Fri. Mar 29th, 2024

साहित्य में नारी र्दर्पण भी झूठ बोले

कञ्चना झा:बात कुछ सप्ताह पहले की है । राजधानी काठमान्डू स्थित बबरमहल रिभिजिटेड के सिर्द्धार्थ आर्ट ग्यालरी में एक कवि गोष्ठी हर्ुइ थी । करिब दो दर्जन कवि एवं कवयित्री ने अपनी सिर्जना का वाचन किया । साहित्य अनुरागी एवं सहित्यकारों से भरी इस सभा में अतिथि के रूप में सहभागी हुए प्राध्यापक डाक्टर राम अवतार यादव ने sah2 sahityaअपने मन्तब्य रखने के समय में कुछ ऐसी बातें कही कि सभा का माहौल ही बदल गया । सभी की आँखे झुक गयी । और पति पत्नी या बच्चे को लेकर उस सभा में सहभागी हुए लोग थे वे भी क्या करें नहीं करें की स्थिति में आ गये । प्राध्यापक डाक्टर यादव ने मैथिली कवि कोकिल विद्यापति का दृष्टान्त देते हुए कहा- विद्यापति की महानता की जितनी चर्चा करें वह कम है, लेकिन उनकी एक बडÞी समस्या थी । खास कर महिला के मामलों में उन्होने जो लिखा है वो सोचनीय है । उनको तो महिलाओं के बडÞे बडÞे वक्ष के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता ।
प्राध्यापक डाक्टर यादव ने शायद कवि कोकिल विद्यापति द्वारा रचित पदावली के इन पदों को लेकर कहा होगा । पदावली में विद्यापति ने लिखा है-
गिरिवर गरुअ पयोधर परसित, गिमगज मोतिम हारा
काम कम्बु भरि कनक सम्भु परि ढारए सुसरि धारा ।।
विद्यापति नें इस पंक्ति में नायिका के मांसल सौर्न्दर्य और उसके वक्ष का ही वर्ण्र्ााकिया है । वैसे तो साहित्यकार स्वतन्त्र हैं लिखने को । कहा भी जाता है जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि । लेकिन समस्या यह है कि अभी, जब महिला संबधी यौनजन्य अपराध बढÞता जा रहा तो महिला अधिकारवादी लोग साहित्यकार को भी दोषी मानने लगे हैं । महिला अधिकारवादी लोग खुल कर आगे आ गये हैं । वह ऐसे साहित्य को निषेध करने की बात भी करने लगे हैं चाहे वो विद्यापति का हो या मनु का । उनका कहना है- साहित्य सञ्चार का सबसे सशक्त माध्यम है । और समाज में किसी विषय के बारे में दृष्टिकोण बनने में इसकी सबसे बडÞी भूमिका रहती है । आप जैसा साहित्य लोगों को परोसेंगे समाज वैसा ही बनेगा । और यही कारण है कि आप किसी एक आदमी से पूछिये महिला शब्द से आप क्या समझतें है – वह या तो नाजबाब हो जातें हैं या सिर्फएक मुस्कान दे कर प्रश्न से भागना चाहते हैं । या फिर कुछ लोग जबाब भी देतें हैं तो उनका जबाब होता है- नारी अर्थात् लज्जा, भावुक, कोमल, सुन्दर, संयम, कमजोर, परनिर्भर आदि  ।  यह सभी ऐसे शब्द हैं जो महिलाओं को कमजोर करते जा रहे हैं और इन्होंने महिलाओं को सिर्फऔर सिर्फएक सेक्सुअल अब्जेक्ट बनाकर रख दिया है ।
आखिर क्यो नहीं कह पाते हैं वे लोग कि नारी अर्थात् शक्ति स्वरूपा, जननी, कुशाग्र बुद्धि । लेकिन एक अलग सोच ने समाज में जडÞ पकडÞ ली है । पुरुष तो ऐसा समझते ही हैं- साहित्य, सिनेमा और विज्ञापन के कारण इस सोच ने घर कर लिया है । रुसी मनोवैज्ञानिक इवान पी पाब्लोभ ने काफी समय अनुसन्धान कर इसको कन्डीसन्ड का नाम दिया है । कुत्तों पर प्रयोग कर उन्होंने कहा कि सिर्फकुत्ता ही नहीं मनुष्य भी कन्डिसन्ड होता है । और महिला के संबंध में समाज कन्डिसन्ड हो गया है । महिला सुनते ही उनके मन जो सबसे पहली बात आती है वह है सौर्न्दर्य ।
