Fri. Dec 1st, 2023

धर्म और संस्कृति के प्रति नेपाली जनता की जागरूकता से अमेरिका चिंतित क्यों ? : डॉ श्वेता दीप्ति



डॉ श्वेता दीप्ति, काठमांडू । हिन्दू धर्म और वैदिक संस्कृति ही नेपाल की पहचान है । अब इसे हिन्दू राज्य कहें या ना कहें यह अलग बात है । देश के पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली ने नेकपा एमाले के पाँचवी कमिटी की बैठक में अपने नेताओं को यह कह कर खबरदार किया है कि ‘जो यह कह रहे हैं कि नेपाल हिन्दू राज्य बन सकता है, उनके पीछे ना जाएँ क्योंकि अब नेपाल कभी हिन्दू राज्य नहीं बन सकता है ।’ ओली का यह कहना अस्वाभाविक कहीं से भी नहीं है । क्योंकि इन्हीं नेताओं के प्रश्रय में नेपाल ने अपनी पहचान, अपनी सांस्कृतिक विरासत खो दी । मजे की बात तो यह है कि अपनी संस्कृति और पहचान खोने के बाद भी शायद हमें इसका तनिक भी मलाल नहीं है । क्योंकि इसके खिलाफ ना तो कोई आवाज उठी और ना ही कोई विद्रोह हुआ ।  किन्तु ओली साहब के वक्तव्य से एक बात तो जाहिर होती ही है कि यह आग कहीं–ना–कहीं दबी हुई जरुर है, जो इन नेताओं को थोड़ा ही सही किन्तु चिंतित अवश्य कर रहा है । ऐसे में स्वाभाविक सी बात है कि ये नेतागण तुष्टिकरण की राजनीति तो अवश्य करेंगे क्योंकि उन्हें देश से अधिक वोट बैंक की चिंता जो होती है । इसी वक्तव्य के साथ ही ओली ने भारत का हवाला देते हुए कहा कि, ‘हिन्दुस्थान के नाम में ही हिन्दू है फिर भी भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं है बल्कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है ।’ उनका यह कथन भी बिल्कुल सही है । पर यहाँ एक बात शायद वो भूल गए कि, नेपाल कभी गुलाम नहीं रहा, नेपाल में कभी विदेशियों का आक्रमण नहीं हुआ, ना ही यहाँ किसी अन्य समुदाय ने राज किया है, इसलिए इसकी हिन्दू राष्ट्र की पहचान अक्षुण्ण थी । जबकि इसके विपरीत भारत पर आततायियों ने सदियों से लगातार आक्रमण किए, उस पर राज किया, वहाँ के मंदिरों को लूटा, तोड़ा और अपने धर्म को थोपा, जिसकी वजह से भारत की मूल आत्मा ही मर गई । लम्बे समय तक अँग्रेजों की गुलामी ने स्वतंत्रता के बाद भी गुलाम मानसिकता से उन्हें आजाद नहीं होने दिया और यही उसके धर्मनिरपेक्ष होने की नींव बनी और यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धर्म की वजह से ही भारत का विभाजन भी हुआ । आजादी के बाद अल्पसंख्यकों के नाम पर  तुष्टिकरण की राजनीति ने देश की दशा ही बदल दी, जिसका खामियाजा भारत आज भी भुगत रहा है ।

यह सर्वविदित है कि ६२/६३ के आंदोलन में किसी ने धर्मनिरपेक्षता की मांग नहीं की थी । जब अचानक रातो रात नेपाल को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया तो अधिकांश नेता इस बात से अनभिज्ञ थे कि धर्मनिरपेक्ष शब्द को अंतरिम संविधान में कैसे शामिल कर लिया गया, जिसे आंदोलन के दौरान नेतृत्व करने वाले किसी भी नेता ने नहीं उठाया था । लेकिन पर्दे के पीछे की सच्चाई यह थी कि यह दाता देशों के प्रभाव का असर था जिसकी वजह से धर्मनिरपेक्ष की घोषणा हुई और बाद में तो दाता देशों की नियमित प्रशिक्षणबैठक और सलाह से सभी नेता धर्मनिरपेक्षता की वकालत करने लगे ।

नेपाल के सन्दर्भ में एक सवाल तो जेहन में उठता है कि धर्मनिरपेक्ष घोषित होने से पहले यहाँ कभी किसी भी समुदाय के बीच मतभेद नहीं हुआ न ही दंगे हुए । सब कुछ बहुत अच्छा था, सभी मिल कर रहते थे । फिर इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी ? हम सभी देख रहे हैं कि, पिछले कुछ सालों में परिदृश्य बदल रहा है । कल तक जो भारत में होता था वह यहाँ भी होने लगा है । आखिर क्यों क्यों वर्ग विशेष हावी होने लगा है ? कोई तो वजह होगी ? क्या इस पर सचेत होने या मंथन करने की आवश्यकता नहीं है ?

जहाँ तक हिन्दू धर्म की बात है तो यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है मुझे कि हिन्दू धर्म कभी साम्प्रदायिक नहीं रहा है । यह वह धर्म है जो सभी का समान भाव से सम्मान करता है । वैदिक सनातन धर्म के सिद्धांत मनुष्य को महान बनने की प्रेरणा देते हैं । फिर नेपाल के कर्णधारों को इसे धर्मनिरपेक्ष घोषित करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ?

