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हरितालिका तीज व्रत की जानकारी, 30 अगस्त मंगलवार को हस्त नक्षत्र और शुभ योग

यह व्रत भाद्र पद शुक्ल तृतीया और हस्त नक्षत्र में किया जाता है।
इस वर्ष भी हरितालिका तीज व्रत में कुमारी तथा सौभाग्यवती स्त्रियाँ पति सुख को प्राप्त करने के लिए भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करेंगी। इस व्रत को तीज, हरितालिका तीज के नाम से जाना जाता है।


इस व्रत को करने से स्त्रियों को अखंड सुख सौभाग्यवती रहने के वरदान की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों के अनुसार इस वर्ष पूजा का समय इस बार भी पूजन समय प्रातः 7:30 बजे से आरम्भ कर रात्रि 11:40 तक बन रहा है।
शिव और माँ पार्वती का पुनर्मिलन इसी दिन हुआ था।
यह शिव-पार्वती के मिलन का दिन है।
हरितालिका तीज व्रत सुहागिनों के साथ साथ कुंवारी लड़कियां भी मनोनुकूल पति प्राप्त करने के लिए रख सकती हैं। माता पार्वती महादेव को अपना पति बनाने के लिए कठिन तपस्या कर के सर्वप्रथम तीज व्रत की थी।
*पूजन सामग्री :-*
व्रत पूजा के लिये इन वस्तुओं की तैयारी कर लेना चाहिए।
जैसे –
पान, सुपारी, नारियल, निम्बू,चावल का चूर्ण, बुक्का, मिठाई, फल, पल्लव, गंगाजल,
छोटी चौकी,
पंचामृत ( घी, दही, शक्कर, दूध, शहद) दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर,चन्दन, अबीर, जनेऊ, वस्त्र- साड़ी, मरदानी, गमछा, श्रृंगार सामग्री, श्री फल, कलश, दिया, ढकना, गोबर, विल्वपत्र, फूल, फूलमाला, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, अकवन का फूल, तुलसी, मंजरी,
रामराज मिट्टी या काली मिट्टी, या नदी की मिट्टी, या कुम्हार की मिट्टी, बालू रेत, केले थम्भ, पत्ता, फल फूल, फूलमाला, दुभ, चूड़ी, बिछिया,बिंदी, कुमकुम, काजल, माहौर, मेहँदी, सिंदूर, कंघी, इत्यादि अन्य वस्त्र आदि ।
*तीज व्रत के नियम विधि :-* व्रत के एक दिन पूर्व व्रती के द्वारा नहाय खाय यानी स्नान पूजन के बाद शुद्ध सात्विक एवं पवित्र भोजन बना कर तुलसी दल डाल कर भगवान को भोग लगा कर भोजन किया जाता है। अगले दिन अपने समय सुविधा के अनुसार सुबह से रात तक कभी भी पूजन किया जाएग। और दिनभर उपवास रहकर अपने समय से शुद्ध वस्त्र धारण कर पार्वती तथा शिव की मूर्ति रामराज मिट्टी, नदी की मिट्टी में बालू, हल्दी, कपूर, मिलाकर शिवलिंग प्रतिमा बनाकर गौरी-शंकर की पूजन, अभिषेक कर कथा का श्रवण करें और यथा शक्ति मन्त्र और जप, पाठ एवं भक्तिमय जागरण किया जाएगा,
और अगले दिन
प्रातः 5 बजे स्नान पूजन कर
व्रती अपना व्रत उपवास पूर्ण करेंगी, पुनः शिव पूजन कर चढ़ाये गए पूजन सामग्री दक्षिणा, आदि ब्राह्मण को दे कर पूजन में प्रयुक्त शिवलिंग आदि को जलप्रवाह कर गंगाजल एवं तुलसी पत्र से जल पी कर सूर्योदय के बाद व्रत का पारण करें,
जबकि तीज करने वाले अन्न से तथा पुनः गणेश चतुर्थी व्रत रखने वाले फलाहार से व्रत पारण करेंगे।
चुकी बुधवार को ही गणेश चतुर्थी का व्रत है।
पूजा विधि :-
पूजा में शिव, पार्वती एवं गणेश जी की प्रतिमा रेत, बालू या काली मिट्टी से बनानी चाहिए। फिर एक छोटी चौकी पर आसन बनाकर उस पर थाल रखे तथा उस थाल में केले के पत्ते को रखना चाहिए उसके बाद तीनों प्रतिमा को बिल्वपत्र या केले के पत्ते पर स्थापित करना चाहिए।
उसके बाद सबसे पहले दीपक जलाना चाहिए। कलश के मुंह पर लाल धागा बांधना चाहिए। घड़े पर गोबर का गौरी गणेश बनाकर उसपर रोली दूर्वा अक्षत चढ़ा कर ध्यान पूजन करें तत्पश्चात जल चढ़ाना चाहिए फिर कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प से कलश का पूजन कर नारियल स्थापित करना चाहिए।
कलश पूजा के उपरान्त शिव जी तथा बाद में थाली में स्थापित प्रतिमा में गणेश गौरी एवं शिव की पंचामृत गन्ध से स्नान करा कर वस्त्र साड़ी श्रृंगार सामग्री आदि चढ़ानी चाहिए तथा गणेश व शिवजी को गमछा एवं धोती चढ़ाना चाहिए फिर चन्दन, अक्षत, फूल, बेलपत्र, दुभ, शमी पत्र, भांग, धतूरा, अबीर, सिंदूर, धूप, दीप, नैवेद्य दक्षिणा आदि से विधिवत पूजन कर व्रत की कथा पढ़नी या सुननी चाहिए।
कथा पढ़ने अथवा सुनने के बाद सर्वप्रथम गणेश जी कि आरती, फिर शिव जी की आरती तथा अंत में माता गौरी की आरती करना चाहिये।
इस परम गोपनीय व्रत को जो भी स्त्री करेगी वो समस्त सुख सौभाग्य को प्राप्त कर अखण्ड पति सुख प्राप्त करेगी।
जो स्त्री तथा कन्या पूरी निष्ठा के साथ इस व्रत करती है उसको मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
महादेव उसको उत्तम आयु, आरोग्यता, सुख सौभाग्य, सन्तति सन्तान एवं समस्त भौतिक सुख प्रदान करते हैं।
*हरितालिका तीज व्रत कथा:-*
एक बार भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।
श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।
तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।
नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।
नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्‍गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्‌! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।
तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा।
तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया – मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी।
उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।
तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।
इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।
तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा – मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।
तब मैं ‘तथास्तु’ कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।
तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।
गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया।
हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।

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ज्योतिषाचार्य आचार्य राधाकान्त शास्त्री*
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