शायद यही कारण है कि दादी माँ की कहानी में भी राजा हमेशा बलवान होता था और हाथ में तलवार और घोडे पर सवार रहता था, लेकिन रानी सुन्दर होती थी । और शयन कक्ष में सजधज के अपने पति की प्रतीक्षा करती थी ।
लेकिन साहित्यकार डाक्टर राम दयाल राकेश का कहना है कि साहित्यकार पर मिथ्या आरोप लगाया जा रहा है । वह प्रत्रि्रश्न करते हैं- नारी को सेक्सुअल अब्जेक्ट के रूप में चित्रण आपको किस जगह नजर आ रहा है –
डाक्टर राकेश की बातों में सच्चाई होगी लेकिन महाकवि कालिदास के इस श्लोक पढÞने के बाद फिर एक बार साहित्यकारों की रचना पर उंगली उठने लगती है । प्रसिद्ध महाकाब्य मेघदूतम के दूसरे खण्ड के २२ वें श्लोक में उन्होनें नारी का कुछ इस तरह वर्ण्र्ााकिया है ।
तन्वी श्यामा शिखरदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी मध्ये क्षामा चकितहरिणी प्रक्षणा निम्ननाभिः ।
श्रोणीभारदलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां या तत्र स्याद् युवतिवषये सृष्टीरादयेव धातः ।
अर्थात्, छरहरा शरीर, ठीक से मिला हुआ साफ दन्त, लाल होठ, पतली कमर, गहरी नाभी, डरी हुए आँखे, भारी नितम्ब के कारण चलने में दिक्कत होती हो और वक्षस्थल के भार के कारण आगे झुकी हर्ुइ और बहुत सारी बातें उन्होने लिखा है अपने महाकाब्य में नारी सुन्दरता के बारे में । अगर उनकी दूसरे काब्य में देखें तो बहुत बिम्ब को प्रयोग कर नारी को सुन्दर, अबला, विरहिणी, संयम, कोमल और प्रेम करनी वाली बस्तु के रूप में प्रस्तुत किया है ।
साहित्य में नारी चित्रण की बात करते हुए साहित्यकार मणि लोहनी कहतें हैं- आधुनिकीकरण और उपभोक्तावादी सोच के कारण नारी के साथ कई जगह अन्याय हुआ है । उनका कहना है कि बहुत से स्थापित और नामचीन साहित्यकार भी अपने आपको चर्चा में लाने के लिए और पुस्तक की बिक्री बढÞाने के लिए महिला को कमजोर और भोग्य बस्तु के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं । वैसे उनका मानना है कि देखनेवाले के नजरिये पर साहित्य का विश्लेषण निर्भर करता है ।
नारी शक्ति का रूप, मातृत्व स्नेह से भरी नारी का रूप, कभी सीता तो कभी द्रौपदी या राधा, कभी अप्सरा के रूप से संवारा गया है नारी को । ये सभी नारी के उपनाम है, लेकिन सभी नाम ओछे पडÞ जाते हैं, जब इसका सौर्न्दर्य वर्ण्र्ााकिया जाता है , नारी अर्थात् सौर्न्दर्य की मूतिर् और हर जगह इसका यही रूप सबसे ज्यादा निखर के आया । अब भी नारी का यही रूप सबसे ज्यादा देखा जाता है । लेकिन सवाल उठता है कि नारी को यह रूप दिया किसने – साहित्य, सिनेमा, चित्र कला और जितनी भी विधाँए हैं, सभी विधाओं ने नारी के अलग रूप को समाज के सामने रखा । मैथिली और सस्ंकृत ही नहीं हर भाषा के साहित्य में नारी को लगभग इसी रूप में दिखाया गया है । हिन्दी साहित्य की बात करें तो अब्दुल रहमान ने संदेश-रासक में नारी का वर्ण्र्ााकरते हुए लिखा है-
छायंती कह कहव सलज्जिर णियकरिहि
कणयकलस झंपंती णं इंदीवरिहिं ।।
रहमान साहब को भी नारी की बात करते वक्त सिर्फउनका मांसल शरीर ही याद रहा ।  वैसै कुछ ऐसे भी साहित्यकार हैं जो महिला को घृणा पात्र के रूप में भी प्रस्तुत किया है ।  तुलसी दास जी ने मानस के अरण्य काण्ड में लिखते हैं-
अवगुण मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानी ।।
अर्थात्, नारी अवगुणों की जडÞ, पीडÞक और सभी दुखों की खान है ।
अख्खडÞ कवि कविरदास जी तो एक कदम और आगे बढÞ कर कहतें है कि –
