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गठबन्धन का बन्धन कितना स्थिर और विश्वसनीय ? : डॉ. श्वेता दीप्ति

डॉ श्वेता दीप्ति, हिमालिनी, अंक मार्च 2024 । कांग्रेस, माओवादी, जनता समाजवादी पार्टी का सत्ता गठबन्धन टूटकर देश को नई गठबन्धन की सरकार मिल चुकी है । यह गठबन्धन एमाले–माओवादी–राष्ट्रीय स्वतन्त्र पार्टी आदि को मिलाकर बनी है । पिछले वर्ष पौष में तीसरी बार नेकपा माओवादी केन्द्र के अध्यक्ष पुष्पकमल दाहाल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमन्त्री बने थे । और अपने इस पन्द्रह महीने की अवधि में उन्होंने तीसरी बार विश्वास का मत लिया है । इस बार उनके द्वारा पेश किए गए विश्वास मत के लिए प्रस्ताव में उनके पक्ष में १५७ और विपक्ष में ११० मत पड़े हैं । पहली बार विश्वास का मत लेते समय प्रतिनिधि सभा का दो तिहाई से भी अधिक मत उन्हें मिले थे । दूसरी बार विश्वास मत प्रस्ताव के दौरान उन्हें अच्छी खासी मशक्कत करने पड़ी थी, तब कहीं जाकर उनकी कुर्सी बची थी । इस मरतबा भी अपनी कुर्सी तो उन्होंने बचा ही ली, परन्तु मतों की संख्या बताती है कि रास्ता इस बार और भी कठिन था ।



पुष्पकमल दाहाल २०७९ पौष १० गते एमाले के प्रस्ताव में तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे । पहली बार उन्होंने पौष २६ गते प्रतिनिधिसभा द्वारा विश्वास का मत लिया था । उस समय सत्ता पक्ष से माओवादी सहित एमाले, रास्वपा, राप्रपा, जसपा, नाउपा और राष्ट्रीय जनमोर्चा ने विश्वास का मत में उनका साथ दिया था । साथ ही विपक्षी दल कांग्रेस, एकीकृत समाजवादी, लोसपा और कुछ स्वतन्त्र सांसदों ने उन्हें विश्वास मत दिया था । उस समय विश्वास मत सम्बन्धी प्रस्ताव के पक्ष में २६८ और विपक्ष में दो मत पड़े थे । बैठक में कुल २७० सांसदों ने मतदान किया था । किन्तु तीन महीने के अन्दर ही राष्ट्रपति के निर्वाचन पूर्व गत वर्ष फागुन १२ गते एमाले के साथ सहकार्य तोड़ कर प्रचण्ड पुराने गठबन्धन में वापस आ गए थे । एमाले और राप्रपा का सत्ता से बाहर होने के बाद उन्हें गत चैत ६ गते दूसरी बार विश्वास का मत लेना पड़ा था । उस समय २६२ सांसद की उपस्थिति में विश्वास मत के पक्ष में १७२ मत उन्हें मिला था । मतों की संख्या इस बार १५७ में सिमट गई । यह संख्या इनके खिसकते हुए आधार को बताती है । और यह भी आगाह कर रही है कि इस गठबन्धन की भी लम्बी आयु नहीं है । नेपाल लोकतंत्र में आने के बाद से ही अनिश्चितताओं की राजनीति का प्रहार झेल रहा है । यह एक कटु सत्य है कि नेपाल में गठबन्धन की राजनीति देश के विकास से अधिक व्यक्तिगत स्वार्थ पर आधारित रही है ।

इन सब के बीच राजनीति के गलियारे में एक और चर्चा ने जगह बना रखा है वह यह कि, आखिर अचानक सबसे अधिक सीट पाने वाली काँग्रेस को दरकिनार कैसे कर दिया गया ? कहीं इसके पीछे हिन्दू राष्ट्र की मांग तो नहीं ? पिछले दिनों इस विषय पर कांग्रेस का मौन समर्थन देखने को मिलता आया है । नेपाली कांग्रेस के केन्द्रीय कार्यसमिति बैठक में २२ केन्द्रीय सदस्यों ने सनातन हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में अपना एजेन्डा सहित पूरक प्रस्ताव पेश किया था । सनातन हिन्दु नेपाल स्थापना महाअभियान के संयोजक शंकर भण्डारी ने सभापति शेरबहादुर देउवा को पूरक प्रस्ताव दिया था । भण्डारी सहित २२ केन्द्रीय सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को सभापति देउवा ने चुपचाप ले लिया था । कांग्रेस बैठक में धर्म निरपेक्ष खारिज की मांग लगातार उठती रही है । किन्तु इस बार यह मांग काफी मजबूत तरीके से उठाई गई थी । जिस में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की मौन सहमति शामिल थी ।
इस बात का दूसरा पक्ष हमारे सामने है कि यह बात माओवादी या एमाले की नीति के बिल्कुल खिलाफ है । और इनके नजदीक का चीन यह हरगिज नहीं चाहेगा कि नेपाल में फिर से हिन्दू राष्ट्र बहाल हो । ऐसे में इस मसले पर माओवादी और एमाले का मिलन तथा कांग्रेस से दामन छुड़ाना सहज लगता है । लेकिन अगर गौर किया जाए तो वर्तमान में देश की बदली हवा में आने वाले समय में अगर कांग्रेस अपनी सोच पर कायम रहती है तो उसे इसका अच्छा परिणाम ही मिलेगा ।