जिस तरह से नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किए जाने के साथ ही देश के हर वार्ड में चर्च बनाए जा रहे हैं, मदरसे बनाए जा रहे हैं यह विचारणीय विषय तो है ही चिंता का भी विषय है । इन मदरसों और चर्चों के लिए फन्ड कहाँ से आ रहे हैं ? यह जाँच का विषय है । दो वर्ष पहले मधेश प्रदेश में मुस्लिमों की धर्मसभा हुई थी । जहाँ लाखों लोग आए थे । जिनके न तो आने का कोई रिकार्ड सरकार के पास है न ही लौटने का । उस सभा में मीडिया को भी वहाँ जाने पर पाबंदी थी । आज सर्वेक्षण बताता है कि नेपाल दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जहाँ सबसे ज्यादा संख्या में धर्मान्तरण हो रहा है । यहाँ की गरीबीअशिक्षा और सरकार की अनदेखी ने इसे और भी फलने फूलने में मदद की है । धर्म की स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक है, किन्तु अफसोस कि यह स्वेच्छा से नहीं बल्कि प्रलोभन के तहत हो रहा है । यदि यह इसी गति से चलता रहा तो यह निश्चित है कि निकट भविष्य में नेपाल की बची–खुची पहचान भी समाप्त हो जाएगी । नेपाल में ईसाइयों और मुसलमानों की बढ़ती संख्या न केवल नेपाल बल्कि चीन और भारत के लिए भी खतरा है । चीन और भारत दोनों ही खुद को नेपाल से पहले से ज्यादा असुरक्षित मान रहे हैं।

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जब नेपाल हिन्दू अधिराज्य था तो विश्व में नेपाल को  हिन्दू आस्था के केन्द्र के रूप में देखा जाता था । किन्तु डॉलर की चमक ने नेपाल की प्रतिष्ठा और पहचान को दलदल में धकेल दिया । इस बीच कुछ संस्थाएँ हैं जो नेपाल की खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से वापस लाने के लिए प्रयत्नशील है जिसे अमेरिका नहीं पचा पा रहा है क्योंकि अमेरिका ने दावा किया है कि भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबंध रखने वाले धार्मिक समूह नेपाल में हिंदू राष्ट्र के पक्ष में बोलने के लिए प्रभावशाली राजनीतिक दल के नेताओं को भुगतान कर रहे हैं । अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी जे. ब्लिंकन द्वारा जारी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट’ में नागरिक समाज के नेताओं का हवाला देते हुए दावा किया गया है कि नेपाली नेताओं को हिंदू राष्ट्र के पक्ष में बोलने के लिए भुगतान किया जा रहा है । दावा किया गया है कि यह रिपोर्ट कई शोध के पश्चात् तैयार किए गए हैं । हम अपने आस पास रोज धर्मान्तरण की प्रक्रिया देखते हैं किन्तु उन्हें सिर्फ यह दिखाई दे रहा है कि नेपाल में ईसाइयों के प्रति सख्ती बरती जा रही है । रिपोर्ट में नेपाल में विभिन्न धर्मों का पालन करने वाली जनसंख्या, विभिन्न धर्मों के प्रति सरकार के व्यवहार और कानूनी स्थिति पर चर्चा की गई है । इसी तरह, धार्मिक स्वतंत्रता के लिए सामाजिक सम्मान की स्थिति और अमेरिकी सरकार की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गई है । जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता का हनन करने वाली घटनाओं का विवरण रखा गया है ।

उल्लेखनीय है कि काठमांडू में अमेरिकी दूतावास ने सरकारी अधिकारियों, धार्मिक समूहों, गैर–सरकारी संगठनों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, मीडिया और अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर रिपोर्ट का प्रारंभिक मसौदा तैयार किया है । वहीं इसके जवाब में नेपाल में तिब्बती बौद्ध नेताओं ने कहा है कि हालांकि हाल के वर्षों में हमारे लिए धार्मिक गतिविधियों को करना आसान हो गया है, लेकिन ईसाइयों के लिए यह मुश्किल होता जा रहा है । रिपोर्ट में नेपाल में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति पर चर्चा करते समय यह उल्लेख किया गया है कि तिब्बती बौद्ध गैर–राजनीतिक कार्यक्रम करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन ईसाइयों पर जबरन धर्म परिवर्तन के नाम पर कानूनों के अत्यधिक उपयोग का उल्लेख किया गया है । इस विषय पर ईसाई समुदाय के नेताओं ने ईसाई धर्म के खिलाफ नेपाल में फैली भावनाओं को लेकर गंभीर चिंता जताई है ।

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इस बीच भारत सरकार ने अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट पर असंतोष जताया है । रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को सरकारी एजेंसियां खुद प्रताड़ित कर रही हैं । भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने धार्मिक स्वतंत्रता पर रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण बताया । बागची ने कहा, “इस तरह की रिपोर्ट भ्रामक सूचना और गलतफहमी पर आधारित है ।”

स्वाभाविक सी बात है कि जनता का जागरूक होना कहीं ना कहीं उन्हें परेशानी में डाल रहा है । क्योंकि हाल के दिनों में गली–गली बाइबिल लेकर प्रचार करने वालों को स्थानीय जनता की नकारात्मकता और विरोध झेलना पड़ रहा है । सोशल मीडिया में भी ऐसे विषयों को स्थान मिल रहा है । यानी जिस ईसाईकरण को आसान बनाने के लिए धर्मनिरपेक्षता के एजेंडे को आगे बढ़ाया गया था और नेपाल से नेपाल होने की पहचान छीन ली गई थी उस पर इन विदेशी ताकतों को लग रहा है कि खतरा मँडरा रहा है जिसका आरोप खुले तौर पर भारत के ऊपर लगाया जा रहा है । वक्त सच को पहचानने का है और सही निर्णय लेने का है । संविधान का निर्माण देश हित और जनता के हितों के लिए किया जाता है जिसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन होना कोई असंभव बात नहीं है हाँ मानसिकता तैयार होने में समय लग सकता है किन्तु असंभव कुछ भी नहीं है ।

डॉ श्वेता दीप्ति
सम्पादक, हिमालिनी



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