नारी कुंड नरक का, विरला थमै बाग ।।
नेपाली भाषा में आदिकवि कहलाने वाले भानुभक्त आचार्य  ने तो नारी को सौर्न्दर्य का मापक ठहरा दिया है । राजधानी काठमांडू जो उस समय कान्तिपुरी कहलाता था उसके सौंर्न्दर्य से प्रभावित होकर लिखतें हैं-
चपला अवलाहरु एक सुरमा
गुनकेसरीको फुल ली शिरमा
हिंड्न्या सखि ल्ाी कन वरिपरि
अमरावती कान्तिपुरी नगरी ।।
उधर कविवर भूपी शेरचन जी को शायद भैरहवा शहर अच्छा नहीं लगा तो वो उस शहर को इस तरह से वर्ण्र्ााकरते है-
नखदेखि शिखसम्म,
वक्ष, नितम्ब केही पनि विकसित नभएको…….. ।
शहर सुन्दर हो तो नारी से तुलना और कुरूप हो तो भी नारी से ही तुलना । ‘साँझ को नयाँ सडक’ कविता में वह लिखते हैं- अर्धनग्न पीताम्बर सारीमा, नयाँ सडकका तमाम आँखाहरुलाई आफ्नो नाइटोमा खोपाएर………..।।
नेपाली साहित्य में महिलाओं के वर्ण्र्ााके विषय मे विश्लेषण करते हुए साहित्यकार गीता केशरी कहती हैं कि अगर साहित्यकार नारी की सुन्दरता, कोमलता और माया की मर्ूर्ति के रूप में दिखाता है तो उसका दूसरा रूप जो शक्तिशाली है, योग्य, कुशल और समाज के विकास में अहम् भूमिका निर्वाह कर रही है उसे भी दिखाना चाहिए । निष्पक्षता तो साहित्यकार में होनी ही चाहिए, ऐसा गीता का मानना है ।
नेपाली साहित्य के शर्ीष्ास्थ साहित्यकार विपी कोइराला ने भी अपने उपन्यासों में अचेतन मष्तिस्क के विशेषण में नारी देह को ही ज्यादा ध्यान दिया है । अपने चर्चित उपन्यास सुम्निमा में वे लिखते हैं – सोमदत्तले केही बेरसम्म उसको शरीरको पृष्ठभाग थामिन लागेको पिङ जस्तो हल्लिदै नदीको तटमा लोप हुँदै गइरहेको देख्यो …..। अपने इस उपन्यास को जरूरत से ज्यादा वास्तविक दिखाने के लिए किराँत बाला को जो कि इस उपन्यास की नायिका है बार बार वस्त्र विहीन अवस्था में प्रस्तुत करते हैं ।
बहुत से साहित्यकार भी अब स्वीकार करने लगें हैं कि साहित्य के द्वारा भी नारी का शोषण किया जा रहा है ।  साहित्यकार भाष्कर झा का मानना है, वाणिज्यीकरण के इस दौर में साहित्यकार भी अपने मूल उद्देश्य से भटकने लगे हैं । वह आगे कहते हैं- आर्थिक लाभों के लिए आज तथाकथित साहित्यकार नारी अस्मिता का हनन कर अपने लेखन में इसे सेक्स टाँय के रूप में प्रस्तुत कर अपनी दमित वासना का पर््रदर्शन कर रहे हैं ।
युवा साहित्यकार मनीषा गौचन का भी कहना है कि साहित्य के नाम पर महिलाओं के साथ अन्याय किया जा रहा है । वे कहती हैं नारी मन और नारी इच्छा को न्यासंगत ढंग से नहीं दिखाया जाता है । लेकिन वह आशावादी हैं क्योंकि महिला भी अब साहित्य लेखन में आने लगी हैं और इससे गलतफहमियाँ कम होंगी ।
अतीत जो भी हो लेकिन अब साहित्य में नारी शोषण राष्ट्रीय और अन्तर्रर्ाा्रीय स्तर पर भी बहस का मुद्दा बन गया है । काफी अनुसन्धान भी हुए हैं- इस क्षेत्र में । और अनुसन्धान का परिणाम दिखाता है कि साहित्य में नारी को सेक्सुअल अब्जेक्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया है और अब भी यह हो रहा है । और इस प्रयोग ने व्यक्ति और समाज दोनों पर नकारात्मक प्रभाव छोडÞा है । व्यक्ति के आचरण, व्यवहार, सामाजिक संरचना और सामाजिक प्रक्रिया को भी यह प्रभावित कर रहा है । इसलिए जब बहस छिडÞ ही गई है तो परिणाममुखी ही होनी चाहिए । देर हो चुकी है, अब और देर करना ठीक नहीं ।



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