राज्यशक्ति का मूल स्रोत हमेशा से राजनीति, सही शासन, सुशासन और कुशल शासन को माना जाता है । शक्ति को नियन्त्रण में लेने के लिए राजनीति ही आधार तय करती है । और शक्ति का अत्यधिक प्रयोग भी राजनीति में ही होेता है क्योंकि बिना शक्ति के राजनीति असंभव है । वर्तमान में देश में हर जगह राजनीतिक खींचातानी, दबाब, गुट आदि ही दिखाई दे रहा है । और इसके पीछे अगर कोई भावना है तो वह है शक्ति को अपने हाथों में लेना । यह सब राजनीति में हमेशा से होता आया है । राजनीति समाज और देश के विभिन्न पक्षों में से महत्वपूर्ण और परिवर्तनकारी संस्था है किन्तु, आज राजनीतिक पार्टी में सबसे अधिक कमी किसी चीज की है तो वह है संस्कार की । राजनीति में जब स्वार्थ हावी हो जाता है तो वहाँ अस्थिरता और खतरे की स्थिति संभाव्य है । नेपाल की राजनीति इसी प्रकार की है जिसने देश को अस्थिरता की ओर धकेल दिया है । सत्ता प्राप्ति के लिए नेता किसी भी निकृष्टता की सीमा तक जा रहे हैं । कुर्सी मोह तो ऐसा बना हुआ है कि जो नेता आज आए हैं उनके सामने मसीहा कहे जाने वाले नेता वरीयता के निचले क्रम में भी बैठने के लिए भी तैयार हैं ।

 

उनका आत्मसम्मान जरा भी आहत नहीं होता उन्हें सिर्फ कुर्सी चाहिए । हर तरफ से जो विवाद में घिरे हैं उन्हें गृहमंत्रालय जैसे महत्तवपूर्ण मंत्रालय मिल रहे हैं । परन्तु सवाल तो यह है कि यहाँ कौन ऐसे हैं जो किसी विवाद में फसे नहीं हैं तो स्वाभाविक है कि पदों पर और कुर्सियों पर भी वही चेहरे दिखेंगे । सत्ता प्राप्ति के लिए की गई राजनीति शक्ति हासिल करने का ही एक स्वरूप है । हमारे राजनीतिक ध्रुव में विभाजित समाज में यह एक आधारभूत वस्तु भी है । राजनीति में सभी विकल्पों में से उचित विकल्प खोजने की समझ नेतृत्व में होना आवश्यक है किन्तु नेतृत्व ही अगर स्वार्थ और परिवारवाद की भावना से लिप्त हो तो वहाँ किसी सही निर्णय की कल्पना नहीं की जा सकती है । ऐसा नेतृत्व सिर्फ संस्थागत स्वार्थ को ही पूरा कर सकता है, सम्पूर्ण देश की समस्याओं का समाधान या विकास की राह नहीं बना सकता है । नेपाल में राजनीतिक दलों की जिद और स्वार्थ की राजनीति ने राष्ट्र को रसातल में धकेल दिया है । राजनीतिक दलों की पार्टीगत धारणा अलग–अलग होने के बाद भी जो गठबन्धन किए जाते रहे हैं, उसने कभी भी सही प्रतिफल देश को नहीं दिया है ।

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वर्तमान में प्रधानमंत्री किसी भी हाल में अपनी कुर्सी बचाना चाह रहे हैं । हर तरफ से उन पर सवाल उठाए जा रहे हैं । परिवारवाद के आरोपों से घिरे प्रधानमंत्री राजनीति की राह पर चल रहे हैं । यह सच है कि राजनीति की राह सरल नहीं होती । किन्तु प्रधानमंत्री की राह परिवारवाद में उलझी हुई है । जब तक वो इससे नहीं निकलते उनसे किसी और बात की उम्मीद नहीं की जा सकती है । वैसे यह सभी जानते हैं कि प्रचण्ड राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं । उन्हें साम, दाम, दंड, भेद सभी पता है किन्तु कभी–कभी सब कुछ होते हुए भी, आप बरबादी की गहरी खाई में गिर जाते हैं । यह बुरा वक्त अगर उनके सामने भी आ जाए, तो कोई नई बात नहीं होगी । क्योंकि राजनीति हमेशा एक जैसी नहीं होती है और समय परिवर्तनशील होता है । इसमें उतार चढ़ाव आता रहता है । और जनता अर्श से फर्श पर लाने की ताकत भी रखती है । दस वर्ष के जनयुद्ध के पश्चात प्रचण्ड नायक और खलनायक दोनों ही रूप में नेपाल की राजनीति में आने वाले व्यक्ति हैं । जनता की मुक्ति के लिए जनयुद्ध लड़ा गया था । आज उसी जनयुद्ध के नायक चारो ओर से परिवार वाद में घिरे हुए हैं । यह उनकी छवि को निरन्तर धुमिल कर रहा है । अगर देश और जनता के लिए वो राजनीति में आए हैं तो उन्हें इस परिवारवाद के घेरे से निकलना होगा ।

