग ने उनके दलों को, उनके चरित्र को ध्यान में रखते हुए चुनावचिन्ह प्रदान किया है। माकूल चिन्हों को पा कर सब वेहद खुश हैं। निर्वाचन आयोग का यह बुद्धिमानीपर्ूण्ा कार्य प्रशंसनीय है। आप को मेरी बातों पर यकीन नहीं आ रहा है – अरे, हाथ कंगन को आरसी क्या, पढेÞ लिखे को फारसी क्या। अराष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टर्ीीो चुनावचिन्ह के तौर पर ‘कैंची’ मिली है। मैंने उस पार्टर्ीीे एक-दो नेता से पूछा, भैया आप इस कैंची से क्या करोगे – कोई राष्ट्रीय टेलरिङ्ग हाउस खोलोगे क्या –
एक नेता ने अपने छोटे से सीने को कुछ फूलाते हुए, जिसे हिन्दी में ‘सीना तान कर’ कहा जाता है, कहा- अरे ओ बुढÞऊ तुझे इतना भी सहूर नहीं, कैंची हमें चुनावचिन्ह के रूप में प्राप्त है। जीतने पर इसी कैंची से उद्घाटनों में हम फीते काटेंगे और क्या –
उनकी यह बात मुझे हजम नहीं हर्ुइ। क्योंकि आजकल मेरा हाजमा नेपाल की राजनीति की तरह बुरे दौर से गुजर रहा है। नेता जी के एक खास चमचे से पूछा- यार तू ही बता, बात क्या है – यह कैंची कैसे आप लोगों को मिली – जरा इस बात पर रोशनी डÞालिए।
उस वरिष्ठ चमचा ने मुझे फुसफुसाते हुए कहा- यार छोडÞो भी। एक तो हमें जीतना ही मुश्किल है गर जीत भी गए तो मन्त्री बनेंगे तब न उद्घाटन करने के लिए कही से बुलावा आवेगा। इससे बेहतर है, इस कैंची से हम दूसरों की जेब काटें। जेब नहीं काट पाए तो किसी के पेट में भोंक दें। मामला खलास ! नेपाल की जनता बहुत दुखी है। उसे इस दुख से निजात दिलाने के लिए सबसे बढिÞया तरीका यही है। हम लोग जिस किसी भी तरह जनता की सेवा में खरा उतरना चाहते हैं। अब देखना है, जनता के नसीब में सुख बदा होगा तो जनता जरूर हमें चुनेगी, बर्ना ….!
एक अतिशय प्रज्ज्वलनशील नेता मिल गए। वे कहते हैं- हमारे तो एक हाथ में वजनदार हथौडÞा रहेगा और दूसरे हाथ में हंसिया होगी। हंसिए से लोगों के खेत काटेंगे और किसी ने भी चूं चपड की तो वजनदार हथौडेÞ से उसकी मरम्मत करेंगे। हमारे दोनों अस्त्र-शस्त्र गरीबों के फायदे के लिए हैं। हम लोग अपने लिए चुनाव नहीं लडÞ रहे हैं, जनता को ठीक राह पर लाने के लिए सब कुछ करना पडÞता है न ! गरीबों के लिए जी रहे हैं, गरीबों के लिए मर रहे हैं।
नेपाल में एक ऐसी भी पार्टर्ीीै, जो हमेशा अपना चुनाव चिन्ह ‘पेडÞ’ रखती है। पेडÞ पर उसका एकाधिकार हो गया है। लेकिन यहां की जनता सचमुच भेंड है। पेडÞ के सारे पते भेंड खा गए। टहनियों को काट कर लोगों ने जलावन बना लिया। पेडÞ का वडÞा गोलिया बना कर अपने पडÞोसी की मदद में भेज दिए। आखिर पडÞोसी धर्म भी तो कोई चीज होती है न ! शास्त्र कहते हैं- ‘अतिथि देवो भव’। अतिथि को देवता के समान जानो और मानो। हम सुखी लकडÞी देकर बडÞे सस्ते में अतिथि धर्म और पडÞोसी धर्म निवाह कर रहे हंै। पडÞोसी घर में आ जाए तो वह अतिथि हो गया। वही अतिथि जब अपने घर वापस चला गया तो पडÞोसी हो गया। अतिथि और पडÞोसी में कोई खास र्फक तो है नहीं। नाक को सामने से पकडÞो या हाथ घुमा कर, बात तो एक ही है।
और जहां तक पेडÞ की बात है, अब वे जमाने लद गए, जब पेडÞों पर कोयल कूकती थी, तोते चह चाहते थे, बुलबुल की बोली सुनाई पडÞती थी। अब तो पेडों पर गीद्ध बैठते हैं, कौवे कांव-कांव करते हैं। रात को उल्लू और चमगादडÞ पेडÞ पर कब्जा जमाए रहते हैं। बगुले पेडÞों पर आमसभा करते हैं। आतंकवादी की दाढÞी की तरह मधुमख्खी के छत्ते रहते हैं। एक दूसरी पार्टर्ीीै, जो अपने को र्सर्ूय का पक्का उपसाक बताती है। जाडेÞ के दो तीन महीनों के लिए भले ही सूरज प्यारा लगता है, लेकिन नौ महीने तो सूरज आग ही बरसाता है। वैसे भी राजनीति में लोग खुद हथियार और पैसे से गरमाए हुए रहते हैं, उस पर सूरज की तपीश ! लोग शमां पे जलने वाले पतंगों की तरह अब तक मर गए होते, गर देश में कुछ गंदी नदियां ना होती तो। सूरज भले ही डींग मारे, मेरे कारण से यह दुनियां चल रही है। लेकिन अब तो सूरज की समझ में भी यह बात आ गई होगी कि राजा के न होने पर भी राजकाज तो चलता ही रहता है। इसीलिए सूरज की चकाचौंध से बचने के लिए लोग काले चस्मों का प्रयोग करते हैं। झुलस कर मरना हो तो सूरज को गले लगा लें।
एक मजे की बात सुनाऊ – किसी दल को र्’र्सप’ भी मिला है, चुनावी पहचान के लिए। नेपाली लोग नागपंचमी के रोज भले ही र्सप की पूजा करें, दूध और लावा खिलावें मगर साल भर तो र्सप को देखते ही लाठी लेकर उसे मारने दौडÞते हैं। सांप भी हर साल बहुतों को काट खाता है। किस लिए लोग र्सप से दोस्ती करेंगे और उसे अपना मत देंगे – दूध पिलाने वाले को र्सप नहीं काटेगा, इसकी क्या ग्यारंटी – किसी खुशनसीब दल को ‘बोका’ चिन्ह मिला है, ऐसा सुनने में आया है। बहुत अच्छी बात है। नेपाली जनता भैंस और उसके बेटेबेटी को स्वादिष्ट मःमः बना कर पचा लेते हैं, तो यह बेचारा ‘बोका’ किस खेत की मूली है, दो-चार कुंभकर्ण्र्ााा भीमसेन मिल जायं तो ‘बोका’ -बकरा) को सेकुवा बना कर दो-चार बोतल घरेलू र्ठरा के साथ खा लेंगे और आरम से पचा भी लेंगे। समूचे देश की सम्पत्ति को निगल जाने वाले बहादुर लोग ‘बोका’ को क्यों छोडÞ देंगे – ‘बोका’ क्या उन का मामा और चचा लगता है –
किसी पार्टर्ीीो ‘कुल्हाडी’ मिली है, चुनावी चिन्ह के रूप में। हाँ, यह जरा दमदार चिन्ह है। नेपाल के सारे जंगलात इसी कुल्हाडÞी ने साफ कर दिए। कुल्हाडÞी चिन्ह वालों को प्रचार करने में भी बहुत आसानी रहेगी। इस दल के चमचे चिल्लाएगे- कुल्हाडÞी देख रहे हो न – याद रखो भोट हमें नहीं दिया तो इसी कुल्हाडÞी से दोनों हाथ काट कर भीख मांगने के लिए सडÞक पर बैठा देंगे। अब इस स्थिति में कोई भी भद्र नागरिक कैसे ‘ना’ कहेगा – रात को सपने में भी उसे तो कुल्हाडÞी नजर आएगी, डÞर के मारे बेचारा सो नहीं पाएगा !