प्रधानमन्त्री तथा नेकपा (माओवादी केन्द्र)के अध्यक्ष प्रधानमंत्री प्रचण्ड पर ‘ परिवारवाद’ का आरोप विगत से ही लगता आया है जो गलत भी नहीं है । उन्होंने सत्ता में रहते हुए अपने परिवार के सदस्यों को किसी ना किसी महत्तवपूर्ण पदों पर स्थापित किया है । इस स्थिति में उन पर ऐसे आरोपों का लगना स्वाभाविक ही है । यह आरोप सिर्फ विरोधी ही नहीं लगाते बल्कि उनके पार्टी में भी इस बात पर असंतोष व्याप्त है । इस सब के बावजूद उन्होंने अभी अपने भाई नारायण दहाल को राष्ट्रीयसभा का अध्यक्ष बनाया है । जिसकी हर ओर आलोचना की जा रही है । बेटी, बहु, भाई, रिश्तेदार सभी को उन्होंने लाभ प्रदान किया है । ये सारी बातें सभी को पता ही है ।
माओवादी एक गौरवशाली पार्टी है, जो दस साल के सशस्त्र युद्ध के बाद शांतिपूर्ण राजनीति की मुख्यधारा में आई है । यह कोई छोटी मोटी पार्टी नहीं है । इस पार्टी को बनाने और बढ़ाने की लड़ाई में हजारों नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपने जीवन का बलिदान दिया है । कई आज भी बेघर हैं और कई आज भी घायल और मजबूरी से भरा जीवन जीने के लिए बाध्य हैं । जनयुद्ध में अपने परिवार के सदस्यों को खोने और गायब होने वाले परिवारों की संख्या भी हजारों में है । आखिर उन्हें और उनके परिवारों को अवसर क्यों नहीं मिलता ? क्या उनके और उनके परिवारों के लिए कोई मौका नहीं होना चाहिए ? प्रचंड को स्थापित करने वाले वही योद्धा आज खाड़ी देशों में नौकरियाँ तलाश रहे हैं, कुछ कृषि व्यवसाय में हैं, और उनमें से कुछ जीविकोपार्जन के लिए सड़कों पर भटक रहे हैं । पार्टी में उनकी परवाह क्यों नहीं की जाती ?

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परिवारवाद की गतिविधियों से प्रधानमंत्री प्रचंड की लोकप्रियता निश्चित रूप से घट रही है । अब उनके लिए जरूरी है कि वह इन बातों पर गंभीरता से सोचें और आगे बढ़ें । अभी भी समय है । वह इन चीजÞों में सुधार कर सकते हैं । प्रधानमंत्री के लिए यह समय अपनी शाख बचाने का और देश के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने का है । समय कल क्या दिखाएगा यह कोई नहीं जानता इसलिए आज पर ही यकीन किया जा सकता है । देश को एक दूरदर्शी नेतृत्व की अपेक्षा है । जिसका विजन साफ और स्पष्ट हो । जो देश हित के लिए काम करे । आश्चर्य है कि देश का सूनापन और निरंतर गिरती व्यवस्था पर किसी भी नेता का ध्यान नहीं जा रहा है । यह इस देश का दुर्भाग्य ही है । यह प्रचंड के लिए देश और जनता के लिए लोकप्रिय काम दिखाने का भी अवसर है । किसी को भी अवसर आने पर अच्छे कार्य करके दिखाने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए । तभी वह सफल हो सकता है ।
आज देश में राजनीति अस्थिरता है क्योंकि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है । और यह भी जाहिर सी बात है कि अस्थिर राजनीति में सरकार पर भी अस्थिरता की तलवार लटकी रहती है । क्योंकि अस्थिर राजनीति में सरकार बनाने और गिराने का सिलसिला चलता रहता है । इसलिए आज की बनी इस गठबन्धन की सरकार से जनता को किसी दूरगामी परिवर्तन की अपेक्षा बिल्कुल नहीं है । किन्तु किसी भी स्थिति में देश की जनता खुशहाली की अपेक्षा अपने नेतृत्व से अवश्य करती है ।

डॉ श्वेता दीप्ति
सम्पादक, हिमालिनी



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