इसी तरह किसी को हल, किसी को ‘मादल’ -एक वाद्य), किसी को गाय, किसी को नमस्कार मुद्रा का हाथ, किसी को बैल की एक जोडÞी, किसी को कोट, किसी को गिलास तो किसी को कपडÞा सीने की मसीन और किसी को मक्के की एक हाथ लम्बी बाली मिली है। आग में भुना हुआ भुट्टा नमक और हरी र्मीच के साथ लाजबाव जायका पेश करता है। इस का तजर्ुवा तो आप को भी होगा।
जिस खुशनसीब पार्टर्ीीो चुनाव चिन्ह के रूप में मर्ुगा मिला है, वह पार्टर्ीीो बेशक सब को मर्ुगा बनाएगी। मर्ुर्गे की तरह दूसरे मर्ुर्गे से लडेÞगी। चुनावी लडर्Þाई के साथ-साथ मर्ुगाें की लडर्Þाई भी चलेगी। भारत में जब मुस्लिम शासन था, तो उस समय मर्ुर्गे की लर्डाई का शानदार प्रायोजन-आयोजन हुआ करता था। तत्कालीन जनता भी चटखारे ले-ले कर इस लडर्Þाई का लुत्फ लेती थी। क्या हसीन दिन थे वे !
किसी पार्टर्ीीा चुनावचिन्ह ‘दारू की बोतल’ क्यों नहीं रखी गई – इस बात को लेकर देश की सभी पार्टियां मिल कर सर्वोच्च अदालत में और अख्तियार दुरूपयोग अनुसन्धान अयोग में, निर्वाचन आयोग के खिलाफ मुद्दा ठोकने जा रही हैं, एक विश्वस्त सूत्र ने ऐसी जानकारी दी है।
एक पार्टर्ीीो चुनाव चिन्ह के रूप में केले का घौंद मिला है। उस पार्टर्ीीे शर्ीष्ास्थ लुटेरों का कहना है कि हमारा चिन्ह तो शुभ-सूचक है। आप कहीं यात्रा पर निकल रहे हों और केले का घौंद सामने पडÞ जाए तो समझीए आपकी यात्रा सफल होगी ही। केला तो शुभ-सूचक फल माना जाता है। पेट भर खाएंगे, फिर भी केला बच गया तो चुनाव के बाद जनता को वही केला थमा देंगे। कहेंगे- आपने हमें भोट दिया है, हम देश खाएंगे, लीजिए आप केला खाईए। किसी को कहेंगे- आपने हमें भोट नहीं दिया तो क्या हुआ, लीजिए आप हम लोगों का केला खाईए।
अब आप के पास बहुत सारे विकल्प हैं। आप को जो चुनाव चिन्ह अच्छा लगे, उसी पार्टर्ीीें घुस जाईए और ऐश कीजिए। जिस तरह गढÞीमाई का मेला पाँच-पाँच वर्षमें लगता है, कुंभ का मेला बारह वर्षों में लगता है। उसी तरह चुनावी मेला भी नेपाल में बहुत मुश्किलों के बाद लगता है। वैसे तो प्रजातन्त्र के बारें मे बहुत पहले एक मशहूर शायर ‘इकबाल’ ने फरमाया है-
जम्हूरियत इक तर्जे- हुकूमत है कि जिस में
बन्दों को गिना करते हैं, तोला नहीं करते !
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